(V.K.Tiwari,Dr S Tiwari & Dr R.Dixit(Astrologer,palmist& vastu-Bangalore-9424446706,Sun City-56012)
🌾 A -हलषष्ठी / हरछठ (ललई छठ) – परंपरागत वर्णन
B- ऊब छठ ऊबटा छठ, हलषष्ठी या ललई छठ पर्व –कथा, पूजन-विधि और महत्त्व
📜 परिचय एवं महत्व
हलषष्ठी, जिसे हरछठ, ललई छठ, ललई अष्टमी या ललई पर्व भी कहा जाता है, भाद्रपद कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। यह विशेषतः गोकुल और कृष्ण जन्मभूमि क्षेत्र में प्रचलित है। इस दिन भगवान बलराम (हलधर) का जन्मोत्सव भी मनाया जाता है, और हल (हल जोतने का यंत्र) का प्रतीकात्मक पूजन होता है। महिलाएं, विशेषकर नवगर्भिणी और संतान-सुख की इच्छा रखने वाली, यह व्रत करती हैं।
📖 कथा (पुराणों एवं लोक परंपरा से)
भागवत पुराण व महाभारत में उल्लेख है कि रोहिणी देवी ने भाद्रपद कृष्ण षष्ठी को बलराम जी को जन्म दिया। बलराम जी को हलधर इसलिए कहा गया क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में कृषि कार्य एवं हल को सम्मान दिया।
लोककथा के अनुसार, एक स्त्री ने भाद्रपद कृष्ण षष्ठी के दिन खेत में हल चलाते समय फसल की जड़ों को काट डाला, जिससे बालकों की मृत्यु होने लगी। गाँव के बुजुर्गों ने कहा कि इस दिन हल चलाना और जड़ वाली वस्तुएं खाना वर्जित है क्योंकि यह धरती माता के गर्भ को चोट पहुँचाने जैसा है। तब से इस दिन हल, जड़ वाली वस्तुएँ और दूध-दही का परहेज़ रखा जाने लगा।
🪔 पूजा पद्धति
- प्रातः स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- व्रतधारी महिला मिट्टी का चौका बनाकर उसमें गोबर से लीपकर साफ करती है।
- भगवान बलराम की मूर्ति या चित्र, हल का प्रतीक (लकड़ी या धातु का) और गौ माता का चित्र स्थापित करें।
- चंदन, रोली, हल्दी, कुंकुम, धान, दूब, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन करें।
- दीपक पूर्व दिशा में जलाया जाता है और वर्तिका कपास की होनी चाहिए।
📜 मंत्र (प्रचलित)
- "ॐ हलधराय नमः" – बलराम जी के आशीर्वाद हेतु
- "ॐ संतानप्रदाय नमः" – संतान सुख हेतु
- "ॐ बलदेवाय विहायसे नमः" – बल एवं स्वास्थ्य हेतु
- "ॐ रोहिणीपुत्राय नमः" – मातृ कृपा हेतु
- "ॐ कृषिकराय नमः" – कृषि और संपन्नता हेतु
- "ॐ हलायुधाय नमः" – संकट निवारण हेतु
हलषष्ठी / हरछठ पर्व — संपूर्ण पारंपरिक विवरण
📜 पर्व का स्वरूप व महत्त्व
हलषष्ठी जिसे हरछठ, ललई छठ, बलराम जयंती भी कहा जाता है, भाद्रपद कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। यह व्रत विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में अन्नदाता, पशुपालक व संतानवती माताओं द्वारा मनाया जाता है। इसका सीधा संबंध भगवान बलराम (हलधर) और पुत्र-रक्षा से है। इस दिन हल से जोता हुआ अन्न नहीं खाया जाता, तथा माताएं अपने पुत्रों के सुख-समृद्धि व दीर्घायु के लिए व्रत रखती हैं।
📖 कथा (महाभारत व भागवत पुराण से संबद्ध)
प्राचीन काल में रोहिणी देवी ने गर्भधारण किया। भगवान विष्णु के आदेश से भगवान बलराम ने देवकी के गर्भ से स्थानांतरित होकर रोहिणी के गर्भ में प्रवेश किया। भाद्रपद कृष्ण षष्ठी को उनका जन्म हुआ, अतः यह दिन बलराम जयंती के रूप में भी पूजित है।
लोककथा के अनुसार — एक गाँव में एक गर्भवती स्त्री हलषष्ठी के दिन खेत में हल चलाने वाले बैलों की सेवा कर रही थी। उसने उसी दिन का ताजा जोता हुआ अनाज खा लिया, जिसके कारण उसका गर्भपात हो गया। गाँव की वृद्धा ने समझाया कि इस दिन हल से जोते हुए अन्न का त्याग कर संतान के लिए व्रत करना चाहिए। तभी से हल से जोते अन्न का निषेध और पुत्र-सुख की प्रार्थना का यह पर्व प्रचलित हुआ।
🪔 पूजन-पद्धति
- व्रती प्रातः स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- व्रत में बिना हल से जोते हुए अनाज (जैसे चना, मूंग, जौ, मक्का) का प्रयोग हो।
- आँगन में गोबर से लिपाई कर मृत्तिका वेदी बनाएं।
- वेदी पर बलराम जी का प्रतीक (हल व मूसल), रोहिणी माता और गोपालक स्वरूप की स्थापना करें।
- चन्दन, अक्षत, पुष्प, दूब, दूध-दही, मिष्ठान से पूजन करें।
- दीपक जलाकर उत्तर दिशा की ओर मुख करके व्रत करें (क्योंकि बलराम जी उत्तरमुख पूजा में प्रसन्न होते हैं)।
- संतान के नाम से पुष्पांजलि अर्पित करें।
📜 6 प्रमुख पारंपरिक मंत्र (अर्थ सहित)
- "ॐ हलधराय नमः" — हे हलधारी बलराम, हमारी रक्षा करें।
- "ॐ रोहिणीपुत्राय नमः" — रोहिणीपुत्र बलराम को नमन।
- "ॐ बलभद्राय नमः" — बलभद्र देव हमें बल व संतति दें।
- "ॐ रेणुकापुत्राय नमः" — रेनुका देवी के पुत्र को प्रणाम।
- "ॐ संतानपालकाय नमः" — संतान की रक्षा करने वाले को नमन।
- "ॐ हलमूसलधारिणे नमः" — हल व मूसल धारण करने वाले बलराम को प्रणाम।
📖 मंत्रार्थ
ये सभी मंत्र बलराम जी के बल, कृषिकार्य, संतान-सुरक्षा व धर्मपालन स्वरूप को स्मरण करते हैं। "हलधराय" शब्द कृषिकार्य के प्रतीक हैं, जबकि "संतानपालकाय" संतान के स्वास्थ्य व दीर्घायु की मंगलकामना है।
🚫 भोजन-वर्जन
- हल से जोता अन्न (धान, गेहूँ, अरहर, मूली आदि) वर्जित।
- मांस, मछली, मदिरा, प्याज-लहसुन निषिद्ध।
- खीरा नहीं खाया जाता (मान्यता है कि बलराम जी के हल के कारण खीरे में रेखाएं आईं)।
✅ भोजन में क्या लें
- बिना जोता हुआ अनाज — चना, मूंग, मक्का, जौ।
- दूध-दही, गुड़, फलाहार।
- घर पर बनी बिना हल के जोते अनाज से बनी रोटी/भोजन।
🪔 दिशा, दीपक व व्रत का रंग
- मुख दिशा: उत्तर।
- दीपक: मिट्टी का, घी का दीपक, हल्दी-कुमकुम से अलंकृत।
- व्रत का प्रमुख रंग: पीला (हल्दी व सूर्य बल का प्रतीक)।
🌟 पर्व के लाभ
- संतान की रक्षा, रोग-निवारण और दीर्घायु।
- परिवार में सुख-समृद्धि और कृषि में उन्नति।
- पुत्र-पौत्र की वृद्धि और कुल की निरंतरता।
📖 मंत्रार्थ
- हलधराय नमः – हल धारण करने वाले को नमस्कार
- संतानप्रदाय नमः – संतान देने वाले को वंदन
- बलदेवाय नमः – असीम बल वाले देव को प्रणाम
- रोहिणीपुत्राय नमः – रोहिणी देवी के पुत्र को नमस्कार
- कृषिकराय नमः – कृषि के प्रवर्तक को वंदन
- हलायुधाय नमः – हल को शस्त्र बनाने वाले को नमस्कार
🚫 वर्जित आहार
- हल से जोती गई भूमि का अनाज
- जड़ वाली सब्ज़ियाँ (अरबी, मूली, गाजर, आलू, शकरकंद)
- दूध, दही, छाछ(Cow,Goat,Etc)
- हरी पत्तेदार सब्ज़ियाँ
✅ सेवन योग्य आहार
- ताजे फलों का सेवन
- बिना जड़ वाली दालें (मूंग, मसूर)
- तिल, गुड़, सूखे मेवे
- गेहूँ/चावल जो हल से न जोते गए हों
🌟 महत्व एवं लाभ
- संतान सुख और संतान की दीर्घायु
- कृषि में समृद्धि और फसल वृद्धि
- मातृत्व सुरक्षा और गर्भस्थ शिशु की रक्षा
- परिवार में बल, स्वास्थ्य और ऐश्वर्य की वृद्धि
· कथा 1 — बलराम जन्म कथा (हलषष्ठी महात्म्य)
· महाभारत, हरिवंश पुराण और भागवत पुराण में वर्णित है कि द्वापर युग में जब पृथ्वी अत्यधिक पाप और अधर्म से भारग्रस्त हो गई, तब देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे अवतार लेकर धर्म की स्थापना करें।
श्रीहरि ने वचन दिया कि वे स्वयं श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट होंगे, और उनके अंशरूप में भगवान शेषनाग, उनके अग्रज के रूप में जन्म लेंगे। यही शेषावतार बलराम कहलाए।
· मथुरा के अत्याचारी राजा कंस ने अपनी बहन देवकी के विवाह के समय यह आकाशवाणी सुनी कि देवकी का आठवाँ पुत्र उसका वध करेगा। भयभीत कंस ने देवकी और वसुदेव को कारागार में बंद कर दिया और उनके जन्मे हर पुत्र को निर्दयता से मार डाला।
छठी बार गर्भ ठहरने पर भगवान विष्णु की आज्ञा से योगमाया ने लीला रची — देवकी के गर्भ में स्थित शेषावतार को गर्भ से निकालकर नंदग्राम की रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया।
यह घटना अत्यंत अद्भुत और दिव्य थी, क्योंकि रोहिणी उस समय नंदबाबा के यहाँ वसुदेव की दूसरी पत्नी के रूप में निवास कर रही थीं।
· रोहिणी के गर्भ में आकर शेषावतार का विकास हुआ और भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को उनका जन्म हुआ। जन्म के समय अद्भुत प्रकाश फैला, आकाश में देवगण पुष्पवृष्टि करने लगे, और चारों ओर मंगलध्वनियाँ होने लगीं। चूँकि उनका जन्म हल की पूजा से जुड़े दिन और शेषावतार के रूप में हुआ, उन्हें हलधर और बलराम कहा गया — ‘बल’ का अर्थ है अद्भुत शक्ति और ‘राम’ का अर्थ है आनंद।
· बलराम जी के जन्मोत्सव का ही स्मरण हलषष्ठी व्रत में किया जाता है। इस दिन महिलाएँ विशेष रूप से संतान-सुख और उनकी दीर्घायु के लिए व्रत रखती हैं। बलराम जी कृषि के देवता भी माने जाते हैं, इसलिए इस दिन हल से जुड़ी वस्तुएँ, हल की पूजा, तथा खेत-खलिहान से संबंधित प्रतीक विशेष महत्व रखते हैं।
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कथा 2 — हरछठ की परंपरा : व्रती स्त्री की भक्ति और भगवान बलराम का आशीर्वाद
· बहुत समय पहले की बात है। एक छोटे से ग्राम में गंगादेवी नाम की एक किसान की पत्नी रहती थी। उसका जीवन सादा, परंतु परिश्रम और धर्मनिष्ठा से भरा हुआ था। खेत-खलिहान में पति का साथ देना, गाय-बैल की सेवा करना और भगवान की भक्ति करना ही उसका प्रतिदिन का क्रम था। उसका सबसे बड़ा सपना था — उसके घर में भी संतान का किलकारियों भरा सुख हो।
· लेकिन कई वर्षों तक कोई संतान नहीं हुई। गंगादेवी के मन में यह पीड़ा गहरी बैठ गई। गाँव की बुजुर्ग महिलाएँ अक्सर कहतीं — “बेटी, हरछठ का व्रत करो, यह भगवान बलराम जी का प्रिय पर्व है। हल (हलधर) के धारक बलराम अन्न, भूमि और संतान—तीनों का आशीर्वाद देते हैं।” गंगादेवी ने दृढ़ संकल्प किया कि इस बार वह सावन कृष्ण पक्ष की षष्ठी को, पूर्ण नियमों के साथ हरछठ का व्रत करेगी।
·
व्रत के दिन उसने प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान किया। अपने आँगन को गोबर से लीपकर, एक कोने में गेहूँ की बालियों, हरे चने की फलियों और कच्चे धान की बालियों से पूजन स्थल सजाया। पूर्व दिशा की ओर मुँह करके, उसने एक मिट्टी का दीपक जलाया, जो दिन भर जलता रहे। हाथ जोड़कर बोली —
“जय जय हलधर बलराम,
तुम बिन कौन करे अभिराम।
भूमि-धान्य-संतान प्रदाता,
व्रत रखूँ मैं, सुनो विधाता।”
· पूजा में उसने हल चलाए खेत का अन्न, बिना काटा हुआ और बिना हल चलाए खेत की फलियाँ — दोनों को भगवान को अर्पित किया। इस व्रत की विशेषता यही है कि इस दिन हल से जोता हुआ अनाज नहीं खाया जाता। गंगादेवी ने भी कच्चा चना, मकई, कोदों, और ज्वार जैसी फसलें भोग में चढ़ाईं।
·
दिन भर उपवास रखते हुए उसने बलराम जी के मंत्र का जप किया —
"ॐ बलभद्राय नमः"
प्रत्येक मंत्र के साथ वह मन ही मन अपनी पीड़ा कहती — “हे बलराम, मुझे संतान का सुख दो, मेरे घर में भी किलकारी गूँजे।”
· शाम को जब गाँव की महिलाएँ एकत्र होकर कथा सुनने बैठीं, तो गंगादेवी ने भी ध्यान से सुना। कथा में बताया गया कि कैसे बलराम जी, जो हल और मूसल के धारक हैं, धरती को हल से जोतकर जीवनदायिनी अन्न उपजाते हैं, और अपने भक्तों के घर संतान-सुख का आशीर्वाद देते हैं।
· व्रत पूर्ण होने के बाद, गंगादेवी ने पहले ब्राह्मणों और सुहागिन स्त्रियों को भोजन कराया। उसके बाद स्वयं प्रसाद ग्रहण किया। विश्वास और श्रद्धा की ज्योति उसके हृदय में गहरी जल रही थी।
·
कुछ ही महीनों बाद, गंगादेवी ने अनुभव किया कि उसके जीवन में एक नई उमंग आने वाली है — वह गर्भवती थी। नौ महीने बाद उसके घर एक सुंदर पुत्र का जन्म हुआ। गाँव की बुजुर्ग महिलाओं ने कहा —
“देखा, हरछठ का व्रत व्यर्थ नहीं जाता। बलराम जी हल से धरती ही नहीं, भक्त के भाग्य को भी जोतते हैं।”
· इस कथा से सीख — श्रद्धा, नियम और संयम के साथ किया गया व्रत न केवल संतान-सुख देता है, बल्कि जीवन में स्थिरता, संपन्नता और धरती-धान्य का आशीर्वाद भी देता है।
·
तीसरी कथा – हलषष्ठी व्रत की कथा (गोपियों द्वारा भगवान श्रीकृष्ण के लिए व्रत) – भागवत पुराण आधारित
· बहुत समय पूर्व की बात है। वृंदावन में वर्षा ऋतु समाप्त होने के बाद श्रावण कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि आई। यह दिन विशेष रूप से हलषष्ठी के रूप में प्रसिद्ध था। ब्रज की सभी गोपियाँ, जो अपनी संतानों की दीर्घायु और सुख-समृद्धि की कामना करती थीं, इस दिन विशेष व्रत करतीं। इस व्रत का विधान था कि हल से जोतकर बोई गई अन्न-फसलों का भोजन नहीं करना और केवल दूध, दही, लस्सी, फल, मट्ठा और झाड़-झंखाड़ की जड़ों-फलों से दिन भर निर्जल रहकर पूजा करनी।
· कथा के अनुसार, जब भगवान श्रीकृष्ण बाल्यकाल में थे, तभी एक बार यह व्रत वृंदावन की गोपियों ने बड़े हर्ष और श्रद्धा से किया। सभी गोपियाँ यमुना तट पर एकत्र हुईं। उन्होंने मिट्टी के चबूतरे पर हलधर बलराम जी तथा माता गौरी की प्रतिमा स्थापित की। दिशानुसार पूर्वमुख होकर बैठीं, अपने पास दीपक, रुई की बाती, तिल का तेल, दूर्वा, फूल, रोली, अक्षत, जल से भरे कलश और षड्रंग (छः प्रकार की रंगीन पूजा सामग्रियाँ) रखीं।
·
पूजन
के आरंभ में गोपियों ने एक स्वर
में यह प्रार्थना की
–
"हे
हलधर
देव!
आप
बल
और
धर्म
के
प्रतीक
हैं,
आप
ही
अन्न
के
अधिपति
हैं।
जैसे
आपने
अपने
छोटे
भाई
श्रीकृष्ण
की
रक्षा
की,
वैसे
ही
हमारे
पुत्र-पौत्रों
की
भी
रक्षा
करें।"
इसके बाद उन्होंने ‘ॐ
हलधराय
नमः’
और ‘ॐ
गौरीपुत्राय
नमः’
मंत्रों का जाप किया।
पूजा पूर्ण होने के बाद गोपियों
ने फल, दूध और मिष्ठान का
नैवेद्य अर्पित किया और व्रत कथा
सुनना आरंभ किया।
· कथा में बताया गया कि हलधर बलराम जी का जन्म श्रावण शुक्ल द्वितीया को हुआ, और वे हल (कृषि) के देवता हैं। उनके नाम से ही इस व्रत को हलषष्ठी कहा जाता है। इस दिन कृषि से जुड़े सभी उपकरण, विशेषकर हल, बैल, रस्सी और जुआ, पवित्र माने जाते हैं। गोपियाँ मानती थीं कि यदि इस दिन हल से जोते अन्न का परहेज किया जाए, तो संतान को दीर्घायु, बल, बुद्धि और सौभाग्य प्राप्त होता है।
·
पूजन
के अंत में उन्होंने दीपदान किया और मंत्र बोला
–
"दीपज्योतिर्बलप्रदाता,
संतान
सुखवर्धक।
हलधर
देव
पूज्यन्ते,
मम
पुत्राय
दीर्घायुष्यम्।"
· इस प्रकार व्रंदावन की गोपियों का यह व्रत, केवल भगवान श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम ही नहीं, बल्कि कृषि, धर्म और संतान सुख के प्रति श्रद्धा का प्रतीक बन गया। तभी से यह परंपरा आज तक चली आ रही है।
·
चौथी कथा — हलषष्ठी व्रत की चौथी लोकप्रचलित कथा
· प्राचीन समय में एक नगर में एक साहूकार रहता था। उसके घर में धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी, परंतु संतान का सुख उसे प्राप्त नहीं था। अनेक वर्ष बीतने पर भी जब उसकी पत्नी को संतान न हुई, तो दोनों पति-पत्नी अत्यंत दुःखी रहने लगे। एक दिन एक साध्वी माई ने साहूकारिन को बताया कि यदि वह भाद्रपद कृष्ण षष्ठी के दिन हलषष्ठी व्रत करे, बालकृष्ण और बलराम की पूजा करे, तथा उस दिन हल से जुती हुई भूमि के अन्न, दही, दूध आदि का सेवन न करे, तो संतान-सुख की प्राप्ति निश्चित है।
· साहूकारिन ने माई के बताए अनुसार व्रत किया, कठोर नियमों का पालन किया, और भगवान बलराम की पूजा अर्चना की। वर्षभर के भीतर ही उसके घर एक सुंदर पुत्र का जन्म हुआ। परंतु संयोगवश जन्म के छठे दिन ही बालक की मृत्यु हो गई।
पति के डर से साहूकारिन ने बालक को कपड़े में लपेटकर चुपचाप जंगल में रख दिया और वहाँ से लौट आई। उधर, उसी समय पास के गाँव की एक ग्वालिन अपने नवजात पुत्र को दूध पिलाने जंगल की ओर गई थी। उसने कपड़े में लिपटे बालक को देखा, दया आई और उसे अपने घर ले गई।
· कुछ समय बाद गाँव में यह बात फैल गई कि ग्वालिन का पुत्र असल में साहूकार का बच्चा है। साहूकारिन ने जाकर सच्चाई कबूल की और भगवान बलराम से क्षमा माँगी कि उसने बच्चे को त्यागने जैसी भूल की।
बलराम ने उसे आशीर्वाद दिया—"अब से यह बच्चा तेरे पास सुरक्षित रहेगा, और आगे तेरे यहाँ अनेक संताने होंगी।"
· उस दिन से यह मान्यता बन गई कि हलषष्ठी के दिन संतान की रक्षा और सुख के लिए माता-पिता को भगवान बलराम और देवी गौरा की पूजा करनी चाहिए, हल से जुताई वाले अन्न का त्याग करना चाहिए, और अन्न की जगह फल, दूध, दही, चने, मूँग, गुड़ आदि का सेवन करना चाहिए।
·
📜 महत्व: यह कथा सिखाती है कि संतान ईश्वर का दिया हुआ अमूल्य उपहार है, उसकी रक्षा, पालन-पोषण और सुख के लिए श्रद्धा, भक्ति और व्रत का पालन अनिवार्य है।
🕯 पूजा दिशा एवं दीपक: पूजन उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुख करके करना शुभ है, दीपक घी का जलाना श्रेष्ठ है।
🪔 मंत्र:
ॐ बलदेवाय नमः
ॐ रोहिणी-पुत्राय नमः
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पाँचवी कथा – हरछठ व्रत एवं सती रूपा की कथा (विस्तृत रूप)
प्राचीन काल में कौशिकनगर में रूपा नाम की एक धर्मनिष्ठ, सौम्य और पतिव्रता नारी रहती थी। उसका विवाह एक किसान परिवार में हुआ था। रूपा का पति अत्यंत परिश्रमी था, परंतु संतान का सुख उसे लंबे समय तक प्राप्त नहीं हुआ। रूपा हर व्रत, उपवास और देवपूजन बड़ी श्रद्धा से करती थी, विशेषकर पुत्रप्राप्ति हेतु वह हर वर्ष भाद्रपद कृष्ण षष्ठी के दिन हरछठ व्रत अवश्य करती थी।
एक वर्ष, रूपा के गर्भवती होने पर उसके मायके से संदेश आया कि पुत्र जन्म के पश्चात पहले “हल छुए अन्न” या खेत की उपज नहीं खाना। यह मातृ परंपरा थी कि गर्भवती स्त्री और उसके नवजात को षष्ठी के दिन हल से जुताई की उपज (जैसे गेहूँ, जौ, धान) से बनी कोई वस्तु नहीं दी जाती, ताकि बालक स्वस्थ और दीर्घायु हो। इसके स्थान पर केवल “धान की लाही, चने की दाल, दूध, दही, गुड़, फल एवं कच्ची सब्जियाँ” दी जाती थीं।
जब रूपा के गर्भ के नौवें महीने पूरे हुए, तो उसके पति के खेत में काम चल रहा था। उस दिन भाद्रपद कृष्ण षष्ठी थी – हरछठ व्रत का दिन। रूपा ने सुबह स्नान कर, भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलरामजी (हलधर) का पूजन किया, कच्चे दूध से दीपक जलाया और हाथ जोड़कर प्रार्थना की – “हे हलधर, आप धरती के पालनहार हैं, मेरी संतान की रक्षा करें, उसे दीर्घायु और सुखी बनाएं।”
प्रथा के अनुसार रूपा
ने उस दिन हल
की जुताई से प्राप्त अनाज
का त्याग किया और केवल दूध-दही-लाही का सेवन किया।
दिन में उसने मिट्टी के चौड़े पात्र
में मिट्टी का हल,
बैल,
सूर्य
और
नाग
बनाकर उनकी पूजा की, साथ में बलरामजी के बीज मंत्र
का जाप किया –
"ॐ
बलभद्राय
नमः"
मंत्रोच्चार के बाद रूपा
ने दीपक की लौ में
अपने मस्तक को झुकाकर आशीर्वाद
माँगा।
कुछ माह बाद रूपा ने एक सुंदर, स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया। परिवार में आनंद का वातावरण छा गया। रूपा ने अपने व्रत की सफलता का श्रेय हरछठ पूजा को दिया और अगले वर्ष पुनः उसी दिन व्रत कर बलरामजी का आभार व्यक्त किया।
कथा
का
संदेश
–
यह व्रत केवल संतान प्राप्ति के लिए ही
नहीं, बल्कि संतान की लंबी उम्र,
स्वास्थ्य और समृद्धि के
लिए भी किया जाता
है। इस दिन हल
से जुते खेत की उपज नहीं
खाई जाती ताकि भूमि माता और कृषि देवता
का सम्मान हो तथा अन्न
में अशुद्धि न आए।
व्रत के मुख्य नियम –
· हल से जुताई की उपज (गेहूँ, जौ, धान आदि) वर्जित।
· केवल दही, दूध, गुड़, फल, चना, लाही का सेवन।
· बलरामजी (हलधर) और धरती माता की पूजा।
· पूर्व दिशा की ओर दीपक जलाकर संतान की रक्षा की प्रार्थना।
मंत्र –ॐ हलधराय बलरामाय नमः"
"ॐ
बलभद्राय नमः"
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· षष्ठी माता की छठी कथा (छठी कथा)
· बहुत प्राचीन काल में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था। उसके घर में न तो संतान थी, न धन, न ही कोई सहारा। उसका जीवन अत्यंत कष्टमय बीत रहा था, परंतु उसके मन में परम श्रद्धा और भक्ति थी। एक दिन उसने गाँव के बुजुर्गों से सुना कि षष्ठी माता संतानहीनों को संतान देती हैं और दुखियों के जीवन में सुख-संपन्नता लाती हैं। वह यह सुनकर प्रेरित हुआ और निश्चय किया कि माता का व्रत करके प्रसन्न करूँगा।
· निर्धन ब्राह्मण ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी का दिन चुना। प्रातःकाल स्नान करके, शुद्ध वस्त्र धारण कर, पूर्व दिशा में मुख करके, मिट्टी का चबूतरा बनाकर उस पर षष्ठी माता की मूर्ति स्थापित की। मूर्ति के सामने दीपक प्रज्वलित किया और गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, नैवेद्य चढ़ाया। प्रसाद के रूप में चने की दाल, दूध, गुड़, हल्दी लगी हुई जौ की बालियाँ, और हरी सब्ज़ियाँ चढ़ाईं, क्योंकि हलषष्ठी में हल से जुती हुई अनाज वर्जित होते हैं। उन्होंने माता से प्रार्थना की—
· "हे षष्ठी माता! आप जगत की पालनकर्त्री, बालकों की रक्षिका, और संतानदायिनी हैं। आप ही की कृपा से निर्जन घर में किलकारियाँ गूंजती हैं। मुझे अपनी शरण में लेकर संतान और सुख प्रदान करें।"
· व्रत के दिन ब्राह्मण ने केवल फल, दूध और बिना हल का अनाज खाया। रात्रि में भजन-कीर्तन करते हुए माता का गुणगान किया। रात्रि के अंतिम पहर में उसे स्वप्न में माता षष्ठी का साक्षात् दर्शन हुआ। वे सुवर्णाभा, छः भुजाओं वाली, सिंहवाहिनी देवी थीं, जिनके एक हाथ में बालक था और दूसरे हाथ में वरमुद्रा। उन्होंने कहा— “वत्स! तेरी भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुझे पुत्ररत्न प्रदान करती हूँ। तेरे घर में शीघ्र ही संतान का आगमन होगा, और तेरे जीवन के कष्ट समाप्त होंगे।”
· स्वप्न से जागकर ब्राह्मण के हृदय में अलौकिक आनंद भर गया। कुछ ही दिनों में उसकी पत्नी गर्भवती हुई और समय आने पर उसने सुंदर, स्वस्थ बालक को जन्म दिया। ब्राह्मण दंपति ने यह चमत्कार माता षष्ठी की कृपा माना और प्रतिवर्ष उसी दिन श्रद्धा से व्रत करते रहे।
· तब से यह परंपरा चल पड़ी कि जिन घरों में संतान सुख न हो या संतान बार-बार रोगग्रस्त होती हो, वहाँ माता षष्ठी का व्रत अवश्य किया जाए।
·
मंत्र –
"ॐ षष्ठ्यै नमः"
या
"ॐ षष्ठी मातर्यै नमः"
· फल – जो भक्त निष्ठा और नियमपूर्वक इस व्रत को करता है, उसके घर में संतान सुख, पारिवारिक आनंद और बालकों की दीर्घायु सुनिश्चित होती है।
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-ऊब छठ ऊबटा छठ, हलषष्ठी या ललई छठ पर्व –कथा, पूजन-विधि और महत्त्व
📜 परिचय:
ऊब छठ (जिसे ऊबटा छठ, हलषष्ठी या ललई छठ भी कहा जाता है) भाद्रपद कृष्ण षष्ठी को मनाया जाने वाला व्रत है। यह विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में प्रचलित है। इस दिन महिलाएँ अपने पुत्र की दीर्घायु और परिवार की सुख-समृद्धि के लिए व्रत रखती हैं। “ऊब” का अर्थ होता है अन्न से परहेज़ — इस व्रत में अन्न, दूध, दही, घी और नमक तक वर्जित होता है।
📖 कथा
(भागवत पुराण एवं लोककथाओं पर आधारित):
एक समय की बात है,
गोकुल में कृष्ण जन्म के बाद माता
यशोदा, रोहिणी और अन्य गोपियाँ
भगवान के पूजन में
लगी थीं। उसी समय बलरामजी की माता रोहिणी
ने पुत्र के कल्याण हेतु
हलषष्ठी का व्रत किया।
परंपरा के अनुसार, इस
व्रत में अन्न, दूध, दही और घी का
सेवन नहीं करना था। व्रत का प्रभाव यह
माना गया कि बलरामजी (जिनका
अस्त्र हल है) सदा
बलवान और रोगमुक्त रहे।
एक अन्य कथा के अनुसार, एक
ग्वालिन व्रत के दिन अनजाने
में दूध पी बैठी। परिणामस्वरूप
उसका पुत्र बीमार हो गया। तब
गाँव की वृद्ध महिलाओं
ने बताया कि व्रत का
नियम टूटने से ऐसा हुआ।
उसने पुनः नियमपूर्वक व्रत किया, तब उसका पुत्र
स्वस्थ हो गया।
इसी कारण इस व्रत को
अत्यंत कठोर नियमों के साथ किया
जाता है।
🌸 ऊब छठ व्रत – कथा, विधि एवं मंत्र (महत्व सहित)
📜 व्रत का स्वरूप
ऊब छठ (जिसे ऊंवा छठ, ऊब चौथ भी कहते हैं) मुख्यतः विवाहित स्त्रियों द्वारा संतान की लंबी आयु, स्वास्थ्य, सुख-समृद्धि और पति की दीर्घायु के लिए रखा जाता है। यह भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन महिलाएँ हल-चला अन्न वर्जित रखकर फल, कंद-मूल, दूध-दही से पूजा करती हैं।
🪔 पूजा-विधि संक्षेप में
- व्रती प्रातः स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करती हैं।
- घर के आँगन या पूजा स्थान पर चौकी पर गौरी माता एवं षष्ठी माता की प्रतिमा/चित्र स्थापित।
- कलश स्थापना कर उसमें जल, सुपारी, अक्षत, दूर्वा डालकर ऊपर नारियल रखें।
- षष्ठी माता को दूध, दही, गुड़, फल, कंद-मूल अर्पण।
- कथा-श्रवण के बाद चंद्रमा को अर्घ्य और दीपदान।
- संध्या को व्रत का फलाहार।
📖 व्रत-कथा (लोककथा एवं पुराणकथन का संयोग)
पुराणों में वर्णित है कि षष्ठी देवी भगवान ब्रह्मा की मानस पुत्री और समस्त बालकों की रक्षिका हैं। एक समय राजा प्रियव्रत और उनकी पत्नी मलिनी को संतान नहीं थी। उन्होंने महर्षि कश्यप के कहने पर षष्ठी देवी का व्रत किया। देवी प्रसन्न होकर राजा को पुत्ररत्न का आशीर्वाद दिया, परंतु कुछ ही दिनों में बालक की मृत्यु हो गई। दुःखी राजा ने पुनः देवी की आराधना की। देवी ने कहा — "मैं ही संतान की रक्षिका हूँ, तुमने मेरा व्रत विधिपूर्वक किया है, अतः तुम्हारे पुत्र को पुनर्जीवित करती हूँ।" तब से यह व्रत संतान की रक्षा और सुख के लिए किया जाने लगा।
लोक परंपरा में भी कथा है कि एक महिला की संतान बार-बार बीमार होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाती थी। एक वृद्धा ने उसे षष्ठी व्रत करने की सलाह दी। महिला ने पूर्ण श्रद्धा से व्रत किया और माँ षष्ठी ने उसके बच्चों को दीर्घायु प्रदान की। दूसरी कथा — हलषष्ठी की कथा -
प्राचीन समय में एक छोटे से ग्राम में एक साधारण ग्वालिन रहती थी। उसका नाम था गोमती। वह भक्ति, सेवा और निष्ठा में अद्वितीय थी, किंतु संतान-सुख से वंचित थी। वर्षों तक व्रत-उपवास और देव-पूजन करने के बाद, अंततः उसे एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र के जन्म से उसके जीवन में जैसे वसंत आ गया। घर में आनंद का वातावरण था और गाँव भर में खुशियाँ मनाई गईं।
बालक अभी शैशवावस्था में ही था कि अचानक उसका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। ग्वालिन ने वैद्य बुलाए, जड़ी-बूटियों से उपचार करवाया, परंतु बालक की हालत बिगड़ती ही गई। कई दिनों तक अथक प्रयास के बाद भी जब बालक ने प्राण त्याग दिए, तो ग्वालिन का हृदय टूट गया। उसकी ममता विलाप कर उठी।
गाँव में उसी समय हलषष्ठी व्रत का पर्व आने वाला था। प्रथा थी कि इस दिन स्त्रियाँ हल से जुते हुए अन्न का सेवन नहीं करतीं, और व्रत रखकर भगवान बलराम व माता हरिती की पूजा करतीं। परंतु ग्वालिन ने, अपने दुख में डूबी हुई, किसी परंपरा की परवाह नहीं की। वह अपने मृत पुत्र के लिए दूध, दही, और हल से उगे अन्न लेकर श्मशान की ओर चल पड़ी, ताकि अंतिम संस्कार के बाद उसका तर्पण कर सके।
जब वह श्मशान पहुँची, तभी गाँव की वृद्ध स्त्रियों ने उसे रोका —
"अरे बहू, आज हलषष्ठी का दिन है। इस दिन हल से जुते अन्न का, दही-दूध का, या ऐसी किसी वस्तु का उपयोग करना वर्जित है।"
परंतु ग्वालिन, ममता में अंधी होकर बोली —
"मेरा पुत्र तो चला गया, अब मैं किस नियम का पालन करूँ? उसका संस्कार ही मेरे लिए धर्म है।"
यह कहकर उसने व्रत-वर्जना की परवाह किए बिना सब कार्य किए।
पौराणिक मान्यता है कि माता हरिती, जो संतान की रक्षा करती हैं, व्रत-विधान का अपमान सहन नहीं करतीं। ग्वालिन के इस कार्य से वे रुष्ट हुईं। फलस्वरूप, जब बालक का संस्कार समाप्त हुआ, तब गाँव की स्त्रियों के बच्चों में भी अचानक रोग फैलने लगा। माताएँ चिंतित होकर माता हरिती की शरण में गईं और प्रार्थना करने लगीं —
"हे माता, हमारी भूल क्षमा करें, हम नियमों का पालन करेंगे।"
माता हरिती ने कहा —
"यह दोष इस ग्वालिन की असावधानी से उत्पन्न हुआ है। जब तक यह सच्चे मन से प्रायश्चित नहीं करेगी और हलषष्ठी का नियमपूर्वक व्रत नहीं रखेगी, तब तक यह संकट समाप्त नहीं होगा।"
ग्वालिन को अपनी भूल का बोध हुआ। उसने गाँव की सभी स्त्रियों के साथ मिलकर अगली हलषष्ठी पर पूर्ण नियम और श्रद्धा से व्रत रखा, हल से जुड़े अन्न का त्याग किया, माता हरिती और भगवान बलराम की पूजा की, दीप प्रज्वलित किए और व्रत-फल से सभी को भोजन कराया।
कहा जाता है कि तभी से गाँव में सुख-शांति और बच्चों की दीर्घायु का आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
शिक्षा: यह कथा हमें सिखाती है कि परंपराओं और व्रत-विधान का पालन केवल रीति-रिवाज नहीं, बल्कि हमारे जीवन और समाज के कल्याण के लिए आवश्यक है। भावनाओं में बहकर नियम तोड़ने से अनजाने में बड़ा नुकसान हो सकता है।
मंत्र (पूजन में प्रयुक्त)
"ॐ षष्ठी मातायै नमः"
"ॐ बलरामाय नमः"
अर्थ
- "ॐ षष्ठी मातायै नमः" — मैं संतान की रक्षा करने वाली, रोग-निवारण करने वाली, और सुख-समृद्धि प्रदान करने वाली माता षष्ठी को नमस्कार करता हूँ।
- "ॐ बलरामाय नमः" — मैं बल, साहस, और कृषि के रक्षक, शेषनाग के अवतार भगवान बलराम को नमस्कार करता हूँ।
🔱 ऊब छठ व्रत-मंत्र
(पूजा के समय जपने योग्य)
- षष्ठी माता स्तुति मंत्र
🪔 पूजन-विधि:
- प्रातः स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- घर के आँगन या पूजा स्थान में गोबर से लीपा हुआ चौरस बनाकर उस पर मिट्टी का तालाब (तालिया) बनाएँ।
- इसमें कांस, दूब, अक्षत और चने की बालियाँ रखें।
- बलरामजी, माता रोहिणी, हल और हलवाहन बैल की प्रतीक रूप से पूजा करें।
- चंदन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और जल अर्पित करें।
- व्रत में केवल “छठ का ऊब” (चना, मूँग, झींगरी, कांस, घुइयाँ आदि) का प्रसाद लें।
📜 मंत्र:
🔹 “ॐ हलधराय नमः” — बलरामजी की कृपा प्राप्ति के लिए।
🔹 “ॐ रोहिण्यै नमः” — मातृ शक्ति से पुत्र रक्षण हेतु।
🚫 वर्जित वस्तुएँ:
- दूध, दही, घी, नमक, तेल, अन्न।
- तली-भुनी एवं मसालेदार चीज़ें।
🍃 खाने योग्य वस्तुएँ (ऊब):
- कच्ची सब्जियाँ (घुइयाँ, झींगरी, कंस),
- चना, मूँग, दूब, केला, अमरूद आदि।
🌟 महत्त्व एवं लाभ:
- पुत्र की दीर्घायु, बल, बुद्धि और स्वास्थ्य में वृद्धि होती है।
- रोगों एवं विपत्तियों से परिवार की रक्षा।
- बलरामजी की कृपा से कृषिकार्य, भूमि और पशुधन में वृद्धि।
संतान सुख एवं पारिवारिक सौहार्द की प्राप्ति। ऊब छठ पर्व – भोजन, व्रत-नियम एवं परहेज़
ऊब छठ (जिसे ऊंवा छठ या ऊब चौथ भी कहते हैं) मुख्यतः विवाहिता स्त्रियों का एक पारंपरिक व्रत है, जो संतान की दीर्घायु, सुख-समृद्धि और वैवाहिक सौख्य के लिए किया जाता है। इस दिन विशेष पूजा और परहेज़ के नियम माने जाते हैं—
📜 भोजन वर्जित
· इस दिन अनाज (धान्य) का सेवन वर्जित है।
· नमक और मसालेदार भोजन से परहेज़।
· मांस, मदिरा, प्याज, लहसुन का त्याग।
· तला-भुना भोजन, भारी आटे के पकवान नहीं।
🌱 हल-चला हुआ अनाज
· व्रत में “हल-चला” अनाज (हल जोतकर उगाया गया) और उससे बने व्यंजन नहीं खाए जाते।
· मुख्यतः कच्चा अन्न (जो सीधे प्रकृति से बिना हल जोते प्राप्त हो, जैसे फल, कंद-मूल, दूध, दही, गुड़) ही स्वीकार्य है।
🍏 क्या खा सकते हैं
· मौसमी फल, नारियल, सूखे मेवे, दूध, दही, मिश्री, गुड़, शहद।
· कंद-मूल जैसे शकरकंद, अरबी, सफेद मूसली (यदि स्थानीय परंपरा में मान्य हो)।
· चंद्रमा को अर्घ्य देने के बाद संध्या समय व्रती मीठा फलाहार ग्रहण करते हैं।
🌸 महत्त्व व लाभ
· व्रत करने से संतान का स्वास्थ्य और जीवन दीर्घ होता है।
· वैवाहिक जीवन में सौहार्द और प्रेम बढ़ता है।
· परिवार में सुख-समृद्धि, अन्न-धान्य और धन-धान्य की वृद्धि होती है।
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