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देवशयनी एकादशी --चातुर्मास –क्या करे और न करे-6.7.2025

 

Dev shayni ekadashi se--चातुर्मास क्या करे और न करे

Chaturmas चौमासा तक चार माह चातुर्मास मास  |

चातुर्मास: क्या करें और क्या न करें

अवधि: चातुर्मास आषाढ़ शुक्ल एकादशी (देवशयनी एकादशी) से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवउठनी एकादशी) तक चलता है, जो चार पवित्र महीनों श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक को समाहित करता है।

आध्यात्मिक महत्व:

  • ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार इन महीनों में भगवान विष्णु योगनिद्रा में पाताल लोक (राजा बलि के यहाँ) में निवास करते हैं।
  • अधिकांश हिन्दू, जैन और बौद्ध पर्व इन्हीं चार महीनों में आते हैं।

महत्वपूर्ण नियम:

  • सूर्योदय से पहले उठें और स्नान करें (संभव हो तो दिन में दो बार)।
  • दिन में केवल एक बार भोजन करें। भारी और तमोगुण प्रधान भोजन से बचें।
  • भगवान विष्णु की पूजा करें, परंतु मूर्ति स्पर्श न करें।
  • नारायण स्तोत्र, पुरुष सूक्त का पाठ करें और भ्रूमध्य में का ध्यान करें।

भगवान विष्णु के शयन हेतु मंत्र: "सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत सुप्तं भवेदिदम्; विबुद्धे त्वयि बुध्येत जगत् सर्वं चराचरम्।"

स्वास्थ्य संबंधी निर्देश:

  • आंवला, मिश्री, तिल और जौ का प्रयोग स्नान जल में करें।
  • इन महीनों में छोटी नदियों में स्नान से बचें (गंगा, नर्मदा, यमुना आदि को छोड़कर)।
  • कांसे के पात्र का उपयोग करें यह रक्त शुद्धि और पित्त दोष में लाभदायक है।

व्रत नियम:

  • वर्जित: तेल, बैंगन, पत्तेदार सब्जियाँ, दही, दूध, मिठाई, नमक (सेंधा नमक को छोड़कर), तले व तीखे पदार्थ।
  • अपनाएं: एक अन्न का आहार (चावल, गेहूँ, बाजरा आदि में से कोई एक)।
  • दान, तप और इन्द्रिय संयम में लिप्त रहें।

मास अनुसार वर्जित आहार:

  • श्रावण (जुलाईअगस्त): पत्तेदार सब्जियाँ वर्जित।
  • भाद्रपद (अगस्तसितंबर): दही वर्जित।
  • आश्विन (सितंबरअक्टूबर): दूध वर्जित।
  • कार्तिक (अक्टूबरनवंबर): उड़द की दाल, प्याज, लहसुन वर्जित।

अनुशंसित भोजन विधि:

  • भोजन पलाश, वट या केले के पत्तों पर करें।
  • पलाश पत्र पर भोजन करना चान्द्रायण व्रत या एकादशी उपवास के समान पुण्यदायक है।

इन कार्यों से बचें:

  • विवाह, यज्ञोपवीत, गृहप्रवेश जैसे मांगलिक कार्य न करें।
  • नाखून/बाल काटना, नरम गद्दे पर सोना, अधिक बोलना वर्जित।

त्याग से मिलने वाले पुण्यफल:

  • गुड़ का त्याग: मधुर वाणी।
  • तेल का त्याग: तेजस्वी त्वचा।
  • सरसों तेल का त्याग: शत्रु नाश।
  • पान का त्याग: सुंदरता व चेतना।
  • घी का त्याग: शारीरिक कांति।

वर्जित आहार:

  • बैंगन, प्याज, लहसुन, जिमीकंद, लौकी, फूलगोभी आदि।
  • तांबे के पात्र का पानी, रिफाइंड तेल, पनीर, चाय, कॉफी, मिठाई, बेकरी और जंक फूड से बचें।

दान कार्य:

  • गाय, भूमि, पुस्तकें या शिक्षा संबंधित वस्तुएँ दान करें।
  • चातुर्मास मौन, ब्रह्मचर्य, ध्यान और भक्ति के लिए सर्वोत्तम है।

सारांश: ये चार पवित्र महीने शारीरिक शुद्धि, मानसिक पवित्रता, आध्यात्मिक उत्थान और अनुशासित जीवन हेतु समर्पित हैं। इस अवधि में छोटा सा त्याग भी महान पुण्य प्रदान करता है।

 

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Detailed

क्या है-

चातुर्मास महीने की अवधि हैजो आषाढ़ शुक्ल एकादशी (देवशयनी एकदाशी से देव उठनी  तक )से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चलता है।

-देवशयनी एकादशी से श्री विष्णु पाताल के राजा बलि के यहां चार मास निवास करते हैं|

-4 माह ?- श्रावणभाद्रपदआश्‍विन और कार्तिक। चातुर्मास के प्रारंभ को 'देवशयनी एकादशीकहा जाता है और अंत को 'देवोत्थान एकादशी'

चार महीने विष्णु के नेत्रों में योगनिद्रा का निवास -

ब्रह्मवैवर्त पुराण 

योगनिद्रा ने भगवान विष्णु को प्रसन्न किया और प्रार्थना की आप मुझे अपने अंगों में स्थान दीजिए । श्री विष्णु ने अपने नेत्रों में योगनिद्रा को स्थान कहा कि तुम वर्ष में चार मास मेरे नेत्रो मे रहोगी।

-4 महीने  व्रतभक्ति और शुभ कर्म के,

-4 माह के, प्रथम माह तो सबसे महत्वपूर्ण माना गया है।

ये 4 महीने दुर्लभ हैं।

दिन में केवल एक ही बार भोजन करना चाहिए।

·         हिन्दू धर्म के त्योहारों का अधिकांश चौमासा /4माह मे आते हें |बौद्ध एवं जैन धर्म मे इन 4 माह का विशेष महत्व है |

·         विष्णु जी की पुजा शृंगार कर शयन विधि-

आगामी चार माह मूर्ति स्पर्श विष्णु जी की वर्जित |उपवास करके भगवान विष्णु की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करवाकर | पीत वस्त्रों से सजाकर श्री हरि की आरती फल,सुगंध,पान-सुपारी अर्पित करने के  बाद इस मन्त्र के द्वारा स्तुति करें।

'सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत सुप्तं भवेद इदम।

विबुद्धे त्वयि बुध्येत जगत सर्वं चरा चरम।'

'हे जगन्नाथ जी! आपके शयन पर यह सारा जगत सुप्त हो जाता है और आपके जाग जाने पर सम्पूर्ण विश्व तथा चराचर भी जागृत होता हैं । प्रार्थना करने के बाद भगवान को श्वेत वस्त्रों की शय्या पर शयन करा देना चाहिए।

स्वास्थ्य-

माह में पाचनशक्ति कमजोर होती है गरिष्ठ भोजन वर्जित.

क्या करे-नियम-

-4 महीने  सूर्योदय से पहले उठना ,स्नान करना

अधिकतर समय मौन रहना चाहिए।

वर्जित कार्य :

4माह - भगवान नारायण के शयन के कारण विवाहयज्ञोपवीत संस्कारदीक्षाग्रहणयज्ञगोदानगृहप्रवेश आदि सभी मंगल कार्य निषेध हैं।

तन- मन दोष नाशक-

जलाशय जल ही तीर्थ- स्नान भगवान विष्णु  शेष शैय्या पर शयन करते है४ महीने सभी जलाशयों में तीर्थत्व प्रभाव ।

-स्वास्थ्यवर्ध्क या रोग नाशक स्नान

- दो बार स्नान करना चाहिये।

-बेलपत्र डालकर ,पिसे हुए तिलआंवला-मिश्री और जौं को बाल्टी जल मे मिलकर  स्नान ।

--ॐ नमः शिवाय 5 जप कर फिर सिर पर पानी डालेतो पित्त बीमारीकंठ का सूखनाचिड़चिड़ा स्वभाव कम होता है.

पलाश के पत्तों पर भोजन पापनाशक पुण्यदायी होते हैंब्रह्मभाव को प्राप्त कराने वाले होते हं।

ओज ,तेज और बुद्धि बढ़ाएँ-

1-व्रत चार माह करे या  चातुर्मास में इन 4 महीनों में दोनों पक्षों की एकादशी का व्रत करना चाहिये। चावल या उससे निर्नमित पदार्थ नहीं  खाना  चाहिए .

2-पुरुष सूक्त का पाठ करे बुद्धि विकास के लिए|

3- भ्रूमध्य में  का ध्यान करने से बुद्धि वृद्धि |

दानदया और इन्द्रिय संयम करने वाले को उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है।

आंवला-मिश्री जल से स्नान महान पुण्य प्रदान करता है।

2-व्रत मे वर्जित  भोजन -

तेलबैंगनपत्तेदार सब्जियांदूधशकरदहीसमुद्री नमक या मसालेदार भोजनमिठाईसुपारीमांस और मदिरा का सेवन नहीं ।

-3- 4माह वर्जित भोजन सामग्री

---- श्रावण(14 जुलाई से 12 अगस्त )में पत्तेदार सब्जियां यथा पालकसाग इत्यादिवर्जित |

-भाद्रपद (13 अगस्त से 12 सितम्बर  )में दही वर्जित |,

-आश्विन(11 सितम्बर से9 अक्टूबर) में दूध वर्जित |,

-कार्तिक(10 अक्टूबर से 04 नवम्बर ) में प्याजलहसुन और उड़द की दाल आदि वर्जित है।

भोजन पात्र /बर्तन धातु /पत्ते-

1-पलाश पर्ण -स्कन्द पुराण’ -चातुर्मास में पलाश (ढाक) के पत्तों में या इनसे बनी पत्तलों में किया गया भोजन चान्द्रायण व्रत एवं एकादशी व्रत के समान पुण्य प्रद है।

-पलाश पत्तों में भोजन त्रिरात्रि व्रत के समान पुण्यदायक और पाप नाशक

2- बड़ / वट /बरगद ( पत्तों) पत्तल - पत्तल पर किया गया भोजन पुण्यप्रद।

3- केला पत्ता भोजन रुचि वर्धक ,फूड poisioning या गैसदोष का नाश करने वाल होता है |

5-पित्त शमन व रक्त शुद्धि -काँसे के पात्र –बुद्धि वर्द्धक

स्वास्थ्य?अम्लपित्तरक्तपित्तत्वचाविकारयकृत व हृदयविकार से पीड़ित व्यक्तियों के लिए काँसे के पात्र उपयोगी हैं।

चार माह (चतुर्मास) क्या करे ,क्या नहीं करे ?

(पंडित विजेंद्र तिवारी ज्योतिष एवं कर्मकांड मर्मज्ञ )

(संदर्भ ग्रंथ-  स्कंद पुराणभविष्य पुराण,पद्म पुराण,निर्णय सिंधु,अगस्त्य सहिता,हेमाद्रि,)

पूजा,अर्चना के लिए विशेष उपयोगी चतुर्मास अवधि है।

 क्या है-

चातुर्मास महीने की अवधि हैजो आषाढ़ शुक्ल एकादशी से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चलता है।

-देवशयनी एकादशी से श्री विष्णु पाताल के राजा बलि के यहां चार मास निवास करते हैं|-

चातुर्मास 4 माह हैं- श्रावणभाद्रपदआश्‍विन और कार्तिक।

 चातुर्मास के प्रारंभ को 'देवशयनी एकादशीकहा जाता है और अंत को 'देवोत्थान एकादशी'

चार महीने विष्णु के नेत्रों में योगनिद्रा-

ब्रह्मवैवर्त पुराण - 

योगनिद्रा ने भगवान विष्णु को प्रसन्न किया और प्रार्थना की आप मुझे अपने अंगों में स्थान दीजिए । श्री विष्णु ने अपने नेत्रों में योगनिद्रा को स्थान कहा कि तुम वर्ष में चार मास मेरे नेत्रो मे रहोगी।

·         हिन्दू धर्म के त्योहारों का अधिकांश चौमासा /4माह मे आते हें |बौद्ध एवं जैन धर्म मे इन 4 माह का विशेष महत्व है |

               एकादशी को विष्णु / हरि एवं   पूर्णिमा प्रदोष काल मे शिव / हर शयन करते हैं -
व्याघ्र चर्म परजटा सर्प बंधन उमा पति शिव शयन करते है।
पूजा,अर्चना के लिए विशेष उपयोगी चतुर्मासअवधि है।
चतुर्मास में भगवान नारायण जल पर शयन करते हैं।

चतुर्मास में भगवान नारायण जल पर शयन करते हैं।

प्रातः स्नान karna chaiye तीर्थ स्नान फल प्रदाता।

 ·         विष्णु जी की पुजा शृंगार कर शयन विधि-

चार माह मूर्ति स्पर्श विष्णु जी की वर्जित |

 पीत वस्त्रों से सजाकर श्री हरि की आरती फल,सुगंध,पान-सुपारी अर्पित करने के  बाद इस मन्त्र के द्वारा स्तुति करें।

'सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत सुप्तं भवेद इदम।

विबुद्धे त्वयि बुध्येत जगत सर्वं चरा चरम।'

'हे जगन्नाथ जी! आपके शयनपर यह सारा जगत सुप्त हो जाता है और आपके जाग जाने पर सम्पूर्ण विश्व तथा चराचर भी जागृत होता हैं । 

प्रार्थना करने के बाद भगवान को श्वेत वस्त्रों की शय्या पर शयन करा देना चाहिए।

स्वास्थ्य-

माह में पाचन शक्ति कमजोर होती है|

क्या करे-नियम-

-4 महीने  सूर्योदय से पहले उठना ,स्नान करना

अधिकतर समय मौन रहना चाहिए।

वर्जित कार्य :

माह - भगवान नारायण के शयन से विवाहयज्ञोपवीत संस्कारदीक्षाग्रहणयज्ञगोदानगृहप्रवेश आदि सभी मंगल कार्य निषेध हैं।

तन- मन दोष नाशक-

जलाशय जल ही तीर्थ- स्नान भगवान विष्णु  शेष शैय्या पर शयन करते है

 ४ महीने सभी जलाशयों में तीर्थत्व प्रभाव ।

-स्वास्थ्यवर्ध्क या रोग नाशक स्नान

1जुलाई से कार्तिक तक छोटी नदियों में स्नान वर्जित .

(गंगा नर्मदा सतलज यमुना आदि बड़ी नदियों के अतिरिक्त अन्य नदियों में स्नान ।)
नदी के किनारे रहने वाले वर्ग के लिए छोटी नदियों में भी स्नान वर्जित नहीं होता ।
प्रातः स्नान तीर्थ स्नान फल प्रदाता।
जल शुद्धि एवम दोष निवारणविधि |

- दो बार स्नान करना चाहिये।

आंवला-मिश्री जल से स्नान महान पुण्य प्रदान करता है।

 -बेलपत्र डालकर ,पिसे हुए तिलआंवला-मिश्री और जौं को बाल्टी जल मे मिलकर  स्नान ।

 स्नान जल शुद्धि एवम दोष निवारण विधि

जल में तिल ,बेल पत्रआँवले का चूर्ण डालिएऐसे जल से स्नान जल के दोष दूर करता है।

ओज ,तेज और बुद्धि बढ़ाएँ-

1-व्रत चार माह करे या  चातुर्मास में इन 4 महीनों में दोनों पक्षों की एकादशी का व्रत करना चाहिये।

2-पुरुष सूक्त का पाठ करे बुद्धि विकास के लिए|

3- भ्रूमध्य में  का ध्यान बुद्धि वृद्धि |

दानदया और इन्द्रिय संयम करने वाले को उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है।

2-व्रत मे वर्जित  भोजन -

तेलबैंगनपत्तेदार सब्जियांदूधशकरदहीनमकीन या मसालेदार भोजनमिठाईसुपारीमांस और मदिरा का सेवन नहीं ।

-3- 4माह वर्जित भोजन सामग्री

त्याज्य पदार्थ - चार माह भोजन मे वर्जित।-
वर्जित- नीबूमूलीकुम्हडागन्नानमकइमलीबेरसावामसूरउड़दसलगमपोइगाँठ गोभीकुंदरू,  मटरचना,तरबुज,खरबूजा,बेल फल,गूलर,भुना एव्ं जला पदार्थ,बथुआ,नेपाली धनिया,

श्रावण माह - शाक,भाजी,पत्ते वाली भोजन सामग्री।
भाद्र माह दही ।
आश्वनि या क्वार माह मे दूध। करेला।
कार्तिक माह मे - दाल।
बहुत बीज वाली सब्जी जैसे भटाबेगन,परवलकरेलाकददुभिंडी ।
बरबटी,मांस आहार।

आषाढ़-( जामुन का उपयोग करें)

प्रयोग ना करें-

तांबे के पात्र में रखा हुआ पानी  बाजरा ,उड़दतुरई ,बैंगन ,गाजर ,मूली ,फूल गोभी ,पत्ता गोभी बेल ,केसर एवं हापुस आमजायफल ,जावित्री ,इमली अलसीमूंगफली ,रिफाइंड तेल ,वनस्पति घी ,बटर ,पनीर ,दही।

श्रवण   माह( सूखी सब्जी खाना चाहिए,पीतल या तांबे के बर्तन में पानी पियें)

प्रयोग नहीं करें

 मसूरचना बैंगनतुरई ,अरबी ,जिमीकंदकुंदरु ,काकडी ,नया आलू ,शकरकंद ,गाजर ,मूली ,चुकंदर ,फूल गोभी ,पत्ता गोभी ,भिंडीपालक तरबूजखरबूजाअदरकहरीमिर्च ,हरा धनियाइमली दूध ,पनीरचीजमावा ,प्याज

 -पपीता ,लौंगमूंगफली तेल ,छेना लौकी ,करेला |

भाद्रपद माह

 प्रयोग ना करें-  दही,मोठ ,उड़द ,मसूर, चना ,परवल ,लौकी ,भिंडी ,करेला ,बैंगन ,फ्राई अरबी, जिमीकंद कुंदरु ,ककड़ी ,नया आलू ,गाजर ,मूली ,चुकंदर ,फूल गोभी ,पत्ता गोभी ,पालक ,तरबूज, खरबूजा, पपीता पोदीना, हरी मिर्च ,हरा धनिया ,अदरक ,इमली ,जावित्री ,मूंगफली का तेल ,रिफाइंड तेल, श्रीखंड दही लस्सी ,गन्ना ,काजू ,पिस्ता

 

अश्वनी  माह

प्रयोग ना करें-  छाछ,तांबे के पात्र का पानी बाजरा ,उड़द ,कुंदरुकुंदरुकरेला ,जिमीकंद ,सूप टमाटर ,आलू ,अरबी ककड़ीबैंगन ,शकरकंद ,गाजर ,मूली ,चुकंदर ,फूल गोभी ,पालकपत्ता गोभी ,तरबूज ,खरबूज ,पपीता ,सो हरी मिर्च ,लाल मिर्च ,हरा धनियाही ग्राही मेथीअजवाइनअदरक ,सूट लॉन्ग जावित्री ,इमली ,तिल का तेल सरसों का तेल ,अलसी का तेलमूंगफली ,रिफाइंड तेलकड़ी ,दहीश्रीखंडलस्सी ,छाछ ,पनीरशहद ,काजू पिस्ता

कार्तिक माह

 प्रयोग ना करें

 सूखे मेवे ,गेहूं ,उड़द ,कुल्थी ,प्याज ,लहसुन ,का कूड़ा ,बैंगन ,शकरकंदगाजरमूलीफूल गोभी पत्ता गोभी पालक ,तरबूज ,खरबूज ,चुकंदर ,कुंदरुकरेलाजिमीकंद ,टमाटर ,आलू ,अरबीचुकंदरपपीतालाल मिर्च हरी मिर्च ,सिंह मेथीअजवाइन ,सूट ,जायफल ,जावित्री ,रिफाइंड ,तेल तिल का तेलसरसों का तेलअलसी का तेल ,दही ,छाछ ,लस्सी ,शहद ,ढोकला ,इडली,खमीर वाली चीजें ,काजू ,पिस्ता ,लज तांबे के पात्र का पानी |

प्रिय भोज्य पदार्थ त्याग मोह नाशक सुख दाई

-प्रिय भोज्य पदार्थ त्याग अर्थात चार माह न खाने का संकल्प करे।

-यह आलूपीज़ापोहा,बिस्कुट,चाऊमिनदूधचायकाफी

कोई भी पदार्थ जो दैनिक जीवन मे सर्वाधिक आवश्यक  होउसका परित्याग।

त्याज्य पदार्थ वस्तु धातु रंग

-नमकबेगनअलुमिनियमकाँच,चीनी मिट्टी,ताम्र पात्र ,नीला,काला रंग वस्त्र,वस्तु मे परित्याग महत्वपूर्णपूर्तकर्म (परोपकार एवं धर्म  कार्य) मनोकामना पूरक होते हैं ।

-सेंधा एवम काला नमक का दोश अति अल्प है।

-पलाश या केले के पत्ते का उपयोग् उत्तम।

श्रेष्ट एक समय भोजन (द्वादशाह यज्ञ’  फल ) ।

-एक अन्न भोजन उपयोग निरोगी काया-

-अन्न मे (दालचावलमक्काज्वारबाजरागेहूं आदि मे) किसी एक का चार माह उपयोग करे अन्य नहीं।पेयफलसब्जीसिंघाडा या उसका आटा प्रयोग कर सकते हैं।

 पाप नाशक पुण्य उदय उपाय

चार माह दूध एवम उससे निर्मित पदार्थ एवम फल का उपयोग करे।

किस वस्तु परित्याग से क्या फल मिलता है -
1गुड-के परित्याग से मधुर स्वर
2
तेल- के सुंदरं अंग
3सरसों के तेल के त्याग से शत्रु नाश
4तांबूल त्याग से सौंदर्य एवं चेतना।
5घी के त्याग से शारीरिक कांति।
6शाक पत्र त्याग से निर्मलता
7भूमि शयन से मुनियों जैसी श्रेष्ठता
8एक दिन छोड़ कर भोजन (चावाल नही)से ब्रह्मलोक
9नाखून एवं बाल नहीं कटवाने से गंगा स्नान का फल
10मौन व्रत से उसके बचन खाली नहीं होते एवं उसके आदेश निर्देशों का पालन होता है।
11भूमि पर भोजन करने से भूमि संबंधित सुख एवं भूमि का स्वामित्व मिलता है।
12नारायण स्त्रोत ,श्री सूक्तपुरुष सूक्त पढ़ने से विष्णुलोक प्राप्त होता है।
13बिना मांगे भोजन करने से धार्मिक पुत्र सुख मिलता है ।
14अतिअल्प भोजन स्वर्ग सुख प्राप्त होता है ।
15पत्ते पर भोजन से कुरुक्षेत्र का फल मिलता है।

16गुड तांबे के पात्र में रखकर दान देने से

 या नमक दान करने से यश एवं प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है ।
17शिव के अंगों की पूजा करने से रूद्र लोक प्राप्त होता है और विद्वता प्राप्त होती है।
पूजा मे वर्जित - पुष्प एवं पत्ते 
आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी की अवधि मे पूजा मे वर्जित- दुर्वाशमीअपमार्गभृङ्गराज् ।

---- श्रावण में पत्तेदार सब्जियां यथा पालकसागवर्जित |(julyAug)

-भाद्रपद में दही वर्जित |,(Aug-Sep)

आश्विन में दूध वर्जित |,(sep-Oct)

कार्तिक में प्याजलहसुन और उड़द की दाल आदि वर्जित है।(oct-Nov)

भोजन पात्र /बर्तन धातु /पत्ते-

1-पलाश पर्ण -स्कन्द पुराण’ -चातुर्मास में पलाश (ढाक) के पत्तों में या इनसे बनी पत्तलों में किया गया भोजन चान्द्रायण व्रत एवं एकादशी व्रत के समान पुण्य प्रद है।

-पलाश पत्तों में भोजन त्रिरात्रि व्रत के समान पुण्यदायक और पाप नाशक

2- बड़ / वट /बरगद ( पत्तों) पत्तल - पत्तल पर किया गया भोजन पुण्यप्रद।

3- केला पत्ता भोजन रुचि वर्धक ,फूड poisioning या गैस दोष का नाश करने वाल होता है |

5-पित्त शमन व रक्त शुद्धि -काँसे के पात्र –बुद्धि वर्द्धक

6-- नमः शिवाय 5 जप कर फिर सिर पर डाला पानी कातो पित्त बीमारीकंठ का सूखनाचिड़चिड़ा स्वभाव कम |

7- पलाश के पत्तों पर भोजन पापनाशक पुण्यदायी होते हैंब्रह्मभाव को प्राप्त कराने वाले होते हं।

स्वास्थ्य?अम्लपित्तरक्तपित्तत्वचाविकारयकृत व हृदयविकार से पीड़ित व्यक्तियों के लिए काँसे के पात्र उपयोगी हैं।

उपयोगी कर्म

-मौन व्रत सर्वाधिक महत्वपूर्ण।

ज्ञान,मनोबल,अतिन्द्रिय शक्ति आध्यात्मिक चेतना वृद्धि।

-भूमि पर शयनब्रह्मचर्य उपवासजपध्यानदान-पुण्य आदि लाभप्रद होते हैं ।

पूर्वजों के उद्धारक दान वस्तु-

गायभूमिविद्या या शिक्षा ( शिक्षा से संबंधित वस्तुये यथा पुस्तकपेन पेंसिलशुल्कनिशुल्क ट्यूशन)।

प्रतिदिन पठनीय या श्रवण

पुरुश सूक्तरुद्र सूक्तश्री सूक्त पाठ प्रतिदिन ईश कृपाविघ्न नाशक एवम लक्ष्मीप्रद

Purusha Sukta (Sandhi Viccheda with Meaning – Paragraph Style)

1. सहस्र शीर्षः सहस्र अक्षः सहस्र पात् सः भूमि सर्वतः स्पृत्वा अत्य तिष्ठत् दशाङ्गुलम्
अर्थ: विराट पुरुश, सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले हैं, वे सारे ब्रह्मांड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं।

2. पुरुषः एव इदम् सर्वम् यत् भूतम् यत् च भाव्यम् उत अमृतत्वस्य ईशानः यत् अन्ने न अतिरोहति
अर्थ: जो सृष्टि बन चुकी, जो बनने युक्ता है, यह सब विराट पुरुश ही हैं। इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं।

3. एतावान् अस्य महिमा ततः ज्यायान् च पुरुषः पादः अस्य विश्वा भूतानि त्रिपात् अस्य अमृतम् दिवि
अर्थ: विराट पुरुश की महत्ता अति विस्तृत है। इस श्रेष्ठ पुरुश के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं।

4. त्रिपात् ऊर्ध्वः उदैत् पुरुषः पादः अस्य इह अभवत् पुनः ततः विश्वम् व्यक्रामत् सः अशनान् अशने अभि
अर्थ: चार भागोंवाले विराट पुरुश के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है। इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं।

5. ततः विराट् जायते विराजः अधि पुरुषः सः जातः अत्यरिच्यत् पश्चात् भूमि अथः पुरः
अर्थ: उस विराट पुरुश से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ। उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए। वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया।

6. तस्मात् यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतम् पृषदाज्यम् पशून् तान् चक्रे वायव्यः आरण्यः ग्राम्यः च ये
अर्थ: उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ। वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुश के द्वारा ही हुई।

7. स्मात् यज्ञात् सर्वहुतात् ऋचः सामानि जज्ञिरे छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात् यजुः तस्मात् जायते
अर्थ: उस विराट यज्ञ पुरुश से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ। उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ।

8. तस्मात् अश्वाः अजायन्त ये के च उभयातः गावः ह जज्ञिरे तस्मात् तस्मात् जाताः अजाः अवयः
अर्थ: उस विराट यज्ञ पुरुश से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुश से गौए, बकरियाँ और भेड़ आदि पशु भी उत्पन्न हुए।

9. तम् यज्ञम् बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषम् जातम् अग्रतः तेन देवाः अयजन्त साध्याः ऋषयः च ये
अर्थ: मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुश को यज्ञ में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुश से ही आत्मयज्ञ का प्रादुर्भाव किया।

10. यत् पुरुषम् व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् मुखम् किम् अस्य आसीत् किम् बाहू किम् ऊरू पादः उच्यते
अर्थ: संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुश का, ज्ञानीजन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं? उसका मुख क्या है? भुजा, जंघा और पाँव कौन-से हैं?

11. ब्राह्मणः अस्य मुखम् आसीत् बाहू राजन्यः कृतः ऊरू तद् अस्य यत् वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रः अजायत
अर्थ: विराट पुरुश का मुख ब्राह्मण हुए। क्षत्रिय बाहुओं के समान, वैश्य उसकी जंघा एवं शूद्र चरणों के समान हुए।

12. चन्द्रमाः मनसः जातः चक्षुः सूर्यः अजायत् श्रोत्रात् वायुः च प्राणः च मुखात् अग्निः अजायत
अर्थ: मन से चंद्रमा, नेत्रों से सूर्य, कर्ण से वायु और प्राण, तथा मुख से अग्नि उत्पन्न हुए।

13. नाभ्या आसीत् अन्तरिक्षम् शीर्ष्णः द्यौः समवर्तत पद्भ्याम् भूमिः दिशः श्रोत्रात् तथा लोकान् अकल्पयन्
अर्थ: नाभि से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ उत्पन्न हुईं। उसी से लोकों की रचना हुई।

14. यत् पुरुषेण हविषा देवाः यज्ञम् अतन्वत वसन्तः अस्य आसीत् आज्यम् ग्रीष्मः इध्मः शरद् हविः
अर्थ: जब देवों ने विराट पुरुश को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब वसंत ऋतु घृत, ग्रीष्म समिधा और शरद हवि हुई।

15. सप्त अस्य आसन् परिधयः त्रिः सप्तः समिधः कृताः देवाः यत् यज्ञम् तन्वानाः अबध्नन् पुरुषम् पशुम्
अर्थ: देवों ने विराट पुरुश को पशु रूप में बाँधकर यज्ञ किया। उस यज्ञ में सात परिधियाँ और इक्कीस समिधाएँ थीं।

16. यज्ञेन यज्ञम् अयजन्त देवाः तानि धर्माणि प्रथमम् आस्यन् ते ह नाकम् महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः
अर्थ: प्रारंभिक देवों ने यज्ञ द्वारा यज्ञरूप विराट सत्ता की आराधना की। ऐसे यज्ञीय जीवन जीनेवाले धर्मात्मा स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं जहाँ पहले साध्य देव रहते हैं।

 श्रीसूक्त ऋग्वेद के पांचवें मण्डल के अन्त में है ...

तीन बार आचमन करें-

श्री महालक्ष्म्यै नमः ऐं आत्मा तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा।

 अर्थ- श्री महालक्ष्मी को मेरा नमन । मैं आत्मा तत्व को शुद्ध करता हूं।

श्री महालक्ष्म्यै नमः ह्रीं विद्या तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा |

अर्थ- श्री महालक्ष्मी को मेरा नमन। मैं विद्या तत्व को शुद्ध करता हूं।

श्री महालक्ष्म्यै नमः क्लीं षिव तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा |

अर्थ-श्री महालक्ष्मी को मेरा नमन। मैं शिव तत्व को शुद्ध करता हूं।

संकल्प- हाथ में – चावल लें

दाएं हाथ में चावल,जल  लेकर संकल्प करें-

 हे मां लक्ष्मीमैं समस्त कामनाओं की पूर्ति के लिए, श्री सूक्त साधना कर रहा हूं ,   आपकी कृपा के बिना कहां संभव है। हे माता श्री लक्ष्मीमुझ पर प्रसन्न होकर साधना  सफल होने का आशीर्वाद दें। (हाथ के चावल भूमि पर चढ़ा दें।)

विनियोग 

(दाएं हाथ में जल लें।)

मंत्र: ¬ हिरण्यवर्णामिति पंशदशर्चस्य सूक्तस्यश्री आनन्दकर्दम चिक्लीतइन्दिरा सुता महा ऋशयः।

श्रीरग्निदेवता । आद्यस्ति स्तोनुष्टुभः चतुर्थी वृहती।

पंचमी शष्ठ्यो त्रिष्टुभोततो अष्टावनुष्टुभः अन्त्याः प्रस्तार पंक्तिः। हिरण्यवर्णमिति बीजंताम् आवह जातवेद इति शक्तिःकीर्ति ऋद्धि ददातु में इति कीलकम्।

श्री महालक्ष्मी प्रसाद सिद्धयर्थे जपे विनियोगः। (जल भूमि पर छोड़ दें।)

 अर्थ- इस पंद्रह ऋचाओं वाले श्री सूक्त के कर्दम और चिक्लीत ऋषि हैं अर्थात् प्रथम तंत्र की इंदिरा ऋषि हैआनंद कर्दम और चिक्लीत इंदिरा पंज है और शेश चैदह मंत्रों के द्रष्टा हैं।

प्रथम तीन ऋचाओं का अनुष्टुपचतुर्थ ऋचा का वहतीपंचम व शष्ठ ऋचा का त्रिष्टुप एवं सातवीं से चैदहवीं ऋचा का अनुष्टुप् छंद है। पंद्रह व सोलहवीं ऋचा का प्रसार भक्ति छंद है। श्री और अग्नि देवता हैं।

- हिरण्यवर्णाप्रथम ऋचा बीज और कां सोस्मितां चतुर्थ ऋचा शक्ति है। धर्मअर्थकाम और मोक्ष प्राप्ति के लिए विनियोग है।

 (हाथ जोड़ कर लक्ष्मी जी एवं विष्णु जी का ध्यान करें।)

गुलाबी कमल दल पर बैठी हुईपराग राशि के समान पीतवर्णाहाथों में कमल पुष्प धारण किए हुएमणियों युक्त अलंकारों को धारण किए हुएसमस्त लोकों की जननी श्री महालक्ष्मी की हम वंदना करते हैं। श्री

सूक्त का पाठ ¬

1. हिरण्य वर्णाम् हरिणीम् सुवर्ण रजत स्रजाम्

 चन्द्राम् हिरण्यमयीम् लक्ष्मीम् जात वेदः माम् आवह

अर्थ: जो स्वर्ण सी कांतिमयी है, जो मन की दरिद्रता हरती है, जो स्वर्ण रजत की मालाओं से सुशोभित है, चंद्रमा के सदृश प्रकाशमान तथा प्रसन्न करने युक्ता है, हे जातवेदा अग्निदेव ऐसी देवी लक्ष्मी को मेरे घर बुलाएं।

2. ताम् माम् आवह जात वेदः लक्ष्मीम् मनः अपगामिनीम् यस्याम् हिरण्यम् विन्देयम् गाम् अश्वम् पुरुषान् अहम्

अर्थ: हे जातवेदा अग्निदेव! आप उन जगत् प्रसिद्ध लक्ष्मी जी को मेरे लिए बुलाएं जिनका आवाहन करने पर मैं स्वर्ण, गौ, अश्व और भाई, बांधव, पुत्र, पौत्र आदि को प्राप्त करूं।

3. अश्व पूर्वाम् रथ मध्ये हस्ति नाद प्रमोदिनीम् श्रियम् देवीम् उप ह्वये श्रीः मा देवी जुशताम्

अर्थ: जिस देवी के आगे घोड़े और मध्य में रथ है अथवा जिसके सम्मुख घोड़े रथ में जुते हुए हैं, ऐसे रथ में बैठी हुई हाथियों के निनाद से विश्व को प्रफुल्लित करने युक्ता देदीप्यमान एवं समस्त जनों को आश्रय देने युक्ता लक्ष्मी को मैं अपने सम्मुख आमंत्रित करता हूँ। लक्ष्मी मेरे घर में सर्वदा निवास करें।

4. कां सा अस्मिताम् हिरण्य प्राकाराम् आद्राम् ज्वलन्तीम् तृप्ताम् तर्पयन्तीम् पद्म स्थिताम् पद्म वर्णाम् ताम् इह उप ह्वये श्रियम्

अर्थ: मुखारविंद मंद-मंद मुस्काता है, आपका स्वरूप अवर्णनीय है, आप चारों ओर से स्वर्ण से मंडित और दया से आर्द्र ,हृदया अथवा समुद्र से उत्पन्न आर्द्र शरीर से युक्त देदीप्यमान हैं। मनोरथों को पूर्ण करने युक्ता, कमल के ऊपर विराजित, कमल सदृश गृह में निवासित प्रसिद्ध लक्ष्मी को मैं अपने पास आमंत्रित करता हूँ।

5. चन्द्राम् प्रभासाम् यशसाम् ज्वलन्तीम् श्रियम् लोके देव जुष्टाम् उदाराम् ताम् पद्मिनीम् शरणम् प्रपद्ये अलक्ष्मीः मे नष्यताम् त्वाम् वृणे

अर्थ: चंद्रमा के समान प्रभा युक्ता, अपनी कीर्ति से देदीप्यमान, स्वर्गलोक में इंद्रादि देवों से पूजित ,उदार कमल के मध्य रहने युक्ता, आश्रयदात्री शरण में आता हूं। आपकी कृपा से दरिद्रता नष्ट हो।

6. आदित्य वर्णे तपसः अधि जातः वनस्पतिः तव वृक्षः अथ बिल्वः तस्य फलानि तपसा नुदन्तु या अन्तराः याः च बाह्याः अलक्ष्मीः

अर्थ: हे रवि के समान कांति युक्ता, आपके तेज से ये वन पादप प्रकट हैं। आपके तेज से यह बिना पुष्प के फल देने वाला बिल्व वृक्ष उत्पन्न हुआ। उसी प्रकार आप अपने तेज से बाहृय और आभ्यंतर की दरिद्रता को नष्ट करें।

7. उप एतु माम् देव सखः कीर्तिः च मणिना सह प्रादुर्भूतः अस्मि राष्ट्रे अस्मिन् कीर्तिम् ऋद्धिम् ददातु मे

अर्थ: हे लक्ष्मी! श्री महादेव के सखा मणिभद्र (कुबेर के मित्र) के साथ कीर्ति अर्थात् यश मुझे प्राप्त हो। मैं इस विश्व में उत्पन्न हुआ हूं मुझे कीर्ति-समृद्धि प्रदान करें।

8. क्षुत् पिपासाम् अमलाम् ज्येष्ठाम् लक्ष्मीम् नाशयामि अहम् अभूतिम् समृद्धिम् च सर्वाम् निर्णयत् मे गृहात्

अर्थ: भूख और प्यास की धात्री ज्येष्ठ भगिनी अलक्ष्मी को मैं नष्ट करता हूं। हे लक्ष्मी! आप मेरे घर से अनैश्वर्य, वैभवहीनता तथा धन वृद्धि के विघ्नों को दूर करें।

9. गन्ध द्वाराम् दुराधर्षाम् नित्य पुष्टाम् करीषिणीम् ईश्वरीम् सर्व भूतानाम् ताम् इह उप ह्वये श्रियम्

अर्थ: सुगंधित पुष्प के समर्पण से प्राप्त धन-धान्य से सर्वदा पूर्ण कर समृद्धि देने युक्ता, समस्त प्राणियों की स्वामिनी तथा विश्व प्रसिद्ध लक्ष्मी को मैं अपने घर में सादर बुलाता हूं।

10. मनसः कामम् आकूतिम् वाचः सत्यम् अशीमहि पशूनाम् रूपम् अन्नस्य मयि श्रीः श्रयताम् यशः

अर्थ: हे मां लक्ष्मी! आपके दिव्य प्रभाव से मैं मानसिक इच्छा एवं संकल्प, वाणी की सत्यता, गौ आदि पशुओं से प्राप्त दुग्ध-दध्यादि एवं सभी अन्नों को प्राप्त करूं। मैं लक्ष्मीवान् और कीर्तिवान बनूं।

11. कर्दमेन प्रजा भूता मयि संभव कर्दम श्रियम् वासय मे कुले मातरम् पद्म मालिनीम्

अर्थ: कर्दम नामक ऋषि पुत्र से लक्ष्मी प्रकट हुई हैं। हे कर्दम, तुम मुझमें निवास करो तथा कमल की माला युक्ता लक्ष्मी को मेरे कुल में निवास कराओ।

12. आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे निच देवीं मातरम् श्रियम् वासय मे कुले

अर्थ: जल देवता वरुण स्निग्ध पदार्थों को उत्पन्न करें। लक्ष्मी के आनंद, कर्दम, चिक्लीत और श्रीत ये चार पुत्र हैं। हे चिक्लीत नामक लक्ष्मी पुत्र, तुम मेरे गृह में निवास करो। दिव्य गुणयुक्ता अपनी मा लक्ष्मी को मेरे घर में निवास कराओ।

13. आद्राम् पुष्करिणीम् पुष्टिम् पिङ्गलाम् पद्म मालिनीम् चन्द्राम् हिरण्यमयीम् लक्ष्मीम् जात वेदः माम् आवह
अर्थ: हे अग्निदेव! तुम मेरे घर में दिग्गजों (हाथियों) के शुण्डाग्र से आर्द्र शरीर युक्ता, पुष्टिप्रदा, पीत वर्ण युक्ता, कमल की माला युक्ता, जगत को प्रकाशित करने वाली प्रकाश स्वरूपा लक्ष्मी को बुलाओ।

14. आद्राम् यः करिणीम् यष्टिम् सुवर्णाम् हेम मालिनीम् सूर्याम् हिरण्यमयीम् लक्ष्मीम् जात वेदः माम् आवह
अर्थ: हे अग्निदेव! तुम मेरे घर में सदा दर्यार्द्र मन से अथवा समस्त भुवन जिसकी याचना करते हैं, दुष्टों को दंड देने अथवा यष्टिवत् अवलंबनीया (जिस प्रकार असमर्थ पुरुश को लकड़ी का सहारा चाहिए उसी प्रकार लक्ष्मी जी के सहारे से अशक्त व्यक्ति भी संपन्न हो जाता है), सुंदर वर्ण युक्ता एवं स्वर्ण की माला युक्ता सूर्यरूपा, ऐसी प्रकाश स्वरूपा लक्ष्मी को बुलाओ।

15. ताम् माम् आवह जात वेदः लक्ष्मीम् मनः अपगामिनीम् यस्याम् हिरण्यम् प्रभूतम् गावः दास्यः अश्वान् विन्देयम् पुषान् अहम्
अर्थ: हे अग्निदेव! मेरे यहां उन लक्ष्मी को, जो मुझे छोड़कर अन्यत्र कभी न जाएँ, बुलाओ। लक्ष्मी के द्वारा मैं स्वर्ण, उत्तम ऐश्वर्य, गौ, घोड़े और पुत्र पौत्रादि को प्राप्त करूं।

16. यः शुचिः परयुतः भूत जुहुयात् आज्यम् अन्वहम् सूक्तम् पंच दश अर्चम् च श्री कामः सततम् जपेत्
अर्थ: मनुष्य लक्ष्मी की कामना से पवित्र और सावधान होकर अग्नि में गोघृत का हवन और साथ ही श्री सूक्त की पंद्रह ऋचाओं का प्रतिदिन पाठ करे।

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विवाह में विलंब विवाह के लिए कात्यायनी पूजन । 10 oct - 18 oct विवाह में विलंब - षष्ठी - कात्यायनी पूजन । वैवाहिक सुखद जीवन अथवा विवाह बिलम्ब   या बाधा को समाप्त करने के लिए - दुर्गतिहारणी मां कात्यायनी की शरण लीजिये | प्रतिपदा के दिन कलश स्थापना के समय , संकल्प में अपना नाम गोत्र स्थान बोलने के पश्चात् अपने विवाह की याचना , प्रार्थना कीजिये | वैवाहिक सुखद जीवन अथवा विवाह बिलम्ब   या बाधा को समाप्त करने के लिए प्रति दिन प्रातः सूर्योदय से प्रथम घंटे में या दोपहर ११ . ४० से १२ . ४० बजे के मध्य , कात्ययानी देवी का मन्त्र जाप करिये | १०८बार | उत्तर दिशा में मुँह हो , लाल वस्त्र हो जाप के समय | दीपक मौली या कलावे की वर्तिका हो | वर्तिका उत्तर दिशा की और हो | गाय का शुद्ध घी श्रेष्ठ अथवा तिल ( बाधा नाशक + महुआ ( सौभाग्य ) तैल मिला कर प्रयोग करे मां भागवती की कृपा से पूर्वजन्म जनितआपके दुर्योग एवं   व्यवधान समाप्त हो एवं   आपकी मनोकामना पूरी हो ऐसी शुभ कामना सहित || षष्ठी के दिन विशेष रूप से कात्यायनी के मन्त्र का २८ आहुति / १०८ आहुति हवन कर...

कलश पर नारियल रखने की शास्त्रोक्त विधि क्या है जानिए

हमे श्रद्धा विश्वास समर्पित प्रयास करने के बाद भी वांछित परिणाम नहीं मिलते हैं , क्योकि हिन्दू धर्म श्रेष्ठ कोटी का विज्ञान सम्मत है ।इसकी प्रक्रिया , विधि या तकनीक का पालन अनुसरण परमावश्यक है । नारियल का अधिकाधिक प्रयोग पुजा अर्चना मे होता है।नारियल रखने की विधि सुविधा की दृष्टि से प्रचलित होगई॥ मेरे ज्ञान  मे कलश मे उल्टा सीधा नारियल फसाकर रखने की विधि का प्रमाण अब तक नहीं आया | यदि कोई सुविज्ञ जानकारी रखते हो तो स्वागत है । नारियल को मोटा भाग पूजा करने वाले की ओर होना चाहिए। कलश पर नारियल रखने की प्रमाणिक विधि क्या है ? अधोमुखम शत्रु विवर्धनाए , उर्ध्वस्य वक्त्रं बहुरोग वृद्ध्यै प्राची मुखं वित्त्नाश्नाय , तस्माच्छुभम सम्मुख नारिकेलम अधोमुखम शत्रु विवर्धनाए कलश पर - नारियल का बड़ा हिस्सा नीचे मुख कर रखा जाए ( पतला हिस्सा पूछ वाला कलश के उपरी भाग पर रखा जाए ) तो उसे शत्रुओं की वृद्धि होती है * ( कार्य सफलता में बाधाएं आती है संघर्ष , अपयश , चिंता , हानि , सहज हैशत्रु या विरोधी तन , मन धन सर्व दृष्टि से घातक होते है ) उर्ध्वस्य वक्त्रं बहुरोग वृद्ध्यै कलश ...