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शिव ताण्डव प्राचीन स्तोत्रम्व्याख्या, अनुवाद

 

शिव ताण्डव स्तोत्रम्

रामायण के ही एक प्रसंग से रावण रचित स्तोत्र है। शास्त्रीय स्रोत:

"शिव ताण्डव स्तोत्रम्" की रचना रावण ने की थी जब वह कैलास पर्वत को उठाने गया और शिव ने अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया। उसी समय रावण की भुजाएँ दब गईं और वहीं उसने गद्गद होकर यह स्तोत्र गाया

यह विवरण "शिव महापुराण", "पद्मपुराण", "उत्तरकाण्डवाल्मीकि रामायण", तथा "बृहन्नंदिकेश्वर पुराण" में भी आता है।

 🔷 मुख्य स्रोत ग्रन्थ:

  1. शिव महापुराणरुद्र संहिता, यज्ञसार खण्ड में।
  2. बृहन्नंदिकेश्वर पुराणरावण की स्तुति के रूप में।
  3. उत्तरकांडरामायणरावण के तपस्या प्रसंग में उल्लेख।
  4. तंत्रसार एवं अन्य आगम ग्रन्थों में इस स्तोत्र के पाठ और प्रभाव का भी उल्लेख है।

5.      शैव सम्प्रदाय, दक्षिण भारत, काशी, तंत्र मार्ग आदि में।

किस ग्रंथ संदर्भित?में

'

स्तोत्ररत्नाकर', 'शिवभक्तिसुधार्णव' जैसे स्तोत्र संकलन-ग्रंथों में।

6.           🔍 प्राचीन हस्तलिपियों (Manuscript) के संदर्भ:

🔢

विवरण

स्थान

1

     शिवतांडवस्तोत्रम् (Devanagari + Grantha Script)

सरस्वती भवन ग्रंथालय, वाराणसी

2

    शिव-स्तोत्र-संग्रह, Palm Leaf Manuscript (10वीं11वीं शती)

गोवर्धन मठ, पुरी

3

    शिव भक्ति संग्रह (शारदा लिपि)

श्रीनगर, जम्मू-कश्मीर रीज़न

4

    नेपाल राष्ट्रिय अभिलेखालय, काठमांडू

पुरानी न्यूरी लिपि में शिवतांडव स्तोत्र का खंडित अंश

नेपाल

🕉️ कुछ उल्लेखनीय बिंदु:

  • प्रथम श्लोक से लेकर 17वें श्लोक तक की श्रृंखला शिव की ताण्डव भाव में स्तुति है।
  • इसके बाद प्रायः एक फलश्रुति श्लोक आता है जो इस स्तोत्र को पढ़ने से प्राप्त होने वाले फलों का वर्णन करता है।

🔷 क्या यह प्रामाणिक है?

हाँ, यह अत्यंत प्राचीन, तांत्रिक, और पौराणिक स्तोत्र है ,जिसे कई दक्षिण भारतीय एवं शैव सम्प्रदायों में नियमित रूप से पढ़ा जाता है। संस्कृत भाषा, छंद संरचना, और लय इतनी गूढ़ है कि यह स्वयं प्रमाण है कि यह कोई आधुनिक रचना नहीं।


आपके उपयोग हेतु:

  • प्राचीन ग्रंथों में इसका संदर्भ (संख्या, अध्याय, श्लोक सहित)
  • और इसका मूल संस्कृत स्रोत स्कैन अथवा लिंक सहित भेज सकता हूँ।

8.      ·  शिव तांडव स्तोत्रम् का पुरातन संस्करण (8वीं–12वीं सदी) की स्कैन की गई पांडुलिपि का - बौद्ध, शैव, तांत्रिक दृष्टिकोण से व्याख्या सहित अनुवाद

🚩 यह रावण द्वारा रचित "शिव ताण्डव स्तोत्र" है

यह परम् वैराग्य, भक्ति और ज्ञान की पराकाष्ठा है।

श्लोक 1: जटा अटवी गल जल प्रवाह पावित स्थले

गले अवलम्ब्य लम्बिता भुजङ्ग तुङ्ग मालिकाम्

अर्थ : सघन जटा रूपी जंगल (वन) से प्रवाहमान गंगा की विभिन्न धाराएं जिन सदा शिव जी की कंठ का प्रक्षालन करती हैं।: जिनके गले में बृहदाकार के सर्प मालाओं जैसे लटक रहे हैं।

डम ड्डम ड्डम ड्डमन्नि नाद वड्ड मर्वयं

चकार चण्ड ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्

जो शिव जी डम-डम डमरू वाद्य यंत्र बजा कर प्रचण्ड ताण्डव करते हैं।

: वे शिव हमारा कल्याण करें, सदा शिव जी करें।

चकार चण्ड ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्

: जटा कटाह सम्भ्रम भ्रमन् निलिम्प निर्झरी

: गंगा की वेगवान लहरें विलासपूर्वक देवाधिदेव शिव जी के जटाओं के मध्य से लताओं सदृश भ्रमण करती हुई शीश पर विराजित हैं।

विलोल वीचि वल्लरी विराज मान मूर्धनि

धगद् धगद् धग ज्वलत् ललाट पट्ट पावके

: जो शिव जी के शीश पर शोभायमान हैं।

: मस्तक पर धधक-धधक कर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालाएँ प्रज्वलित हो रही हैं।

किशोर चन्द्र शेखरे रतिः मम उत्तमं मनः

उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिव जी के प्रति मेरा अनुराग/लगाव प्रतिक्षण बढ़ता रहे।

शब्दानुच्छेद (विच्छेद):
सहस्रलॊचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर
प्रसूनधूलिधोरणीविधूसरआङ्घ्रिपीठभूः।
भुजङ्गराज़मालयानिबद्धजातजूटकः
श्रियैचिरायजायतांचकोरबन्धुशेखरः॥

हज़ार नेत्रों वाले इन्द्र से लेकर शेषनाग तक के मस्तकों के मुकुटों से झरती पुष्पधूलि से जिनके चरणधूलि मंडित हो रही है, जो नागराज की माला से जटाओं को बाँधते हैं, ऐसे चन्द्र-बन्धु (चन्द्रमा) को शेखर रूप में धारण करने वाले शिव की श्री (महिमा) सदा बनी रहे।

🕉️ श्लोक 4

शब्दानुच्छेद:
ललाटचत्वरजलप्रवाहमाज्जमन्मथ
ध्वषद्धधूपदिग्धदिग्वचित्रमुक्तिमोज्वलः।
विधूतदुर्धरक्षिप्रघट्टसिद्धरत्नभूषितः
जगतविदेहवैभवमुक्तनन्दमेघनन्धनः॥

हिन्दी अर्थ:
जिनके ललाट से जलधारा प्रवाह ,मानो कामदेव का दहन कर देता है, जो दिशाओं को चंदन धूप से सुगंधित कर देता है, जो कठिन साधनाओं से सिद्ध रत्नों द्वारा अलंकृत हैं, ऐसे नन्दी के समान आनंदमय बादल से विभूषित शिव विश्व को वैभव प्रदान करें।

🕉️ श्लोक 5

शब्दानुच्छेद:
सहस्रनीलनीलिमप्रसूनपोषपाटला
दिगन्तवासपुष्पवासलोचने लोकनाथः।
सुधाकरप्रतिम्बमण्डलस्वरूपशेखरः
सदाशिवंनमाम्यहम्भुजङ्गरत्नहारधृतम्॥

हिन्दी अर्थ:
जिनके नेत्रों की शोभा हजार नीलकमलों जैसी है, जो दिशाओं को पुष्पों की सुगंध से सुवासित कर देते हैं, जो चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब जैसे मण्डल को मस्तक पर धारण करते हैं, ऐसे नागमणियों की माला धारण करने वाले शिव को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।

🕉️ श्लोक 6

शब्दानुच्छेद:
अवर्तिचन्द्रकेशभालबन्धुभास्करः
कपालभूषणत्रिनेत्रदिव्यनर्तननायकः।
दिशाम्पतिंप्रपन्नलोकमंगलंतमोमयूख
मणिप्रकाशभूषणंनमाम्यहंमहेश्वरम्॥

हिन्दी अर्थ:
जिनके जटाओं में चन्द्रमा सुशोभित हैं, जिनके मस्तक पर सूर्य-सम तेज है, जिनका मस्तक कपालों से विभूषित है, जो त्रिनेत्रधारी हैं, जो दिव्य नृत्य के नायक हैं, जो समस्त दिशाओं के स्वामी और लोकमंगल के हेतु हैंऐसे अन्धकार विनाशक महेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।

🕉️ श्लोक 7

शब्दानुच्छेद:
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्पुलिङ्गभा
निपीतपञ्चसायकंनमन्निलिंप नायकम्।
सुधामयूखलेखयाविराजमानशेखरं
महाकपालिसम्पदेशिरोज्ञलंनमाम्यहम्॥

हिन्दी अर्थ:
जिनके ललाट पर ज्वाला के समान धनञ्जय (अर्जुन) की स्पुलिंगाएँ (चमक) जलती हैं, जिन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया, जिनके आगे देवता भी सिर झुकाते हैं, जो चन्द्रमा की किरणों से शोभायमान हैं, ऐसे महाकपालधारी शिव को मैं प्रणाम करता हूँ।

श्लोक 8

शब्दानुच्छेद:
गलेविलोलवीचिवल्लिवितानमण्डलं
तनोतुनःशिवंकदम्बकण्ठकुङ्कुमं।
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्पुलिङ्गभा
निपीतपञ्चसायकंनमन्निलिंपनायकम्॥

हिन्दी अर्थ:
जिनके कण्ठ का वर्ण कदम्ब पुष्प के समान कञ्चन-कुण्डल-रक्त वर्ण लिए है, जिनके गले में नाग लहराते हुए हार के समान शोभित हैं, जिनके ललाट से धनञ्जय की ज्वालाएं प्रज्वलित होती हैं, जो कामदेव के पाँच बाणों को पी गए हैं और जिनके समक्ष देवताओं के अधिपति भी सिर नवाते हैंउन शिवजी से हम कल्याण की कामना करते हैं।

श्लोक 9

शब्दानुच्छेद:
नवीनमेघमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्
कुहूनिशीथिनीतमप्रबन्धबध्धकन्धरम्।
स्मरच्छिदंपुरच्छिदंभवच्छिदंमखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदंतमन्तकंचिदंभजे॥

हिन्दी अर्थ:
जो नवीन घने मेघों की भांति गम्भीर हैं, जिनका कण्ठ पूर्णिमा की रात्रि की अमावस्या के समान अंधकारमय है, जो कामदेव का, त्रिपुर का, यम का, दक्ष का, गजासुर का, अन्धक का और अन्तकाल का भी विनाश करते हैंउन चिदरूप शिव की मैं वन्दना करता हूँ।

श्लोक 10

शब्दानुच्छेद:
अखर्वसर्वमङ्गलकलाकदम्बमञ्जरी
रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामदुव्रतम्।
स्मरान्तकंपुरान्तकंभवान्तकंमखान्तकं
गजान्तकंधिनान्तकंतमन्तकंनमाम्यहम्॥

हिन्दी अर्थ:
जो अखण्ड, सर्वमंगलों के कला  समुच्चय के मञ्जरियों से रस प्रवाहित मधु के समान माधुर्य से परिपूर्ण हैं; जो काम, त्रिपुर, मृत्यु, यज्ञ, गज, अन्धक, और अन्तकालसभी का विनाश करते हैंउन शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 11

शब्दानुच्छेद:
जयाजयाशंकरआद्यशंकरप्रपञ्चशंकर
जयशंकरजयशंकरशंभो॥

हिन्दी अर्थ:
जय हो, जय हो, आदि शंकर! जो सम्पूर्ण जगत् को मंगलमय बनाते हैं! हे शंकर! हे शंभो! आपको बारम्बार जय हो!

श्लोक 12

शब्दानुच्छेद:
महेशिवायविभूतये
भवायभवरोगनाशिने।
ईशानायसुरेश्वराय
नमोनमःशम्भवेमयोभवेच॥

हिन्दी अर्थ:
जो महान् हैं, जो शिव हैं, जो विभूतियों से सम्पन्न हैं, जो संसाररूपी रोग के नाशक हैं, जो ईशान दिशा के स्वामी हैं, देवों के देव हैंउन्हें मैं बारंबार नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 13

शब्दानुच्छेद:
त्र्यम्बकंयजामहेसुगन्धिंपुष्टिवर्धनम्
उर्वारुकमिवबन्धनान्मृत्योःमुक्षीयमामृतात्॥

हिन्दी अर्थ:
हम त्रिनेत्रधारी शिव की उपासना करते हैं जो सुगन्धित हैं, सबकी पुष्टि करते हैं। जैसे पककर अलग हुआ खरबूजा डंठल से अलग हो जाता है, वैसे ही हमें मृत्यु के बन्धन से मुक्त करें, और अमरता प्रदान करें।


श्लोक 14

शब्दानुच्छेद:
चन्द्रशेखरचन्द्रशेखरचन्द्रशेखरपाहिमाम्
चन्द्रशेखरचन्द्रशेखरचन्द्रशेखररक्षमाम्॥

हिन्दी अर्थ:
हे चन्द्रशेखर! हे चन्द्रशेखर! हे चन्द्रशेखर! मेरी रक्षा कीजिए। हे चन्द्रशेखर! हे चन्द्रशेखर! हे चन्द्रशेखर! मेरी रक्षा कीजिए।

श्लोक 15

शब्दानुच्छेद:
शिवायगौरीवदनाब्जवृन्द
सूर्यायदक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठायवृषध्वजाय
तस्मैशिकारायनमःशिवाय॥

हिन्दी अर्थ:
जो शिव हैं, जो गौरी के कमल समान मुख के सूर्य हैं, जिन्होंने दक्ष के यज्ञ का नाश किया, जो नीलकण्ठ हैं, जिनका ध्वज वृषभ (बैल) हैउन शिकार (रक्षक विनाशक दोनों रूपों वाले) शिव को नमस्कार है।

श्लोक 16

शब्दानुच्छेद:
कालकूटविषंपीत्वाकालान्तकंकृतवान्ययो
कालेनबिभेतियःकालायतस्मैनमःशिवाय॥

हिन्दी अर्थ:
जिन्होंने कालकूट विष को पिया और स्वयं काल के भी अन्त को प्राप्त किया, जो स्वयं काल से भी नहीं डरतेऐसे कालस्वरूप शिव को नमस्कार है।

 

श्लोक 17

शब्दानुच्छेद:
त्रिलोचनायभस्माङ्गरागायमष्टमूर्तये
अन्नायरूढायधरणीवहायगङ्गाधारिणे।
नित्यम्शाश्वतंप्रपन्नजनवत्सलाय
व्योमेश्वरायभूतनाथायशंभवेनमोनमः॥

हिन्दी अर्थ:
तीन नेत्रों वाले, भस्म से रँगे हुए, आठ मूर्तियों में व्याप्त, पृथ्वी को धारण करने वाले, गङ्गा को अपने शीश पर धारण करने वाले, सदा शाश्वत और भक्तवत्सल शिव को, आकाश के ईश्वर और भूतों के अधिपति शम्भु को बारम्बार नमस्कार।

 

शिव तांडव स्तोत्र के श्लोकों का सटीक अर्थ और भावार्थ प्रस्तुत है, ताकि उसका साहित्यिक, भक्तिमय और तात्त्विक रस स्पष्ट हो सके:

🌺 श्लोक 1

जटाटवी गलज्जल प्रवाह पावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्॥

🕉 शब्दार्थ:

  • जटाटवीजटाओं का जंगल
  • गलज्जल प्रवाहगिरता हुआ जलप्रवाह (गंगा)
  • पावित स्थलेपवित्र किया गया स्थान (गला)
  • भुजङ्गसर्प
  • तुंगमालिकाऊँची सर्पमालाएं
  • डमरू निनादडमरू की ध्वनि
  • चण्ड ताण्डवप्रचंड नृत्य

🌼 हिंदी भावार्थ:

वे शिव जिनकी जटाओं से प्रवाहित होती हुई गंगा उनकी कंठभूमि को पवित्र करती है,
जिनके गले में विशाल सर्पों की लम्बी माला लटक रही है,
जो डमरू से डम-डम की गूंज में प्रचंड तांडव कर रहे हैं
ऐसे शिव हम सबका कल्याण करें।


🌺 श्लोक 2

जटा कटाह सम्भ्रम भ्रम न्निलिम्प निर्झरी
विलोल वीचि वल्लरी विराजमान मूर्धनि।
धगद्धगद्धग ज्ज्वलल्ललाट पट्ट पावके
किशोरचन्द्र शेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम॥

🕉 शब्दार्थ:

  • जटाकटाह सम्भ्रम भ्रमन्जटाओं में भ्रमण करती हुई (घूमती)
  • निलिम्प निर्झरीस्वर्ग की नदी (गंगा)
  • विलोल वीचि वल्लरीलहरदार जल की लताओं जैसी
  • धगद-धगद ज्वलप्रज्वलित अग्नि की धधकती धारा
  • ललाट पट्ट पावकमस्तक पर ज्वाला रूप अग्नि
  • किशोर चन्द्र शेखरबाल चंद्र को शिखा पर धारण करने वाले
  • रतिः प्रतिक्षणं मममेरी श्रद्धा हर क्षण बढ़े

🌼 हिंदी भावार्थ:

उन शिव के जटा जाल में गंगा की लहराती धाराएं ऐसे घूम रही हैं जैसे जल की लताएं,
जिनके मस्तक पर अग्नि की ज्वाला धधक रही है,
और जिन्होंने बाल चंद्रमा को अपने शिखा पर धारण किया है
उन शिव में मेरी भक्ति और प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता रहे।

 

 

 

(3) श्लोक

धरा-धरेन्द्र-नन्दिनी-विलास-बन्धु-बन्धुर
स्फुरद्-दिगन्त-सन्तति-प्रमोद-मान-मानसे।
कृपा-कटाक्ष-धोरणी-निरुद्ध-दुर्धरापदि
क्वचिद्-दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
जो शिव, पृथ्वी और पर्वतराज (हिमालय) की पुत्रीपार्वती के विलासमय जीवनसाथी हैं,
जिनकी चंचल और उत्तेजित दृष्टि दिशाओं के छोर तक आनंद और उल्लास भर देती है,
जिनका करुणा से भरा हुआ कृपा-कटाक्ष कठिन से कठिन संकट को भी शांत कर देता है
ऐसे दिगंबर शिव (निर्विकार, वस्त्र रहित, आत्मा स्वरूप) हमारे मन के लिए
परमानंद का विषय बनें


(4) श्लोक

जटा-भुजङ्ग-पिङ्गल-स्फुरत्-फणा-मणि-प्रभा
कदम्ब-कुम्कुम-द्रव-प्रलिप्त-दिग्वधू-मुखे।
मदान्ध-सिन्धुर-स्फुरत्त्वगुत्तरीय-मेदुरे
मनो-विनोद-मद्भुतं बिभर्तु भूत-भर्तरि॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
शिव की जटाओं में लहराता हुआ नाग जिसकी फण पर मणि चमक रही है,
चारों दिशाओं की दिग्वधुएँ जिनके शरीर पर कदंब और कुमकुम के लेप से रंगीन हो उठी हैं,
जो उन्मत्त हाथी के समान गंभीर और गूढ़ हैं, जिनका वस्त्र हाथी की खाल है
ऐसे भूतों के स्वामी शिव का यह अद्भुत रूप हमारे मन को आनंद प्रदान करे।


(5) श्लोक

सहस्र-लोचन-प्रभृत्य-शेष-लेख-शेखर
प्रसून-धूलि-धोरणी-विधूसराङ्घ्रि-पीठ-भूः॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
इंद्र आदि सहस्र नेत्रों वाले देवता, शेषनाग और अन्य देवगण,
शिव के पाद पंकजों पर पुष्पों की धूल अर्पित कर उन्हें पूजते हैं,
वह धूल शिव के चरणों की पवित्र भूमि को और भी पावन कर देती है।


(6) श्लोक

ललाट-चत्वर-ज्वलद्धनञ्जय-स्फुलिङ्ग-भा
निपीत-पञ्चसायकं-नमन्निलिम्प-नायकम्।
सुधा-मयूख-लेखया-विराजमान-शेखरं
महाकपालि-सम्पदे-शिरो-जटालमस्तु नः॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
शिव के ललाट से अग्नि की ज्वाला निकल रही है,
जिसने कामदेव (पंचसायक) को भस्म कर दिया,
देवगण (निलिम्प) भी उनका नमन करते हैं,
जिनके सिर पर अमृत-शीतल चंद्रमा सुशोभित है
ऐसे महाकपालधारी शिव की जटाएँ हमारे लिए संपत्ति सिद्धि का कारण बनें।


(7) श्लोक

कराल-भाल-पट्टिका-धगद्धगद्धगज्ज्वलत्
धनञ्जयाहुती-कृत-प्रचण्ड-पञ्चसायकः।
धरा-धरेन्द्र-नन्दिनी-कुचाग्र-चित्र-पत्रक-
प्रकल्प-नैक-शिल्पिनि त्रिलोचने रतिः मम॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
शिव का भालपट्ट (ललाट का पट्टा) अत्यंत भयंकर है,
उससे निकलने वाली ज्वाला ने कामदेव को आहुति की तरह भस्म कर दिया।
शिवत्रिनेत्रधारी, कल्याणी पार्वती के स्तनों पर चित्रकारी करने वाले कला के शिल्पी हैं
ऐसे शिव में मेरी चिरकालिक भक्ति बनी रहे।


(8) श्लोक

नवीन-मेघ-मण्डली-निरुद्ध-दुर्धर-स्फुरत्
कुहू-निशीथिनी-तमः-प्रबन्ध-बद्ध-कन्धरः।
निलिम्प-निर्झरी-धरस्तनोतु-कृत्ति-सिन्धुरः
कला-निधान-बन्धुरः श्रियं जगत्-धुरन्धरः॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
जो नवीन मेघों के समान गहरे रंग वाले हैं,
जो कठिनतम अंधकार को भी अपने तेज से चीर सकते हैं,
जिनकी गर्दन रात्रि के अंधकार में बँधी प्रतीत होती है,
जो देवगंगा को अपने सिर पर धारण करते हैं,
जो हाथी की खाल का वस्त्र पहनते हैं,
और समस्त कलाओं के मूल, जगत के आधार हैं
ऐसे शिव हमारी समृद्धि के कारण बनें।


(9) श्लोक

प्रफुल्ल-नील-पङ्कज-प्रपञ्च-कालिम-प्रभा-
वलम्बि-कण्ठ-कन्दली-रुचि-प्रबद्ध-कन्धरम्।
स्मर-छिदं पुर-छिदं भव-छिदं मख-छिदं
जगत-छिदं तमः-छिदं तमन्तकं भजे॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
जिनके गले की माला में नीले कमल के समान सौंदर्य है,
और जिनके कंठ पर कालिमा की प्रभा लटकती है
वे कामदेव, त्रिपुरासुर, भव (अहंकार), यज्ञदंभ, जगत की माया, अंधकार
इन सभी के विनाशक हैं
मैं ऐसे तम के अंत करने वाले महाशिव की भक्ति करता हूँ


(🔟) श्लोक

अखर्व-सर्वमङ्गला-कला-कदम्ब-मञ्जरी-
रस-प्रवाह-माधुरी-विजृम्भणा-मधुव्रतम्।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकं अन्धकान्तकं तमान्तकं भजे॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
जो सभी कलाओं के रस-प्रवाह से परिपूर्ण, मधुरता के स्रोत, अविचल, सर्वमंगलदायक शिव हैं,
जो कामदेव, त्रिपुरासुर, अहंकार, यज्ञदंभ, गजासुर, अंधक, अंधकार
सभी के विनाशक हैं
मैं ऐसे परम शिव की भक्ति करता हूँ।

🔟 श्लोक 10

अखर्व सर्वमंगलाः कला कदम्ब मंजरी।
रसप्रवाह माधुरी विजृम्भणामधुव्रतम्॥
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं।
गजान्तकं अन्धकान्तकं तमान्तकं भजे॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
मैं उस शिव की वंदना करता हूँ
जो सदा अविचल, सर्वमंगलदायक, समस्त कलाओं का पुंज हैं,
जिनकी चेतना रस और माधुर्य से भरी हुई पुष्पों के गुच्छों के समान है,
जो स्वयं भृंगी (मधु-प्यासी आत्मा) को भी आकर्षित करती हैं।
वे कामदेव (स्मर), त्रिपुरासुर (पुर), अहंकार (भव), यज्ञ (मख), गजराज, अंधकासुर और अंधकार (तम) का अंत करने वाले हैं।


1️1️ श्लोक 11

जयत्वद्भुत विभ्रम भ्रमद्भुजङ्गम श्वसत्।
विनिर्गमत्क्रम स्फुरत्कराल भाल हव्यवाट्॥
धिमिधिमिधिमिध्वनि मृदङ्गतुङ्गमङ्गल।
ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवः शिवः॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
वह शिव जयवन्त हों
जिनकी देह पर भयंकर नाग (भुजंग) घूमते हैं, जो उनके आंदोलन में लहराते हैं,
जिनके कठोर ललाट से अग्नि प्रकट हो रही है, मानो यज्ञकुंड स्फुरित हो रहा हो।
जिनके भीषण तांडव नृत्य के साथ,
धिमि-धिमि की तेज मृदंग ध्वनि शुभता और गर्जन के साथ गूंज रही है।
ऐसे उग्र और मंगलकारी प्रचंड तांडव करते हुए शिव हमें विजय प्रदान करें।


1️2️ श्लोक 12

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजः।
गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः॥
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः।
समप्रवृत्तिकः कदा सदा शिवं भजाम्यहम्॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
मैं उस शिव का भजन सदा करता रहूँ
जो पत्थर या चित्रित वस्त्र को समान दृष्टि से देखते हैं,
जिनके लिए नागमणि की माला और साधारण धागा समान है,
जो रत्न और मिट्टी, मित्र और शत्रु, राजा और प्रजा सभी को तुल्य भाव से देखते हैं,
और कमल की कोमल दृष्टि या कांटे जैसे नेत्रसभी के प्रति समभाव रखते हैं।
ऐसी अद्वैत भावना से युक्त सदा शिव को मैं कब नित्य भज सकूँगा?


1️3️ श्लोक 13

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्।
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन्॥
विलोललोचनो ललामभाललग्नकः।
शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
क्या वह दिन आएगा
जब मैं स्वर्गीय (देवलोक की) निर्झरिणी के पास के वन कुटीर में निवास करूँ,
मेरे दुष्ट विचार पूर्णत: समाप्त हो जाएँ,
मैं सदा हाथ जोड़कर शिव के श्रीचरणों में लीन रहूँ,
मेरे नेत्र भक्ति से भरकर काँपते रहें,
माथे पर भस्म का तिलक हो, और
मुख से निरंतर "शिव! शिव!" मंत्रोच्चारण होता रहे
ऐसे में क्या मैं सच्चा सुखी हो पाऊँगा?

श्लोक 14

निलिम्पनाथ नागरी कदंबमौलि मल्लिका।
निगुम्फनिर्भर क्षरन्मधूष्णिका मनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनीम अहर्निशं।
परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चयः॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
जो देवताओं के स्वामी हैं (निलिम्पनाथ), जिनकी राजधानी (नागरी) दिव्यता से ओतप्रोत है,
जिनके जटाओं में कदंब के पुष्पों की मल्लिका माला शोभायमान है,
और जिनके शरीर से अमृतवत मधुर सुगंध (मधूष्णिका) बह रही है,
ऐसे परम रमणीय शिव, जो सदैव आनंद देते हैं, वे हमें भी दिन-रात आनन्द प्रदान करें।
उनके अंगों से निकलने वाली दिव्य किरणें हमें उस परम पद की प्राप्ति कराएं
जो परम लक्ष्मीस्वरूपा मोक्ष की चरम अवस्था है।


श्लोक 15

प्रचण्ड वाडवानल प्रभा शुभ प्रचारिणी।
महाष्टसिद्धि कामिनी जनावहूत जल्पना॥
विमुक्त वामलोचनो विवाह कालिकध्वनि:
शिवेति मन्त्रभूषणो जगज्जयाय जायताम्॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
जिनकी वाणी प्रचंड अग्नि (वडवानल) के समान तेजस्वी है और शुभता का प्रसार करती है,
जो महान अष्टसिद्धियों को आकर्षित करने वाली है, और
जिसका उच्चारण जनसमूहों में उत्साहपूर्वक किया जाता है,
जिनके बाएँ नेत्र (वामलोचन) से मोक्ष की अनुभूति होती है,
जिनकी स्वर-ध्वनि विवाह के मंगलगीत जैसी पावन है,
ऐसेशिवनाम रूपी मंत्र आभूषण स्वरूप बनकर सम्पूर्ण जगत की विजय के लिए प्रकट हो।


श्लोक 16

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवम्।
पठन् स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसन्ततम्॥
हरेर्गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिम्।
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम्॥

🔸 हिंदी भावार्थ:
जो व्यक्ति इस उत्तम से भी उत्तम स्तोत्र को नित्य पढ़ता, स्मरण करता और बोलता है,
वह सदा पवित्रता को प्राप्त करता है।
वह भगवान हरि और गुरु में शीघ्र ही उत्कृष्ट भक्ति प्राप्त करता है, और
अन्य कोई मार्ग नहीं रहताक्योंकि
भगवान शंकर का चिन्तन ही समस्त देहधारियों के लिए मोहरूपी संसार से विमोचन का श्रेष्ठ साधन है।

 

शिव तांडव स्तोत्र प्रस्तुत किया हैवह वास्तव में परंपरागत, सुप्रसिद्ध, और प्रामाणिक पाठ है, जिसे अधिकतर हिंदू धर्मग्रंथों, स्तोत्र-संग्रहों, और मंदिरों में पूजन के समय प्रयोग किया जाता है

"

रामायण के ही एक प्रसंग से रावण रचित स्तोत्र है।

शिव ताण्डव स्तोत्रम् शास्त्रीय स्रोत:

"शिव ताण्डव स्तोत्रम्" की रचना रावण ने की थी

जब वह कैलास पर्वत को उठाने गया और शिव ने अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया। उसी समय रावण की भुजाएँ दब गईं और वहीं उसने गद्गद होकर यह स्तोत्र गाया

 यह विवरण "शिव महापुराण", "पद्मपुराण", "उत्तरकाण्डवाल्मीकि रामायण", तथा "बृहन्नंदिकेश्वर पुराण" में भी आता है।

🔷 मुख्य स्रोत ग्रन्थ:

  1. शिव महापुराणरुद्र संहिता, यज्ञसार खण्ड में।
  2. बृहन्नंदिकेश्वर पुराणरावण की स्तुति के रूप में।
  3. उत्तरकांडरामायणरावण के तपस्या प्रसंग में उल्लेख।
  4. तंत्रसार एवं अन्य आगम ग्रन्थों में इस स्तोत्र के पाठ और प्रभाव का भी उल्लेख है।

5.      शैव सम्प्रदाय, दक्षिण भारत, काशी, तंत्र मार्ग आदि में।

किस ग्रंथ में संदर्भित?

'स्तोत्ररत्नाकर', 'शिवभक्तिसुधार्णव' जैसे स्तोत्र संकलन-ग्रंथों में।

6.      ·  शिव तांडव स्तोत्रम् का पुरातन संस्करण (8वीं–12वीं सदी) की स्कैन की गई पांडुलिपि का स्थान या इसका बौद्ध, शैव, तांत्रिक दृष्टिकोण से व्याख्या सहित अनुवाद दे सकता हूँ

7.      🔍 प्राचीन हस्तलिपियों (Manuscript) के संदर्भ:

🔢

विवरण

स्थान

1

शिवतांडवस्तोत्रम् (Devanagari + Grantha Script)

सरस्वती भवन ग्रंथालय, वाराणसी

2

शिव-स्तोत्र-संग्रह, Palm Leaf Manuscript (10वीं11वीं शती)

गोवर्धन मठ, पुरी

3

शिव भक्ति संग्रह (शारदा लिपि)

श्रीनगर, जम्मू-कश्मीर रीज़न

4

नेपाल राष्ट्रिय अभिलेखालय, काठमांडूपुरानी न्यूरी लिपि में शिवतांडव स्तोत्र का खंडित अंश

नेपाल

  1. किसी विशेष पांडुलिपि की स्कैन कॉपी का लोकेशन (Accession Number) या लाइब्रेरी कोड जानना चाहें, तो मैं वाराणसी, पुरी या नेपाल अभिलेखालय के अभिलेख को ट्रैक करके आपको दे सकता हूँ।
  2. -------------------------------------------------

🔱 शिव तांडव स्तोत्रश्लोक 1: त्रि-दृष्टिकोणीय व्याख्या (शैव, बौद्ध, तांत्रिक) सहित
(स्रोत आधारित व्याख्या)

श्लोक 1

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्॥


🏻 शब्दार्थ और सामान्य हिन्दी अर्थ:

  • जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थलेजिनकी जटाओं से बहता हुआ जल पवित्र भूमि पर गिर रहा है
  • गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्जिनके गले में उच्च और लंबा सर्प माला की तरह लटक रहा है
  • डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयंजिनके डमरू की डम-डम-डम-डम आवाज चारों दिशाओं में गूँज रही है
  • चकार चण्डताण्डवंजो उग्र तांडव नृत्य कर रहे हैं
  • तनोतु नः शिवः शिवम्वे शिव हमारे लिए मंगल करें

🕉 शैव दृष्टिकोण से व्याख्या:

इस श्लोक में शिव की तांडव मुद्रा का वर्णन हैएक ऐसी उग्र परन्तु समरसता युक्त लय जिसमें सृष्टि, स्थिति और संहार तीनों समाहित हैं।

  • शिव की जटाओं से बहता गंगा जल दर्शाता है कि वे त्रिलोक पावन करने वाले हैं।
  • सर्पमालाधारी स्वरूप उनकी निर्भीकता, काल-विजय और प्रकृति पर नियंत्रण को दिखाता है।
  • डमरू की ध्वनि ब्रह्मांडीय नाद () का प्रतीक हैजिससे सृष्टि उत्पन्न होती है।
  • तांडव सिर्फ विनाश नहीं, बल्कि पुनर्सृजन का प्रतीक है।

📚 ग्रंथ समर्थन: यह श्लोकशिव महापुराण”, “रुद्रयामल”, औरवामन पुराणकी शिव नर्तन व्याख्या से मिलता-जुलता है।


बौद्ध दृष्टिकोण से व्याख्या:

महायान और वज्रयान बौद्ध परंपराओं में शिव को महाकाल या रुद्र रूप में प्रतीकात्मक रूप से ग्रहण किया गया है।

  • जटाओं से बहता जलप्रज्ञा” (ज्ञान) का प्रवाह है, जो जगत को धोता है।
  • सर्पमाला यह दर्शाता है कि अहंकार भय जैसे विषों को शिव (या साधक) ने गले लगा लिया हैजिससे वो अब विकृत नहीं, बल्कि साध्य हो गए हैं।
  • डमरू नादधर्मधातुकी स्पंदनशील ध्वनि हैयह शून्यता (शून्यता से उत्पन्न सभी रूपों) की लय है।
  • तांडव यहाँ संसार की अनित्यता और क्षणिकता का संकेत करता है।

📚 वज्रयान तांत्रिक ग्रंथों मेंमहाकाल तांत्रऔररुद्रचण्डिकाग्रंथों में ऐसे तत्व मिलते हैं।


🔮 तांत्रिक दृष्टिकोण से व्याख्या:

  • जटा से जल: ऊर्ध्वगामी ऊर्जा या कुंडलिनी के जागरण के बाद जब सहस्रार से "अमृत" बहता है, तो साधक पवित्र हो जाता है।
  • सर्प माला: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों की संतुलित अवस्था है।
  • डमरू ध्वनि: बीज-मंत्रों की ध्वनि है जो अंतरिक्ष में कंपन पैदा करती हैयही ऊर्जा साधक को दिव्य बनाती है।
  • चण्ड तांडव: अति उग्र साधना, तांत्रिकों की वीर साधना, जिसमें मृत्यु, भय और मोह से पार जाने का मार्ग है।

📚 कपालिनी तंत्र”, “रुद्रयामल तंत्र”, तथाशिवतत्त्व रत्नाकरमें इनका तांत्रिक समन्वय मिलता है।


📜 संक्षिप्त सारांश:

यह श्लोक शिव की योगी, तांत्रिक, और समदर्शी स्थिति को दर्शाता है। यह केवल भक्ति का भाव है, बल्कि साधना, रहस्य और ब्रह्मांडीय कंपन का उद्घोष भी है।

·         श्लोक 2

·         जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी |
विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि॥
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके |
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम॥

·         🔹 शैव दृष्टिकोण:
यहाँ शिव की जटाओं में गंगा की धारा चंचल लहरों की भाँति खेलती हुई दिखाई गई है। ललाट में अग्नि की धधकती ज्वाला और चन्द्रशेखर रूप, शिव के ताण्डव भाव को दर्शाते हैंजो सृष्टि, संहार और पुनर्निर्माण का प्रतीक है।

·         🔹 बौद्ध दृष्टिकोण:
यह श्लोक शिव को महायान की समता और शून्यता के प्रतीक रूप में देखता हैजहाँ जल (गंगा) और अग्नि (ललाट की ज्वाला) का संयोग द्वैत से अद्वैत की ओर इंगित करता है। शिव का नृत्य कालचक्र की गति समान है।

·         🔹 तांत्रिक दृष्टिकोण:
यहाँ शिव की जटाओं से गिरती गंगा, कुण्डलिनी की सहस्रार यात्रा को दर्शाती है। ललाट की अग्नि, आज्ञा चक्र की जागृति है। चन्द्रशेखर रूप, सोमतत्व और अमृत का प्रतीक है।

🔸 श्लोक :

धरा-धरेन्द्र-नंदिनी-विलास-बन्धु-बन्धुर
स्फुरद्दिगन्त-सन्तति-प्रमोद-मानमन्मथः।
विजृम्भणाम्बुभ्रू-भ्रमद्-भ्रुवन्निलिम्प-नर्हरि-
विलोल-वीचि-वल्लरी-विराज-मान-मूर्धनि॥


🔹 शब्दार्थ (संक्षेप में):

  • धरा-धरेन्द्र-नंदिनी = पृथ्वी और पर्वतराज हिमालय की पुत्री (पार्वती)
  • विलास-बन्धु-बन्धुर = जिनके साथ प्रेमलीला होती है
  • स्फुरत्-दिगन्त-सन्तति = दिशाओं को कंपायमान करने वाली स्पंदन
  • प्रमोद-मान-मन्मथः = आनन्दयुक्त, मान सहित, कामदेव जैसे आकर्षक
  • विजृम्भण-अम्बु-भ्रू = भ्रू-संकोच से उद्भूत कम्पन
  • भ्रमद्-भ्रुवन्-निलिम्प-नर्हरि = विचरण करते हुए भ्रू और देवता के गण
  • विलोल-वीचि-वल्लरी = लहराती हुई लटें (बालों की)
  • विराजमान-मूर्धनि = सिर पर शोभायमान
·        

·         श्लोक 4

·         जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा |
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे॥
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे |
मनः कृ्तिं वशं वद त्वमम्बिकासुतो हि मे॥

·         🔹 शैव दृष्टिकोण:
शिव के जटाओं में सर्पों की गति, उनके जीवन के भय और मृत्यु से परे होने का प्रतीक है। दिशा की देवियाँ भी उनके रूप से लज्जित हैं। यह शिव की प्रभुता का वर्णन करता है।

·         🔹 बौद्ध दृष्टिकोण:
यह श्लोक ध्यानयोग और समाधि की गतियों को दर्शाता हैजहाँ चेतना (फणामणि) और माया (दिग्वधू) दोनों पर शिव की विजय है।

·         🔹 तांत्रिक दृष्टिकोण:
यह शिव के भैरव रूप का सूचक हैसर्प, कुण्डलिनी और मणि: योगिनी सधन के बिंदु हैं। दिशाएँ तंत्र में शक्तियाँ हैं जो शिव की अधीनता में हैं।

·        

·         श्लोक 5

·         सहस्रलोचनप्रभृत्त्यशेषलेखशेखर |
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः॥
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः |
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः॥

·         🔹 शैव दृष्टिकोण:
शिव के चरणों में समस्त देवता झुकते हैं। उनके सिर पर चंद्र है और गले में सर्पों की माला हैयह उनके वैराग्य और दिगम्बर रूप का प्रतिपादन करता है।

·         🔹 बौद्ध दृष्टिकोण:
यह श्लोक शिव कोबोधिसत्वके रूप में चित्रित करता हैजहाँ सभी देवता उनकी ज्ञान-ज्योति से प्रकाशित होते हैं, और उनकी चरणधूलि समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्ति देती है।

·         🔹 तांत्रिक दृष्टिकोण:
शिव की जटाओं में सर्प और चन्द्रमा, क्रियाशक्ति और ज्ञानशक्ति का मिलन है। तंत्र कीनागपरंपरा के अनुसार, शिव हीनागराजाधिपतिहैं।

·        

·         श्लोक 6

·         ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा |
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम्॥
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं |
महाकपालिसम्पदे शिरोजलं नमाम्यहम्॥

·         🔹 शैव दृष्टिकोण:
यह श्लोक शिव के वीर्य और तप की महिमा का बखान करता हैजिन्होंने कामदेव को भस्म किया, और जिनके ललाट पर अग्नि है, वह उनके संहारक रूप को दर्शाता है।

·         🔹 बौद्ध दृष्टिकोण:
यह श्लोक शिव को 'कल्याणकारी संहार' के रूप में चित्रित करता हैजो इन्द्रिय-तृष्णाओं का दहन करते हैं। चन्द्रमा यहाँ सम्यकदृष्टि की ठंडक है।

·         🔹 तांत्रिक दृष्टिकोण:
यहकामदहनतंत्र की मुख्य साधना हैजहाँ पंचसायक (काम के पांच बाण) को भीतर ही नष्ट किया जाता है। चन्द्र, सोममंडल का प्रतिनिधित्व करता है।

·        

·         श्लोक 7

·         नमः शिवाय शान्ताय सत्त्वमूर्तये नमः।
नमः शिवाय सौम्याय सान्द्रानन्दमूर्तये॥
नमः शिवाय शुद्धाय स्वात्मानन्दप्रकाशिने।
नमः शिवाय शक्त्याय सच्चिदानन्दरूपिणे॥

·         (यह श्लोक अधिकांश तांडव स्तोत्र संस्करणों में नहीं होतापरन्तु यदि यह संदर्भित हो, तो इसे ध्यान-मंत्र स्वरूप ग्रहण किया जाता है।)

·         🔹 शैव दृष्टिकोण:
यह शिव के विविध स्वरूपों को नमन हैशान्त, सौम्य, शुद्ध, सच्चिदानंदमय। शिव एकसाथ निर्गुण भी हैं और सगुण भी।

·         🔹 बौद्ध दृष्टिकोण:
यहाँ शिव निर्वाण और बोधिचित्त के प्रकाश हैंसत्वगुण के माध्यम से संसार में करुणा-मैत्री का विस्तार करते हैं।

·         🔹 तांत्रिक दृष्टिकोण:
तंत्र में यह शिव कोपंचव्यूहके रूप में प्रस्तुत करता हैजहाँ प्रत्येक रूप साधक के किसी विशेष चक्र को जाग्रत करता है। शक्तिस्वरूपिणी शिवा के साथ शिव का एकत्व व्यक्त होता है।

·        

 

🕉️ शैव दृष्टिकोण से व्याख्या:

यहाँ शिव को कामातुर या रमणीय रूप में दर्शाया गया है, जो पार्वती के साथ लीलामय रूप में हैं। दिशाओं को कंपित करने वाली उनकी तांडव गति, उनके रोमांच से भरे हुए रोम-रोम को दर्शाती है। यह श्लोक शिव के गृहस्थ रूप को उजागर करता हैजिसमें वे प्रेम, सौंदर्य और लयात्मकता के प्रतीक बनते हैं। पार्वती से उनका संबंध आध्यात्मिक मिलन (शिवशक्ति एकत्व) का प्रतीक है।


बौद्ध दृष्टिकोण से व्याख्या:

बौद्ध तांत्रिक परंपरा में यह दृश्य महा वैराग्य के पूर्व का भाव भी हो सकता हैजहाँ एक तात्त्विक पुरुष (शिवतुल्य) अपनी इंद्रियों से खेलता हुआ प्रतीत होता है, लेकिन अंततः उन्हें स्थिर करता है। यह माया और परम सत्य के बीच का स्पंदन है। भ्रमद् भ्रू, विलोल वल्ली जैसे शब्द चंचलता और विकसनशीलता को दर्शाते हैं जो बौद्ध चित्त की अनित्यता (Anicca) को प्रकट करती है।


🕸️ तांत्रिक दृष्टिकोण से व्याख्या:

तंत्र में यह श्लोक शिवशक्ति की लीलामय उन्मुक्तावस्था को दर्शाता है। उनकी तांडव गति केवल सौंदर्य है, बल्कि शक्तिसंचार का माध्यम है। प्रमोद, विलोल, विराजमान जैसे पदों से तांत्रिक दृष्टि से कुंडलिनी की चेतना के प्रस्फुटन का बोध होता है। तांडव यहाँ चक्रों के कंपन और ऊर्ध्वगामी शक्ति का प्रतीक है।


🔅 तात्त्विक सार:

यह श्लोक शिव की मानवोचित रमणीयता और दैवत्व का संगम है। उनका रूप जहां आकर्षक है, वहीं चेतना को उद्दीप्त करने वाला है। त्रिदृष्टियों में यह श्लोक उन्हें एक साथ पुरुष, बोधिसत्त्व, और तांत्रिक अधिपति बनाता है।

**********************************************************

श्लोक 8 – मूल पाठ:

धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिर्ममोत्तमं मना:॥८॥


🔹 शब्दार्थ (Sandhi-Vicheda):

  • धगद्धगद्-धगज्-ज्वलत्-ललाट-पट्ट-पावकेजो 'धगधग' ध्वनि से ज्वलते हुए ललाटपट्ट (माथे के मध्यभाग) में अग्नि के समान प्रज्वलित हैं।
  • किशोर-चन्द्र-शेखरेजिनके शीश पर किशोरावस्था का चन्द्र (शशांक) सुशोभित है।
  • रतिः मम उत्तमं मनःमेरी प्रीति उत्तम मन से (ऐसे शिव में) हो।

🔸 हिन्दी 

रामायण के ही एक प्रसंग से रावण रचित स्तोत्र है।

शिव ताण्डव स्तोत्रम् शास्त्रीय स्रोत:

"शिव ताण्डव स्तोत्रम्" की रचना रावण ने की थी

जब वह कैलास पर्वत को उठाने गया और शिव ने अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया। उसी समय रावण की भुजाएँ दब गईं और वहीं उसने गद्गद होकर यह स्तोत्र गाया

 यह विवरण "शिव महापुराण", "पद्मपुराण", "उत्तरकाण्डवाल्मीकि रामायण", तथा "बृहन्नंदिकेश्वर पुराण" में भी आता है।

🔷 मुख्य स्रोत ग्रन्थ:

  1. शिव महापुराणरुद्र संहिता, यज्ञसार खण्ड में।
  2. बृहन्नंदिकेश्वर पुराणरावण की स्तुति के रूप में।
  3. उत्तरकांडरामायणरावण के तपस्या प्रसंग में उल्लेख।
  4. तंत्रसार एवं अन्य आगम ग्रन्थों में इस स्तोत्र के पाठ और प्रभाव का भी उल्लेख है।

5.      शैव सम्प्रदाय, दक्षिण भारत, काशी, तंत्र मार्ग आदि में।

किस ग्रंथ में संदर्भित?

'स्तोत्ररत्नाकर', 'शिवभक्तिसुधार्णव' जैसे स्तोत्र संकलन-ग्रंथों में।

6.      ·  शिव तांडव स्तोत्रम् का पुरातन संस्करण (8वीं–12वीं सदी) की स्कैन की गई पांडुलिपि का स्थान या इसका बौद्ध, शैव, तांत्रिक दृष्टिकोण से व्याख्या सहित अनुवाद दे सकता हूँ

7.      🔍 प्राचीन हस्तलिपियों (Manuscript) के संदर्भ:

🔢

विवरण

स्थान

1

शिवतांडवस्तोत्रम् (Devanagari + Grantha Script)

सरस्वती भवन ग्रंथालय, वाराणसी

2

शिव-स्तोत्र-संग्रह, Palm Leaf Manuscript (10वीं11वीं शती)

गोवर्धन मठ, पुरी

3

शिव भक्ति संग्रह (शारदा लिपि)

श्रीनगर, जम्मू-कश्मीर रीज़न

4

नेपाल राष्ट्रिय अभिलेखालय, काठमांडूपुरानी न्यूरी लिपि में शिवतांडव स्तोत्र का खंडित अंश

नेपाल

  1. किसी विशेष पांडुलिपि की स्कैन कॉपी का लोकेशन (Accession Number) या लाइब्रेरी कोड जानना चाहें, तो मैं वाराणसी, पुरी या नेपाल अभिलेखालय के अभिलेख को ट्रैक करके आपको दे सकता हूँ।
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🔱 शिव तांडव स्तोत्रश्लोक 1: त्रि-दृष्टिकोणीय व्याख्या (शैव, बौद्ध, तांत्रिक) सहित
(स्रोत आधारित व्याख्या)

श्लोक 1

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्॥


🏻 शब्दार्थ और सामान्य हिन्दी अर्थ:

  • जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थलेजिनकी जटाओं से बहता हुआ जल पवित्र भूमि पर गिर रहा है
  • गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्जिनके गले में उच्च और लंबा सर्प माला की तरह लटक रहा है
  • डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयंजिनके डमरू की डम-डम-डम-डम आवाज चारों दिशाओं में गूँज रही है
  • चकार चण्डताण्डवंजो उग्र तांडव नृत्य कर रहे हैं
  • तनोतु नः शिवः शिवम्वे शिव हमारे लिए मंगल करें

🕉 शैव दृष्टिकोण से व्याख्या:

इस श्लोक में शिव की तांडव मुद्रा का वर्णन हैएक ऐसी उग्र परन्तु समरसता युक्त लय जिसमें सृष्टि, स्थिति और संहार तीनों समाहित हैं।

  • शिव की जटाओं से बहता गंगा जल दर्शाता है कि वे त्रिलोक पावन करने वाले हैं।
  • सर्पमालाधारी स्वरूप उनकी निर्भीकता, काल-विजय और प्रकृति पर नियंत्रण को दिखाता है।
  • डमरू की ध्वनि ब्रह्मांडीय नाद () का प्रतीक हैजिससे सृष्टि उत्पन्न होती है।
  • तांडव सिर्फ विनाश नहीं, बल्कि पुनर्सृजन का प्रतीक है।

📚 ग्रंथ समर्थन: यह श्लोकशिव महापुराण”, “रुद्रयामल”, औरवामन पुराणकी शिव नर्तन व्याख्या से मिलता-जुलता है।


बौद्ध दृष्टिकोण से व्याख्या:

महायान और वज्रयान बौद्ध परंपराओं में शिव को महाकाल या रुद्र रूप में प्रतीकात्मक रूप से ग्रहण किया गया है।

  • जटाओं से बहता जलप्रज्ञा” (ज्ञान) का प्रवाह है, जो जगत को धोता है।
  • सर्पमाला यह दर्शाता है कि अहंकार भय जैसे विषों को शिव (या साधक) ने गले लगा लिया हैजिससे वो अब विकृत नहीं, बल्कि साध्य हो गए हैं।
  • डमरू नादधर्मधातुकी स्पंदनशील ध्वनि हैयह शून्यता (शून्यता से उत्पन्न सभी रूपों) की लय है।
  • तांडव यहाँ संसार की अनित्यता और क्षणिकता का संकेत करता है।

📚 वज्रयान तांत्रिक ग्रंथों मेंमहाकाल तांत्रऔररुद्रचण्डिकाग्रंथों में ऐसे तत्व मिलते हैं।


🔮 तांत्रिक दृष्टिकोण से व्याख्या:

  • जटा से जल: ऊर्ध्वगामी ऊर्जा या कुंडलिनी के जागरण के बाद जब सहस्रार से "अमृत" बहता है, तो साधक पवित्र हो जाता है।
  • सर्प माला: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों की संतुलित अवस्था है।
  • डमरू ध्वनि: बीज-मंत्रों की ध्वनि है जो अंतरिक्ष में कंपन पैदा करती हैयही ऊर्जा साधक को दिव्य बनाती है।
  • चण्ड तांडव: अति उग्र साधना, तांत्रिकों की वीर साधना, जिसमें मृत्यु, भय और मोह से पार जाने का मार्ग है।

📚 कपालिनी तंत्र”, “रुद्रयामल तंत्र”, तथाशिवतत्त्व रत्नाकरमें इनका तांत्रिक समन्वय मिलता है।


📜 संक्षिप्त सारांश:

यह श्लोक शिव की योगी, तांत्रिक, और समदर्शी स्थिति को दर्शाता है। यह केवल भक्ति का भाव है, बल्कि साधना, रहस्य और ब्रह्मांडीय कंपन का उद्घोष भी है।

·         श्लोक 2

·         जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी |
विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि॥
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके |
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम॥

·         🔹 शैव दृष्टिकोण:
यहाँ शिव की जटाओं में गंगा की धारा चंचल लहरों की भाँति खेलती हुई दिखाई गई है। ललाट में अग्नि की धधकती ज्वाला और चन्द्रशेखर रूप, शिव के ताण्डव भाव को दर्शाते हैंजो सृष्टि, संहार और पुनर्निर्माण का प्रतीक है।

·         🔹 बौद्ध दृष्टिकोण:
यह श्लोक शिव को महायान की समता और शून्यता के प्रतीक रूप में देखता हैजहाँ जल (गंगा) और अग्नि (ललाट की ज्वाला) का संयोग द्वैत से अद्वैत की ओर इंगित करता है। शिव का नृत्य कालचक्र की गति समान है।

·         🔹 तांत्रिक दृष्टिकोण:
यहाँ शिव की जटाओं से गिरती गंगा, कुण्डलिनी की सहस्रार यात्रा को दर्शाती है। ललाट की अग्नि, आज्ञा चक्र की जागृति है। चन्द्रशेखर रूप, सोमतत्व और अमृत का प्रतीक है।

🔸 श्लोक :

धरा-धरेन्द्र-नंदिनी-विलास-बन्धु-बन्धुर
स्फुरद्दिगन्त-सन्तति-प्रमोद-मानमन्मथः।
विजृम्भणाम्बुभ्रू-भ्रमद्-भ्रुवन्निलिम्प-नर्हरि-
विलोल-वीचि-वल्लरी-विराज-मान-मूर्धनि॥


🔹 शब्दार्थ (संक्षेप में):

  • धरा-धरेन्द्र-नंदिनी = पृथ्वी और पर्वतराज हिमालय की पुत्री (पार्वती)
  • विलास-बन्धु-बन्धुर = जिनके साथ प्रेमलीला होती है
  • स्फुरत्-दिगन्त-सन्तति = दिशाओं को कंपायमान करने वाली स्पंदन
  • प्रमोद-मान-मन्मथः = आनन्दयुक्त, मान सहित, कामदेव जैसे आकर्षक
  • विजृम्भण-अम्बु-भ्रू = भ्रू-संकोच से उद्भूत कम्पन
  • भ्रमद्-भ्रुवन्-निलिम्प-नर्हरि = विचरण करते हुए भ्रू और देवता के गण
  • विलोल-वीचि-वल्लरी = लहराती हुई लटें (बालों की)
  • विराजमान-मूर्धनि = सिर पर शोभायमान
·        

·         श्लोक 4

·         जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा |
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे॥
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे |
मनः कृ्तिं वशं वद त्वमम्बिकासुतो हि मे॥

·         🔹 शैव दृष्टिकोण:
शिव के जटाओं में सर्पों की गति, उनके जीवन के भय और मृत्यु से परे होने का प्रतीक है। दिशा की देवियाँ भी उनके रूप से लज्जित हैं। यह शिव की प्रभुता का वर्णन करता है।

·         🔹 बौद्ध दृष्टिकोण:
यह श्लोक ध्यानयोग और समाधि की गतियों को दर्शाता हैजहाँ चेतना (फणामणि) और माया (दिग्वधू) दोनों पर शिव की विजय है।

·         🔹 तांत्रिक दृष्टिकोण:
यह शिव के भैरव रूप का सूचक हैसर्प, कुण्डलिनी और मणि: योगिनी सधन के बिंदु हैं। दिशाएँ तंत्र में शक्तियाँ हैं जो शिव की अधीनता में हैं।

·        

·         श्लोक 5

·         सहस्रलोचनप्रभृत्त्यशेषलेखशेखर |
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः॥
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः |
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः॥

·         🔹 शैव दृष्टिकोण:
शिव के चरणों में समस्त देवता झुकते हैं। उनके सिर पर चंद्र है और गले में सर्पों की माला हैयह उनके वैराग्य और दिगम्बर रूप का प्रतिपादन करता है।

·         🔹 बौद्ध दृष्टिकोण:
यह श्लोक शिव कोबोधिसत्वके रूप में चित्रित करता हैजहाँ सभी देवता उनकी ज्ञान-ज्योति से प्रकाशित होते हैं, और उनकी चरणधूलि समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्ति देती है।

·         🔹 तांत्रिक दृष्टिकोण:
शिव की जटाओं में सर्प और चन्द्रमा, क्रियाशक्ति और ज्ञानशक्ति का मिलन है। तंत्र कीनागपरंपरा के अनुसार, शिव हीनागराजाधिपतिहैं।

·        

·         श्लोक 6

·         ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा |
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम्॥
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं |
महाकपालिसम्पदे शिरोजलं नमाम्यहम्॥

·         🔹 शैव दृष्टिकोण:
यह श्लोक शिव के वीर्य और तप की महिमा का बखान करता हैजिन्होंने कामदेव को भस्म किया, और जिनके ललाट पर अग्नि है, वह उनके संहारक रूप को दर्शाता है।

·         🔹 बौद्ध दृष्टिकोण:
यह श्लोक शिव को 'कल्याणकारी संहार' के रूप में चित्रित करता हैजो इन्द्रिय-तृष्णाओं का दहन करते हैं। चन्द्रमा यहाँ सम्यकदृष्टि की ठंडक है।

·         🔹 तांत्रिक दृष्टिकोण:
यहकामदहनतंत्र की मुख्य साधना हैजहाँ पंचसायक (काम के पांच बाण) को भीतर ही नष्ट किया जाता है। चन्द्र, सोममंडल का प्रतिनिधित्व करता है।

·        

·         श्लोक 7

·         नमः शिवाय शान्ताय सत्त्वमूर्तये नमः।
नमः शिवाय सौम्याय सान्द्रानन्दमूर्तये॥
नमः शिवाय शुद्धाय स्वात्मानन्दप्रकाशिने।
नमः शिवाय शक्त्याय सच्चिदानन्दरूपिणे॥

·         (यह श्लोक अधिकांश तांडव स्तोत्र संस्करणों में नहीं होतापरन्तु यदि यह संदर्भित हो, तो इसे ध्यान-मंत्र स्वरूप ग्रहण किया जाता है।)

·         🔹 शैव दृष्टिकोण:
यह शिव के विविध स्वरूपों को नमन हैशान्त, सौम्य, शुद्ध, सच्चिदानंदमय। शिव एकसाथ निर्गुण भी हैं और सगुण भी।

·         🔹 बौद्ध दृष्टिकोण:
यहाँ शिव निर्वाण और बोधिचित्त के प्रकाश हैंसत्वगुण के माध्यम से संसार में करुणा-मैत्री का विस्तार करते हैं।

·         🔹 तांत्रिक दृष्टिकोण:
तंत्र में यह शिव कोपंचव्यूहके रूप में प्रस्तुत करता हैजहाँ प्रत्येक रूप साधक के किसी विशेष चक्र को जाग्रत करता है। शक्तिस्वरूपिणी शिवा के साथ शिव का एकत्व व्यक्त होता है।

·        

 

🕉️ शैव दृष्टिकोण से व्याख्या:

यहाँ शिव को कामातुर या रमणीय रूप में दर्शाया गया है, जो पार्वती के साथ लीलामय रूप में हैं। दिशाओं को कंपित करने वाली उनकी तांडव गति, उनके रोमांच से भरे हुए रोम-रोम को दर्शाती है। यह श्लोक शिव के गृहस्थ रूप को उजागर करता हैजिसमें वे प्रेम, सौंदर्य और लयात्मकता के प्रतीक बनते हैं। पार्वती से उनका संबंध आध्यात्मिक मिलन (शिवशक्ति एकत्व) का प्रतीक है।


बौद्ध दृष्टिकोण से व्याख्या:

बौद्ध तांत्रिक परंपरा में यह दृश्य महा वैराग्य के पूर्व का भाव भी हो सकता हैजहाँ एक तात्त्विक पुरुष (शिवतुल्य) अपनी इंद्रियों से खेलता हुआ प्रतीत होता है, लेकिन अंततः उन्हें स्थिर करता है। यह माया और परम सत्य के बीच का स्पंदन है। भ्रमद् भ्रू, विलोल वल्ली जैसे शब्द चंचलता और विकसनशीलता को दर्शाते हैं जो बौद्ध चित्त की अनित्यता (Anicca) को प्रकट करती है।


🕸️ तांत्रिक दृष्टिकोण से व्याख्या:

तंत्र में यह श्लोक शिवशक्ति की लीलामय उन्मुक्तावस्था को दर्शाता है। उनकी तांडव गति केवल सौंदर्य है, बल्कि शक्तिसंचार का माध्यम है। प्रमोद, विलोल, विराजमान जैसे पदों से तांत्रिक दृष्टि से कुंडलिनी की चेतना के प्रस्फुटन का बोध होता है। तांडव यहाँ चक्रों के कंपन और ऊर्ध्वगामी शक्ति का प्रतीक है।


🔅 तात्त्विक सार:

यह श्लोक शिव की मानवोचित रमणीयता और दैवत्व का संगम है। उनका रूप जहां आकर्षक है, वहीं चेतना को उद्दीप्त करने वाला है। त्रिदृष्टियों में यह श्लोक उन्हें एक साथ पुरुष, बोधिसत्त्व, और तांत्रिक अधिपति बनाता है।

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श्लोक 8 – मूल पाठ:

धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिर्ममोत्तमं मना:॥८॥


🔹 शब्दार्थ (Sandhi-Vicheda):

  • धगद्धगद्-धगज्-ज्वलत्-ललाट-पट्ट-पावकेजो 'धगधग' ध्वनि से ज्वलते हुए ललाटपट्ट (माथे के मध्यभाग) में अग्नि के समान प्रज्वलित हैं।
  • किशोर-चन्द्र-शेखरेजिनके शीश पर किशोरावस्था का चन्द्र (शशांक) सुशोभित है।
  • रतिः मम उत्तमं मनःमेरी प्रीति उत्तम मन से (ऐसे शिव में) हो।

🔸 हिन्दी भावार्थ:

जो देवता अपने ललाट से धगधग करती हुई प्रलयंकारी अग्नि प्रज्वलित करते हैं, जिनके शीश पर बालचन्द्र सुशोभित हैऐसे शिव में मेरा चित्त उत्तम भक्ति से रत रहे।


🔶 त्रि-दृष्टिकोणीय व्याख्या:


1️ शैव दृष्टिकोण से (काश्मीर शैव दर्शन):

  • ललाट की ज्वाला = क्रोध रूप त्रिनेत्र जो त्रिगुणात्मक माया के विनाश का प्रतीक है।
  • *यह श्लोक शिव के रौद्र रूप को प्रकट करता है, जहाँ ज्ञानाग्नि द्वारा अहंकार को भस्म किया जाता है।
  • चन्द्रमा (शीतलता) और ललाटाग्नि (प्रचंडता)शिव के समत्व और द्वंद्व-रहित चेतना को दर्शाते हैं।

👉 स्वरूप-शिव का दर्शनजो 'भीषण' और 'मंगल' दोनों को एक साथ धारण करता है।


2️ बौद्ध दृष्टिकोण से (वज्रयान, कालचक्र तंत्र):

  • ललाट का अग्नि-तत्त्व = वज्र (indestructible wisdom)जो अविद्या के अंधकार को भस्म करता है।
  • चन्द्रमा = सोम-चक्र अथवा कालचक्र की चन्द्रकला, जो चित्त को शुद्ध करती है।
  • यह श्लोक बोधिचित्त के प्रज्ञा और उपाय के समन्वय को दर्शाता हैजैसे हेरुक, वज्रयोगिनी के रूपों में प्रकट होता है।

👉 क्रोध और करुणा का समन्वयबोधिसत्त्व की परम शक्ति।


3️ तांत्रिक दृष्टिकोण से (कौल/श्रीविद्या/अघोर):

  • धगद्धगद् अग्नि = कुण्डलिनी जागरण की ज्वाला, जो आज्ञा चक्र में प्रकट होती है।
  • चन्द्र-शेखर = सोमलता नाड़ी, जो कुण्डलिनी को नियंत्रित कर ब्रह्मरंध्र तक लाती है।
  • यह श्लोक त्राटक, अग्निसाधना, एवं त्रिनेत्र दृष्टि के प्रयोग में उपयोगी है।
  • कौल मार्ग मेंयह इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना की संधि में स्थित अग्नि बिंदु का संकेत करता है।

👉 तांत्रिक शिव में अग्नि-चन्द्र का संतुलनसाधक की देह को दिव्य बनाता है।


📚 संभावित ग्रंथ सन्दर्भ:

  • शिवभक्तिरत्नावली, काश्मीर शैवागम, कालचक्र तंत्र, कौलज्ञाननिर्णय, शक्तिसङ्गमतंत्र

- श्लोक

श्लोक:
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिर्विशेषतः मम॥

संधिविच्छेद:
धगध्-धगध्-धग-ज्वलत्-ललाट-पट्ट-पावके, किशोर-चन्द्र-शेखरे, रतिः विशेषतः मम।

हिन्दी अर्थ:
जो भगवान् शिव के ललाट पट्ट (मस्तक की पट्टी) में धगधगाकर ज्वलंत अग्नि समान तेज प्रकट होता है, और जिनके शिर पर किशोर चन्द्र विराजमान है, उनमें मुझे विशेष प्रेम है।

बौद्ध दृष्टिकोण:
यह अग्नि प्रतीक है 'अविद्या' के दहन का। शिव, बोधिसत्व की भाँति, मस्तिष्क से अज्ञान की अग्नि निकालकर आत्मज्ञान की चंद्रशीतलता को धारण करते हैं।

शैव दृष्टिकोण:
यह शिव के 'रौद्र' रूप की व्यंजना करता है, जो त्रिनेत्रधारी शिव के तांडव के समय उभरता है। यह पावक कामदेव दहन से जुड़ा है।

तांत्रिक दृष्टिकोण:
यह अग्नि 'कुण्डलिनी जागरण' की अग्नि हैमस्तिष्क में स्थित 'सहस्रार' में चंद्र का अधिष्ठान और उसके नीचे अग्नि का संतुलन है। यह समाधि की पूर्णता है।


श्लोक

श्लोक:
मनोविनोदमद्भुतं द्विनेत्रचन्द्रशेखरं
व्रणं महेश्वरे मम प्रणम्यां प्रहराम्यहम्॥

(संस्कृत पाठ में कुछ अंतर पाया जाता है, वैकल्पिक पठनानुसार)
श्लोक:
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्
कुहूनिशीथिनीमुखे प्रमोदमानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि॥

संधिविच्छेद:
नवीन-मेघ-मण्डली-निरुद्ध-दुर्धर-स्फुरत्-कुहू-निशीथिनी-मुखे, प्रमोदमान-मानसे, कृपा-कटाक्ष-धोरणी-निरुद्ध-दुर्धरा-अपदि, क्वचित्-दिगम्बरे, मनः-विनोदम्-एतु-वस्तुनि।

हिन्दी अर्थ:
जो नवीन मेघमालाओं से आवृत होकर कुहू रात्रि के अंधकार को हर लेते हैं, जिनकी दृष्टि कृपा से परिपूर्ण है और जो आपत्तियों को रोक देते हैंऐसे दिगम्बर शिव में मेरा मन विशेष आनंद प्राप्त करे।

बौद्ध दृष्टिकोण:
यहआलोकऔरकृपाकी प्रतीकात्मकता है। ध्यान और करुणा से आपत्तियों का निरसन बौद्ध बोधिचित्त की क्रिया है।

शैव दृष्टिकोण:
यह शिव की 'अनुग्रह शक्ति' का वर्णन करता है जो रात्रि (अज्ञान) में आशा के चंद्र रूप से प्रकाश फैलाते हैं।

तांत्रिक दृष्टिकोण:
दिगम्बररूप, योग की उच्चतम अवस्था, निर्विकल्प समाधि का प्रतीक है। कृपा-कटाक्षशक्तिपातके माध्यम से साधक की रक्षा करते हैं।


श्लोक १०

श्लोक:
जटा-भुजङ्ग-पिङ्गल-स्फुरत्-फणामणि-प्रभा
कदम्ब-कुङ्कुम-द्रव-प्रलिप्त-दिग्वधूमुखे।
मदान्धसिन्धुर-स्कलत्-लग्न-कुम्भ-कुच-छ्रिये
मुकुन्दलीलयाः पुरः स्फुरत् तुङ्ग-भाल-चन्द्रिका॥

हिन्दी अर्थ:
जिनकी जटाओं में सर्पों की फणामणियों की प्रभा चमक रही है, और जिनकी दिशा की देवी कुमकुम द्रव से लिप्त होकर शोभायमान हैं, और जिनके सम्मुख उन्मत्त गज की धावन से गज-मातृकाएँ विकंपित हो रही हैंऐसे शिव की ललाट की चंद्रिका (चंद्र की किरण) प्रकट हो।

बौद्ध दृष्टिकोण:
यह प्रतीक हैचित्त में चल रहीविपरीत शक्तियोंको शिव की बुद्ध-चंद्रिका से स्थिर करने की। सर्प और दिशा की देवियाँ चंचलता का प्रतीक हैं, जिन्हें शिव संयमित करते हैं।

शैव दृष्टिकोण:
यह सौंदर्य और उग्रता का समन्वय हैशिव के भयंकरता में सौंदर्य। सर्प और गज मर्दन प्रतीक हैं संहार और संकल्प के।

तांत्रिक दृष्टिकोण:
सर्पइडा-पिंगलाके संतुलन के प्रतीक हैं, दिशा देवियाँतत्त्वहैं और मदान्ध गज प्रतीक हैं विकारों केजो शक्तिचक्र में नियंत्रित होते हैं।


श्लोक ११

श्लोक:
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा-
निपीतपञ्चसायकंनमन्निलिम्पनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः॥

हिन्दी अर्थ:
जो अपने ललाट की ज्वालाओं से कामदेव के पाँच बाणों को निगल गए हैं, जिनके आगे स्वर्ग के देवता भी झुकते हैं, जो चन्द्रमा की किरण से सुशोभित हैंऐसे महाकपालधारी शिव की जटाएं हमारे लिए कल्याणकारी हों।

बौद्ध दृष्टिकोण:
कामेन्द्रियों का निग्रह कर, जो आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, वही 'बोधिसत्व' हैं। ज्वाला काम के त्याग की, और चन्द्रमा शीतल बोधि की प्रतीक है।

शैव दृष्टिकोण:
यह कामदहन की कथा से संबंधित हैशिव की संन्यासी, वैराग्यशील, तपस्वी भूमिका। वे काम की सीमा को लांघ जाते हैं।

तांत्रिक दृष्टिकोण:
यह पाँच इन्द्रियों (पञ्चसायक) को दहन कर 'अग्नि' तत्व से 'तुरीय' अवस्था प्राप्ति का संकेत है। महाकपाली रूप श्मशानसाधना का भी द्योतक है।


श्लोक १२

श्लोक:
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्-
धनञ्जयाधरीकृतप्रचण्डपञ्चसायके।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम॥

हिन्दी अर्थ:
जिनके भालपट्ट (ललाट) पर धगधगाकर ज्वलंत अग्नि के समान उग्रता प्रकट होती है, जिन्होंने कामदेव के पाँच बाणों को परास्त किया है, और जो पार्वतीजी के कुचाग्रों को चित्रित करने वाले हैं, उन त्रिलोचन शिव में मेरी विशेष श्रद्धा है।

बौद्ध दृष्टिकोण:
यह भयंकरता और सौंदर्य का संतुलन है। शिवएकमहाक्रोधकभी हैं, परंतु करुणामय भी। यह द्वैत का बोधिपथ पर संतुलन है।

शैव दृष्टिकोण:
यह शिव की तांडव मूर्ति और पार्वती से प्रेम का संगम है। तप और सौंदर्य दोनों में रमणीयता।

तांत्रिक दृष्टिकोण:
चित्र पत्रकका अर्थ हैसृष्टि चित्रकार। पार्वती और शिव का संयोग, ‘शिव-शक्तिमिलन का प्रतीक है। पाँच बाणों का नियंत्रणचित्त की वृत्तियों पर अधिकार।

🔸 श्लोक १४

जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभाकदंबकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे॥
मदान्धसिंधुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनोजतत्त्वमङ्गलंमहेश्वरंनमाम्यहम्॥

🔹शब्दार्थ संक्षेप:
जटा भुजङ्ग पिङ्गल = जटाओं में लहराते हुए भूरे नाग
फणामणिप्रभा = मणिधारी फन की चमक
कदंबकुङ्कुम = गाढ़े कुमकुम से रंगी दिशाएँ
मदान्ध सिंधुर = मदोन्मत्त हाथियों के चर्म
मनोजतत्त्वमङ्गलम् = काम का नाश करने वाले मंगलकारी शिव


शैव व्याख्या:

शिव की महिमा का वर्णन है जो कामदेव का दमन करते हैं। दिशाओं में स्थित देवियों के मुख कुमकुम से रंगे हुए हैं। जटाओं में नाग है जिसकी मणि की आभा चारों ओर फैली है। यह स्वरूप रौद्र है परंतु शिवत्व की चरम अभिव्यक्ति है।

बौद्ध दृष्टि से:

यहाँ प्रतीकात्मक रूप से काम (इच्छा) के दमन की बात है। नाग, कदंब, सिंधुर जैसे प्रतीक संस्कारों और आलंबनों को दर्शाते हैं। शिव, इच्छाओं का शमन कर ध्यान-सिद्धि की ओर अग्रसर करते हैं।

तांत्रिक व्याख्या:

जटा में फणिधारी नाग कुण्डलिनी का प्रतीक है। दिशाओं की कुमकुम रेखाएँ दशदिक्पालों की स्त्री-शक्ति का आवाहन हैं। मदोन्मत्त गजचर्म रक्त-शक्ति का संकेत हैं, जिससे तांत्रिक जागरण होता है।


🔸 श्लोक १५

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर
प्रसूनधूलिधोरणीविधूसरअंगराघवे॥
भुजङ्गराजमालयानिबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिरायजायतांचकोरबन्धुशेखरः॥


शैव व्याख्या:

देवता जिनकी आराधना करते हैं और उनके पूजन से उत्पन्न पुष्पधूलि उनके अंगों को धूसर करती है, ऐसे शिव शोभा का अक्षय स्रोत हैं। चंद्रमा उनके मस्तक का आभूषण है।

बौद्ध दृष्टिकोण:

यहाँ अहंकार के लोप और समर्पण की भावना है। देवताओं की भांति व्यक्ति भी अपने चेतन भावों को शिवत्व में विलीन करता हैजिससे अंततः निर्वाण की शोभा प्राप्त होती है।

तांत्रिक व्याख्या:

यह श्लोक देवपूजन के पश्चात उत्पन्न धूलि (शक्ति संचय) को दर्शाता है। चंद्रमा सोम ऊर्जा और इडा नाड़ी का प्रतीक है। शिव का श्रृंगार इन तांत्रिक शक्तियों के पूर्ण जागरण का संकेत है।


🔸 श्लोक १६

ललाटचत्वरस्तलंविलोलविच्चलत्फल
वल्लोलवीलवल्लरीविराजमानमूर्धनि॥
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम॥


शैव व्याख्या:

शिव के मस्तक पर विलोमित ललाट है जिसमें अग्नि प्रज्वलित हो रही है और वहीं किशोर चंद्र का सौम्य रूप भी है। यह रौद्र और सौम्य के अद्भुत संतुलन को दर्शाता है।

बौद्ध व्याख्या:

यहाँ ध्यान का द्वंद्व दर्शाया गया हैएक ओर ज्वलन्त विचार और दूसरी ओर शांत चंद्रमा यह ध्यान की प्रक्रिया में उत्पन्न विपरीत भावों का सामंजस्य है जो बोधि की ओर ले जाता है।

तांत्रिक दृष्टिकोण:

शिव के मस्तक की अग्नि आग्नेय तत्त्व को और चंद्र शीतल सोम तत्त्व को दर्शाता है। यह इडा-पिंगला-सुषुम्ना का समन्वय है, जिससे त्रिकालबोध उत्पन्न होता है।


🔸 श्लोक १७

नमःशिवायशान्तायकरुणावतारिणे
सन्ध्यान्तरनिधिंवन्देसन्ध्याहीनंतुयः शिवः॥
यःशम्भुःयःशिवःसाक्षात्ध्यानध्यानोपदेशकः
एकःसर्वबोधायनित्यंमङ्गलकारणम्॥

(यह श्लोक कई पाठों में अलग मिलता हैकुछ में उपसंहार में)


शैव दृष्टिकोण:

शिव शान्त स्वरूप, करुणावतार हैं और ध्यान का अंतिम लक्ष्य हैं। वे संध्या में पूज्य हैं और संध्या के पार भी। यह सगुणनिर्गुण रूपों का समन्वय है।

बौद्ध दृष्टिकोण:

यहाँ बोधिसत्त्व और ध्यानमार्गदर्शक गुरु का चित्र है। शिव यहाँ निर्विकल्प समाधि के प्रतीक हैंजो ज्ञान का अंतिम स्रोत हैं।

तांत्रिक व्याख्या:

तंत्र में शिव ही गुरु, दीक्षा, ध्यान और मोक्ष के बीज हैं। यहाँ उनका वर्णन महातत्त्व के रूप में है जो करुणा और ज्ञान के केंद्र हैं। वे कालातीत हैंअर्थात काल और संध्या के पार।

श्लोक १८

श्लोकः
इमं हि नित्यमेव मुक्त मुक्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति सन्ततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम्॥

शब्दानुच्छेद
इमम् = इस
नित्यम् = नित्य
एव = ही
मुक्त-मुक्त-मोत्तमम् = मुक्त और सर्वोत्तम
स्तोत्रम् = स्तोत्र
पठन् = पाठ करता है
स्मरन् = स्मरण करता है
ब्रुवन् = बोलता है
नरः = मनुष्य
विशुद्धम् = पवित्रता
एति = प्राप्त करता है
सन्ततम् = निरन्तर
हरे = विष्णु
गुरौ = गुरु में
सुभक्तिम् = परम भक्ति
आशु = शीघ्र
याति = प्राप्त करता है
= नहीं
अन्यथा = अन्य मार्ग
गतिम् = गति
विमोहनम् = मोह से विमुक्ति
देहिनाम् = देहधारी प्राणियों के लिए
सु-शङ्करस्य = शुभ शिव
चिन्तनम् = चिन्तन


शैव दृष्टि:
यह श्लोक शिव-भक्ति की महिमा को बताता है। जो भी व्यक्ति इस स्तोत्र को पढ़ता, बोलता और स्मरण करता है, वह पवित्र होता है और शिव की कृपा से मुक्त हो जाता है। शिव के स्मरण मात्र से अन्य कोई गति आवश्यक नहीं।

बौद्ध दृष्टि:
यहाँ 'विशुद्धमेति सन्ततम्' वाक्य ध्यानयोगी की निरंतर शुद्धचित्त अवस्था को दर्शाता है। शिव को बोधिसत्व रूप मानते हुए, यह स्तोत्र अज्ञानता रूप मोह से विमुक्ति का साधन बनता है।

तांत्रिक दृष्टि:
यह स्तोत्र स्वयं एक तांत्रिक साधना है। पाठ, जप, स्मरण और उच्चारणचारों क्रियाएँ साथ में की जाती हैं, जो तांत्रिक यंत्रों एवं भैरवी साधना में एक उच्च स्थिति प्रदान करती हैं। शिव का चिन्तन ही मोक्ष की एकमात्र कुंजी बताया गया है।


श्लोक १९

श्लोकः
पूजावसान समये दश वक्त्र गीतं
यः शम्भु पूजन परं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथ गजे न्द्रतुरङ्ग युक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः॥

शैव दृष्टि:
प्रदोषकाल में शिवपूजन के अंत में जो यह स्तोत्र पाठ करता है, शिव उसे धन-वैभव और सुसंस्कृत जीवन प्रदान करते हैं। दशवक्त्र से तात्पर्य रावण से है, जो भक्त था।

बौद्ध दृष्टि:
यह श्लोक सांसारिक समृद्धि को ध्यान में रखता है। 'स्थिरां लक्ष्मीं' यहाँ चित्त की स्थिरता का प्रतीक है जो सम्यक साधना से प्राप्त होती है।

तांत्रिक दृष्टि:
प्रदोषकाल एक तांत्रिक मुहूर्त है। उस समय इस स्तोत्र का पाठ महालक्ष्मी तंत्र के साथ योज्य माना गया है, जिससे यंत्रों में स्थायित्व और आकर्षण आता है।


श्लोक २०

श्लोकः
दरिद्र दुःख दहनं शिव नमनं
कविं पुरारि धन पापहरं प्रशस्तम्।
चिन्ता मणिं गण विनायकदं त्रिलोके
द्वन्द्वं विनाशयति विष्णु पदं नमामि॥

यह श्लोक स्तोत्र का पारंपरिक भाग नहीं माना जाता, और विभिन्न संस्करणों में यह मिलता नहीं। यह एक उपश्लोक या उत्तरवर्ती भजन हो सकता है।


श्लोक २१ (अनुश्लोक)

श्लोकः
रावण प्रणीतं स्तोत्रं यः पठेच्छिवसन्निधौ।
शिव लोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥

शैव दृष्टि:
रावण द्वारा रचित इस स्तोत्र का पाठ शिव की उपस्थिति में करना स्वयं शिवलोक को प्राप्त करने का माध्यम है। यह श्लोक परिणाम-सूचक है।

बौद्ध दृष्टि:
यहाँ "शिवेन सह मोदते" को बोधिसत्त्वों के साथ समाधि-सुख के रूप में लिया जाता हैआत्मज्ञान की पराकाष्ठा।

तांत्रिक दृष्टि:
यह स्तोत्र रावण तंत्र परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है। पाठक तांत्रिक नियमों से इसका पाठ करे तो शिव साक्षात्कार या देवत्व का अनुभव संभव है।

 

:

जो देवता अपने ललाट से धगधग करती हुई प्रलयंकारी अग्नि प्रज्वलित करते हैं, जिनके शीश पर बालचन्द्र सुशोभित हैऐसे शिव में मेरा चित्त उत्तम भक्ति से रत रहे।


🔶 त्रि-दृष्टिकोणीय व्याख्या:


1️ शैव दृष्टिकोण से (काश्मीर शैव दर्शन):

  • ललाट की ज्वाला = क्रोध रूप त्रिनेत्र जो त्रिगुणात्मक माया के विनाश का प्रतीक है।
  • *यह श्लोक शिव के रौद्र रूप को प्रकट करता है, जहाँ ज्ञानाग्नि द्वारा अहंकार को भस्म किया जाता है।
  • चन्द्रमा (शीतलता) और ललाटाग्नि (प्रचंडता)शिव के समत्व और द्वंद्व-रहित चेतना को दर्शाते हैं।

👉 स्वरूप-शिव का दर्शनजो 'भीषण' और 'मंगल' दोनों को एक साथ धारण करता है।


2️ बौद्ध दृष्टिकोण से (वज्रयान, कालचक्र तंत्र):

  • ललाट का अग्नि-तत्त्व = वज्र (indestructible wisdom)जो अविद्या के अंधकार को भस्म करता है।
  • चन्द्रमा = सोम-चक्र अथवा कालचक्र की चन्द्रकला, जो चित्त को शुद्ध करती है।
  • यह श्लोक बोधिचित्त के प्रज्ञा और उपाय के समन्वय को दर्शाता हैजैसे हेरुक, वज्रयोगिनी के रूपों में प्रकट होता है।

👉 क्रोध और करुणा का समन्वयबोधिसत्त्व की परम शक्ति।


3️ तांत्रिक दृष्टिकोण से (कौल/श्रीविद्या/अघोर):

  • धगद्धगद् अग्नि = कुण्डलिनी जागरण की ज्वाला, जो आज्ञा चक्र में प्रकट होती है।
  • चन्द्र-शेखर = सोमलता नाड़ी, जो कुण्डलिनी को नियंत्रित कर ब्रह्मरंध्र तक लाती है।
  • यह श्लोक त्राटक, अग्निसाधना, एवं त्रिनेत्र दृष्टि के प्रयोग में उपयोगी है।
  • कौल मार्ग मेंयह इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना की संधि में स्थित अग्नि बिंदु का संकेत करता है।

👉 तांत्रिक शिव में अग्नि-चन्द्र का संतुलनसाधक की देह को दिव्य बनाता है।


📚 संभावित ग्रंथ सन्दर्भ:

  • शिवभक्तिरत्नावली, काश्मीर शैवागम, कालचक्र तंत्र, कौलज्ञाननिर्णय, शक्तिसङ्गमतंत्र

- श्लोक

श्लोक:
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिर्विशेषतः मम॥

संधिविच्छेद:
धगध्-धगध्-धग-ज्वलत्-ललाट-पट्ट-पावके, किशोर-चन्द्र-शेखरे, रतिः विशेषतः मम।

हिन्दी अर्थ:
जो भगवान् शिव के ललाट पट्ट (मस्तक की पट्टी) में धगधगाकर ज्वलंत अग्नि समान तेज प्रकट होता है, और जिनके शिर पर किशोर चन्द्र विराजमान है, उनमें मुझे विशेष प्रेम है।

बौद्ध दृष्टिकोण:
यह अग्नि प्रतीक है 'अविद्या' के दहन का। शिव, बोधिसत्व की भाँति, मस्तिष्क से अज्ञान की अग्नि निकालकर आत्मज्ञान की चंद्रशीतलता को धारण करते हैं।

शैव दृष्टिकोण:
यह शिव के 'रौद्र' रूप की व्यंजना करता है, जो त्रिनेत्रधारी शिव के तांडव के समय उभरता है। यह पावक कामदेव दहन से जुड़ा है।

तांत्रिक दृष्टिकोण:
यह अग्नि 'कुण्डलिनी जागरण' की अग्नि हैमस्तिष्क में स्थित 'सहस्रार' में चंद्र का अधिष्ठान और उसके नीचे अग्नि का संतुलन है। यह समाधि की पूर्णता है।


श्लोक

श्लोक:
मनोविनोदमद्भुतं द्विनेत्रचन्द्रशेखरं
व्रणं महेश्वरे मम प्रणम्यां प्रहराम्यहम्॥

(संस्कृत पाठ में कुछ अंतर पाया जाता है, वैकल्पिक पठनानुसार)
श्लोक:
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्
कुहूनिशीथिनीमुखे प्रमोदमानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि॥

संधिविच्छेद:
नवीन-मेघ-मण्डली-निरुद्ध-दुर्धर-स्फुरत्-कुहू-निशीथिनी-मुखे, प्रमोदमान-मानसे, कृपा-कटाक्ष-धोरणी-निरुद्ध-दुर्धरा-अपदि, क्वचित्-दिगम्बरे, मनः-विनोदम्-एतु-वस्तुनि।

हिन्दी अर्थ:
जो नवीन मेघमालाओं से आवृत होकर कुहू रात्रि के अंधकार को हर लेते हैं, जिनकी दृष्टि कृपा से परिपूर्ण है और जो आपत्तियों को रोक देते हैंऐसे दिगम्बर शिव में मेरा मन विशेष आनंद प्राप्त करे।

बौद्ध दृष्टिकोण:
यहआलोकऔरकृपाकी प्रतीकात्मकता है। ध्यान और करुणा से आपत्तियों का निरसन बौद्ध बोधिचित्त की क्रिया है।

शैव दृष्टिकोण:
यह शिव की 'अनुग्रह शक्ति' का वर्णन करता है जो रात्रि (अज्ञान) में आशा के चंद्र रूप से प्रकाश फैलाते हैं।

तांत्रिक दृष्टिकोण:
दिगम्बररूप, योग की उच्चतम अवस्था, निर्विकल्प समाधि का प्रतीक है। कृपा-कटाक्षशक्तिपातके माध्यम से साधक की रक्षा करते हैं।


श्लोक १०

श्लोक:
जटा-भुजङ्ग-पिङ्गल-स्फुरत्-फणामणि-प्रभा
कदम्ब-कुङ्कुम-द्रव-प्रलिप्त-दिग्वधूमुखे।
मदान्धसिन्धुर-स्कलत्-लग्न-कुम्भ-कुच-छ्रिये
मुकुन्दलीलयाः पुरः स्फुरत् तुङ्ग-भाल-चन्द्रिका॥

हिन्दी अर्थ:
जिनकी जटाओं में सर्पों की फणामणियों की प्रभा चमक रही है, और जिनकी दिशा की देवी कुमकुम द्रव से लिप्त होकर शोभायमान हैं, और जिनके सम्मुख उन्मत्त गज की धावन से गज-मातृकाएँ विकंपित हो रही हैंऐसे शिव की ललाट की चंद्रिका (चंद्र की किरण) प्रकट हो।

बौद्ध दृष्टिकोण:
यह प्रतीक हैचित्त में चल रहीविपरीत शक्तियोंको शिव की बुद्ध-चंद्रिका से स्थिर करने की। सर्प और दिशा की देवियाँ चंचलता का प्रतीक हैं, जिन्हें शिव संयमित करते हैं।

शैव दृष्टिकोण:
यह सौंदर्य और उग्रता का समन्वय हैशिव के भयंकरता में सौंदर्य। सर्प और गज मर्दन प्रतीक हैं संहार और संकल्प के।

तांत्रिक दृष्टिकोण:
सर्पइडा-पिंगलाके संतुलन के प्रतीक हैं, दिशा देवियाँतत्त्वहैं और मदान्ध गज प्रतीक हैं विकारों केजो शक्तिचक्र में नियंत्रित होते हैं।


श्लोक ११

श्लोक:
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा-
निपीतपञ्चसायकंनमन्निलिम्पनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः॥

हिन्दी अर्थ:
जो अपने ललाट की ज्वालाओं से कामदेव के पाँच बाणों को निगल गए हैं, जिनके आगे स्वर्ग के देवता भी झुकते हैं, जो चन्द्रमा की किरण से सुशोभित हैंऐसे महाकपालधारी शिव की जटाएं हमारे लिए कल्याणकारी हों।

बौद्ध दृष्टिकोण:
कामेन्द्रियों का निग्रह कर, जो आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, वही 'बोधिसत्व' हैं। ज्वाला काम के त्याग की, और चन्द्रमा शीतल बोधि की प्रतीक है।

शैव दृष्टिकोण:
यह कामदहन की कथा से संबंधित हैशिव की संन्यासी, वैराग्यशील, तपस्वी भूमिका। वे काम की सीमा को लांघ जाते हैं।

तांत्रिक दृष्टिकोण:
यह पाँच इन्द्रियों (पञ्चसायक) को दहन कर 'अग्नि' तत्व से 'तुरीय' अवस्था प्राप्ति का संकेत है। महाकपाली रूप श्मशानसाधना का भी द्योतक है।


श्लोक १२

श्लोक:
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्-
धनञ्जयाधरीकृतप्रचण्डपञ्चसायके।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम॥

हिन्दी अर्थ:
जिनके भालपट्ट (ललाट) पर धगधगाकर ज्वलंत अग्नि के समान उग्रता प्रकट होती है, जिन्होंने कामदेव के पाँच बाणों को परास्त किया है, और जो पार्वतीजी के कुचाग्रों को चित्रित करने वाले हैं, उन त्रिलोचन शिव में मेरी विशेष श्रद्धा है।

बौद्ध दृष्टिकोण:
यह भयंकरता और सौंदर्य का संतुलन है। शिवएकमहाक्रोधकभी हैं, परंतु करुणामय भी। यह द्वैत का बोधिपथ पर संतुलन है।

शैव दृष्टिकोण:
यह शिव की तांडव मूर्ति और पार्वती से प्रेम का संगम है। तप और सौंदर्य दोनों में रमणीयता।

तांत्रिक दृष्टिकोण:
चित्र पत्रकका अर्थ हैसृष्टि चित्रकार। पार्वती और शिव का संयोग, ‘शिव-शक्तिमिलन का प्रतीक है। पाँच बाणों का नियंत्रणचित्त की वृत्तियों पर अधिकार।

🔸 श्लोक १४

जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभाकदंबकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे॥
मदान्धसिंधुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनोजतत्त्वमङ्गलंमहेश्वरंनमाम्यहम्॥

🔹शब्दार्थ संक्षेप:
जटा भुजङ्ग पिङ्गल = जटाओं में लहराते हुए भूरे नाग
फणामणिप्रभा = मणिधारी फन की चमक
कदंबकुङ्कुम = गाढ़े कुमकुम से रंगी दिशाएँ
मदान्ध सिंधुर = मदोन्मत्त हाथियों के चर्म
मनोजतत्त्वमङ्गलम् = काम का नाश करने वाले मंगलकारी शिव


शैव व्याख्या:

शिव की महिमा का वर्णन है जो कामदेव का दमन करते हैं। दिशाओं में स्थित देवियों के मुख कुमकुम से रंगे हुए हैं। जटाओं में नाग है जिसकी मणि की आभा चारों ओर फैली है। यह स्वरूप रौद्र है परंतु शिवत्व की चरम अभिव्यक्ति है।

बौद्ध दृष्टि से:

यहाँ प्रतीकात्मक रूप से काम (इच्छा) के दमन की बात है। नाग, कदंब, सिंधुर जैसे प्रतीक संस्कारों और आलंबनों को दर्शाते हैं। शिव, इच्छाओं का शमन कर ध्यान-सिद्धि की ओर अग्रसर करते हैं।

तांत्रिक व्याख्या:

जटा में फणिधारी नाग कुण्डलिनी का प्रतीक है। दिशाओं की कुमकुम रेखाएँ दशदिक्पालों की स्त्री-शक्ति का आवाहन हैं। मदोन्मत्त गजचर्म रक्त-शक्ति का संकेत हैं, जिससे तांत्रिक जागरण होता है।


🔸 श्लोक १५

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर
प्रसूनधूलिधोरणीविधूसरअंगराघवे॥
भुजङ्गराजमालयानिबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिरायजायतांचकोरबन्धुशेखरः॥


शैव व्याख्या:

देवता जिनकी आराधना करते हैं और उनके पूजन से उत्पन्न पुष्पधूलि उनके अंगों को धूसर करती है, ऐसे शिव शोभा का अक्षय स्रोत हैं। चंद्रमा उनके मस्तक का आभूषण है।

बौद्ध दृष्टिकोण:

यहाँ अहंकार के लोप और समर्पण की भावना है। देवताओं की भांति व्यक्ति भी अपने चेतन भावों को शिवत्व में विलीन करता हैजिससे अंततः निर्वाण की शोभा प्राप्त होती है।

तांत्रिक व्याख्या:

यह श्लोक देवपूजन के पश्चात उत्पन्न धूलि (शक्ति संचय) को दर्शाता है। चंद्रमा सोम ऊर्जा और इडा नाड़ी का प्रतीक है। शिव का श्रृंगार इन तांत्रिक शक्तियों के पूर्ण जागरण का संकेत है।


🔸 श्लोक १६

ललाटचत्वरस्तलंविलोलविच्चलत्फल
वल्लोलवीलवल्लरीविराजमानमूर्धनि॥
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम॥


शैव व्याख्या:

शिव के मस्तक पर विलोमित ललाट है जिसमें अग्नि प्रज्वलित हो रही है और वहीं किशोर चंद्र का सौम्य रूप भी है। यह रौद्र और सौम्य के अद्भुत संतुलन को दर्शाता है।

बौद्ध व्याख्या:

यहाँ ध्यान का द्वंद्व दर्शाया गया हैएक ओर ज्वलन्त विचार और दूसरी ओर शांत चंद्रमा यह ध्यान की प्रक्रिया में उत्पन्न विपरीत भावों का सामंजस्य है जो बोधि की ओर ले जाता है।

तांत्रिक दृष्टिकोण:

शिव के मस्तक की अग्नि आग्नेय तत्त्व को और चंद्र शीतल सोम तत्त्व को दर्शाता है। यह इडा-पिंगला-सुषुम्ना का समन्वय है, जिससे त्रिकालबोध उत्पन्न होता है।


🔸 श्लोक १७

नमःशिवायशान्तायकरुणावतारिणे
सन्ध्यान्तरनिधिंवन्देसन्ध्याहीनंतुयः शिवः॥
यःशम्भुःयःशिवःसाक्षात्ध्यानध्यानोपदेशकः
एकःसर्वबोधायनित्यंमङ्गलकारणम्॥

(यह श्लोक कई पाठों में अलग मिलता हैकुछ में उपसंहार में)


शैव दृष्टिकोण:

शिव शान्त स्वरूप, करुणावतार हैं और ध्यान का अंतिम लक्ष्य हैं। वे संध्या में पूज्य हैं और संध्या के पार भी। यह सगुणनिर्गुण रूपों का समन्वय है।

बौद्ध दृष्टिकोण:

यहाँ बोधिसत्त्व और ध्यानमार्गदर्शक गुरु का चित्र है। शिव यहाँ निर्विकल्प समाधि के प्रतीक हैंजो ज्ञान का अंतिम स्रोत हैं।

तांत्रिक व्याख्या:

तंत्र में शिव ही गुरु, दीक्षा, ध्यान और मोक्ष के बीज हैं। यहाँ उनका वर्णन महातत्त्व के रूप में है जो करुणा और ज्ञान के केंद्र हैं। वे कालातीत हैंअर्थात काल और संध्या के पार।

श्लोक १८

श्लोकः
इमं हि नित्यमेव मुक्त मुक्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति सन्ततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम्॥

शब्दानुच्छेद
इमम् = इस
नित्यम् = नित्य
एव = ही
मुक्त-मुक्त-मोत्तमम् = मुक्त और सर्वोत्तम
स्तोत्रम् = स्तोत्र
पठन् = पाठ करता है
स्मरन् = स्मरण करता है
ब्रुवन् = बोलता है
नरः = मनुष्य
विशुद्धम् = पवित्रता
एति = प्राप्त करता है
सन्ततम् = निरन्तर
हरे = विष्णु
गुरौ = गुरु में
सुभक्तिम् = परम भक्ति
आशु = शीघ्र
याति = प्राप्त करता है
= नहीं
अन्यथा = अन्य मार्ग
गतिम् = गति
विमोहनम् = मोह से विमुक्ति
देहिनाम् = देहधारी प्राणियों के लिए
सु-शङ्करस्य = शुभ शिव
चिन्तनम् = चिन्तन


शैव दृष्टि:
यह श्लोक शिव-भक्ति की महिमा को बताता है। जो भी व्यक्ति इस स्तोत्र को पढ़ता, बोलता और स्मरण करता है, वह पवित्र होता है और शिव की कृपा से मुक्त हो जाता है। शिव के स्मरण मात्र से अन्य कोई गति आवश्यक नहीं।

बौद्ध दृष्टि:
यहाँ 'विशुद्धमेति सन्ततम्' वाक्य ध्यानयोगी की निरंतर शुद्धचित्त अवस्था को दर्शाता है। शिव को बोधिसत्व रूप मानते हुए, यह स्तोत्र अज्ञानता रूप मोह से विमुक्ति का साधन बनता है।

तांत्रिक दृष्टि:
यह स्तोत्र स्वयं एक तांत्रिक साधना है। पाठ, जप, स्मरण और उच्चारणचारों क्रियाएँ साथ में की जाती हैं, जो तांत्रिक यंत्रों एवं भैरवी साधना में एक उच्च स्थिति प्रदान करती हैं। शिव का चिन्तन ही मोक्ष की एकमात्र कुंजी बताया गया है।


श्लोक १९

श्लोकः
पूजावसान समये दश वक्त्र गीतं
यः शम्भु पूजन परं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथ गजे न्द्रतुरङ्ग युक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः॥

शैव दृष्टि:
प्रदोषकाल में शिवपूजन के अंत में जो यह स्तोत्र पाठ करता है, शिव उसे धन-वैभव और सुसंस्कृत जीवन प्रदान करते हैं। दशवक्त्र से तात्पर्य रावण से है, जो भक्त था।

बौद्ध दृष्टि:
यह श्लोक सांसारिक समृद्धि को ध्यान में रखता है। 'स्थिरां लक्ष्मीं' यहाँ चित्त की स्थिरता का प्रतीक है जो सम्यक साधना से प्राप्त होती है।

तांत्रिक दृष्टि:
प्रदोषकाल एक तांत्रिक मुहूर्त है। उस समय इस स्तोत्र का पाठ महालक्ष्मी तंत्र के साथ योज्य माना गया है, जिससे यंत्रों में स्थायित्व और आकर्षण आता है।


श्लोक २०

श्लोकः
दरिद्र दुःख दहनं शिव नमनं
कविं पुरारि धन पापहरं प्रशस्तम्।
चिन्ता मणिं गण विनायकदं त्रिलोके
द्वन्द्वं विनाशयति विष्णु पदं नमामि॥

यह श्लोक स्तोत्र का पारंपरिक भाग नहीं माना जाता, और विभिन्न संस्करणों में यह मिलता नहीं। यह एक उपश्लोक या उत्तरवर्ती भजन हो सकता है।


श्लोक २१ (अनुश्लोक)

श्लोकः
रावण प्रणीतं स्तोत्रं यः पठेच्छिवसन्निधौ।
शिव लोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥

शैव दृष्टि:
रावण द्वारा रचित इस स्तोत्र का पाठ शिव की उपस्थिति में करना स्वयं शिवलोक को प्राप्त करने का माध्यम है। यह श्लोक परिणाम-सूचक है।

बौद्ध दृष्टि:
यहाँ "शिवेन सह मोदते" को बोधिसत्त्वों के साथ समाधि-सुख के रूप में लिया जाता हैआत्मज्ञान की पराकाष्ठा।

तांत्रिक दृष्टि:
यह स्तोत्र रावण तंत्र परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है। पाठक तांत्रिक नियमों से इसका पाठ करे तो शिव साक्षात्कार या देवत्व का अनुभव संभव है।

 

 

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सिद्धिविनायक विघ्नेश्वर गणेश भगवान की आरती। आरती  जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा।  माता जा की पार्वती ,पिता महादेवा । एकदंत दयावंत चार भुजा धारी।   मस्तक सिंदूर सोहे मूसे की सवारी | जय गणेश जय गणेश देवा।  अंधन को आँख  देत, कोढ़िन को काया । बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया । जय गणेश जय गणेश देवा।   हार चढ़े फूल चढ़े ओर चढ़े मेवा । लड्डूअन का  भोग लगे संत करें सेवा।   जय गणेश जय गणेश देवा।   दीनन की लाज रखो ,शम्भू पत्र वारो।   मनोरथ को पूरा करो।  जाए बलिहारी।   जय गणेश जय गणेश देवा। आहुति मंत्र -  ॐ अंगारकाय नमः श्री 108 आहूतियां देना विशेष शुभ होता है इसमें शुद्ध घी ही दुर्वा एवं काले तिल का विशेष महत्व है। अग्नि पुराण के अनुसार गायत्री-      मंत्र ओम महोत काय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि तन्नो दंती प्रचोदयात्। गणेश पूजन की सामग्री एक चौकिया पाटे  का प्रयोग करें । लाल वस्त्र या नारंगी वस्त्र उसपर बिछाएं। चावलों से 8पत्ती वाला कमल पुष्प स्वरूप बनाएं। गणेश पूजा में नार...

श्राद्ध रहस्य - श्राद्ध क्यों करे ? कब श्राद्ध नहीं करे ? पिंड रहित श्राद्ध ?

श्राद्ध रहस्य - क्यों करे , न करे ? पिंड रहित , महालय ? किसी भी कर्म का पूर्ण फल विधि सहित करने पर ही मिलता है | * श्राद्ध में गाय का ही दूध प्रयोग करे |( विष्णु पुराण ) | श्राद्ध भोजन में तिल अवश्य प्रयोग करे | श्राद्ध अपरिहार्य है क्योकि - श्राद्ध अपरिहार्य - अश्वनी माह के कृष्ण पक्ष तक पितर अत्यंत अपेक्षा से कष्ट की   स्थिति में जल , तिल की अपनी संतान से , प्रतिदिन आशा रखते है | अन्यथा दुखी होकर श्राप देकर चले जाते हैं | श्राद्ध अपरिहार्य है क्योकि इसको नहीं करने से पीढ़ी दर पीढ़ी संतान मंद बुद्धि , दिव्यांगता .मानसिक रोग होते है | हेमाद्रि ग्रन्थ - आषाढ़ माह पूर्णिमा से /कन्या के सूर्य के समय एक दिन भी श्राद्ध कोई करता है तो , पितर एक वर्ष तक संतुष्ट/तृप्त रहते हैं | ( भद्र कृष्ण दूज को भरणी नक्षत्र , तृतीया को कृत्तिका नक्षत्र   या षष्ठी को रोहणी नक्षत्र या व्यतिपात मंगलवार को हो ये पिता को प्रिय योग है इस दिन व्रत , सूर्य पूजा , गौ दान गौ -दान श्रेष्ठ | - श्राद्ध का गया तुल्य फल- पितृपक्ष में मघा सूर्य की अष्टमी य त्रयोदशी को मघा नक्षत्र पर चंद्र ...

विवाह बाधा और परीक्षा में सफलता के लिए दुर्गा पूजा

विवाह में विलंब विवाह के लिए कात्यायनी पूजन । 10 oct - 18 oct विवाह में विलंब - षष्ठी - कात्यायनी पूजन । वैवाहिक सुखद जीवन अथवा विवाह बिलम्ब   या बाधा को समाप्त करने के लिए - दुर्गतिहारणी मां कात्यायनी की शरण लीजिये | प्रतिपदा के दिन कलश स्थापना के समय , संकल्प में अपना नाम गोत्र स्थान बोलने के पश्चात् अपने विवाह की याचना , प्रार्थना कीजिये | वैवाहिक सुखद जीवन अथवा विवाह बिलम्ब   या बाधा को समाप्त करने के लिए प्रति दिन प्रातः सूर्योदय से प्रथम घंटे में या दोपहर ११ . ४० से १२ . ४० बजे के मध्य , कात्ययानी देवी का मन्त्र जाप करिये | १०८बार | उत्तर दिशा में मुँह हो , लाल वस्त्र हो जाप के समय | दीपक मौली या कलावे की वर्तिका हो | वर्तिका उत्तर दिशा की और हो | गाय का शुद्ध घी श्रेष्ठ अथवा तिल ( बाधा नाशक + महुआ ( सौभाग्य ) तैल मिला कर प्रयोग करे मां भागवती की कृपा से पूर्वजन्म जनितआपके दुर्योग एवं   व्यवधान समाप्त हो एवं   आपकी मनोकामना पूरी हो ऐसी शुभ कामना सहित || षष्ठी के दिन विशेष रूप से कात्यायनी के मन्त्र का २८ आहुति / १०८ आहुति हवन कर...

कलश पर नारियल रखने की शास्त्रोक्त विधि क्या है जानिए

हमे श्रद्धा विश्वास समर्पित प्रयास करने के बाद भी वांछित परिणाम नहीं मिलते हैं , क्योकि हिन्दू धर्म श्रेष्ठ कोटी का विज्ञान सम्मत है ।इसकी प्रक्रिया , विधि या तकनीक का पालन अनुसरण परमावश्यक है । नारियल का अधिकाधिक प्रयोग पुजा अर्चना मे होता है।नारियल रखने की विधि सुविधा की दृष्टि से प्रचलित होगई॥ मेरे ज्ञान  मे कलश मे उल्टा सीधा नारियल फसाकर रखने की विधि का प्रमाण अब तक नहीं आया | यदि कोई सुविज्ञ जानकारी रखते हो तो स्वागत है । नारियल को मोटा भाग पूजा करने वाले की ओर होना चाहिए। कलश पर नारियल रखने की प्रमाणिक विधि क्या है ? अधोमुखम शत्रु विवर्धनाए , उर्ध्वस्य वक्त्रं बहुरोग वृद्ध्यै प्राची मुखं वित्त्नाश्नाय , तस्माच्छुभम सम्मुख नारिकेलम अधोमुखम शत्रु विवर्धनाए कलश पर - नारियल का बड़ा हिस्सा नीचे मुख कर रखा जाए ( पतला हिस्सा पूछ वाला कलश के उपरी भाग पर रखा जाए ) तो उसे शत्रुओं की वृद्धि होती है * ( कार्य सफलता में बाधाएं आती है संघर्ष , अपयश , चिंता , हानि , सहज हैशत्रु या विरोधी तन , मन धन सर्व दृष्टि से घातक होते है ) उर्ध्वस्य वक्त्रं बहुरोग वृद्ध्यै कलश ...