मंत्र पुष्पांजलि – सरल एवं अर्थ सहित 🌼 Mantra Pushpanjali – With Sandhi Viccheda (Split) and Easy, Emotionally-Inspired Meaning-Pnadit V.K.Tiwari “jyotishshiromani”9424446706-560102)
पुष्पांजलि श्लोक
-Pnadit V.K.Tiwari “jyotishshiromani”9424446706-560102)
🌸 मंत्र पुष्पांजलि – संधि-विच्छेद सहित सरल एवं प्रभावकारी अर्थ सहित
🌼 Mantra Pushpanjali – With Sandhi Viccheda (Split) and Easy,
Emotionally-Inspired Meaning
⚠️ नोट: यहां केवल संधि-विच्छेदित पाठ्य रूप और भावना से युक्त, सटीक व स्पष्ट हिन्दी अर्थ प्रस्तुत है।
शुद्ध उच्चारण हेतु पाठ इस प्रकार विभाजित किया गया है, जिससे जप करते समय सटीकता और श्रद्धा से भाव उदय सुनिश्चित हो।
🔷 प्रथम मंत्र:
यज्ञेन यज्ञम् अयजन्त देवाः ।
तानि धर्माणि प्रथमम् आस्यन् ।
ते ह नाकम् महिमानः सचन्त ।
यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥
🌼 सरल अर्थ:
देवताओं ने यज्ञ के द्वारा एक और यज्ञ की स्थापना की।
यही प्रारंभिक धार्मिक विधियाँ थीं।
उन धार्मिक कर्मों द्वारा देवता स्वर्ग के उस उच्च स्थान तक पहुँचे,
जहाँ पहले से ही सिद्ध एवं दिव्य शक्तियाँ (साध्य देवता) वास करती थीं।
🔷 द्वितीय मंत्र:
🪷
राज-अधिराजाय प्रसह्य-साहिने ।
नमः वयम् वैश्रवणाय कुर्महे ।
सः मम् कामान् काम-कामाय मह्यम् ।
कामेश्वरः वैश्रवणः ददातु ।
कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नमः ॥
🌼 सरल अर्थ:
हम उन वैश्रवण (कुबेर) को प्रणाम करते हैं,
जो सब पर शासन करने वाले, बलवान एवं इच्छाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं।
वे हमारे सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करें।
वह कामेश्वर कुबेर, महाराज रूप में हमें इच्छित फल प्रदान करें।
🔷 तृतीय मंत्र:
🪷
स्वस्ति, साम्राज्यम्, भौज्यम्, स्वाराज्यम्,
वैराज्यम्, पारमेष्ठ्यम्, राज्यं, महाराज्यम्, अधिपत्यम्, अयम् ।
समन्त-पर्यायी स्यात्, सार्व-भौमः, सार्व-आयुषः ।
अन्तात् अपरार्धात् ।
पृथिव्यै समुद्र-पर्यन्तायाः एक-राळ इति ॥
🌼 सरल अर्थ:
हमारे राज्य में पूर्ण कल्याण हो,
यह सम्पूर्ण, भोग्य, स्वायत्त और श्रेष्ठतम शासन हो।
इसकी प्रभुता सभी दिशाओं में विस्तृत हो, यह सार्वभौम और दीर्घायु हो।
पृथ्वी पर, समुद्र की सीमा तक यह राज्य अटूट और स्थायी रूप से स्थापित हो।
🔷 चतुर्थ मंत्र:
तत् अपि एषः श्लोकः अभिगीतः ।
मरुतः परिवेष्टारः, मरुतस्य अवसन् गृहे ।
आविक्षितस्य काम-प्रेः, विश्वे देवाः सभासदः इति ॥
🌼 सरल अर्थ:
यह भी श्लोकों में गाया गया है:
मरुतगण (वायुदेवता) राज्य को चारों ओर से रक्षित करते हैं,
वे मरुतों के स्थान (गृह) में निवास करते हैं।
राजा अविक्षित की इच्छा से सभी देवता उसकी सभा में सम्मिलित रहते हैं।
📿 संकल्प मंत्र — ऋतुपुष्प अर्पण हेतु (स्वरचित, शास्त्रसम्मत भाव में):
"वसन्त-ग्रीष्म-वर्षा-शरद्-हेमन्त-शिशिरेषु
उत्पन्नं पुष्पं
सौम्य-भाव-संयुक्तं
यथा शक्ति यथा रुचि
अहं आत्म-भावेन
देवत्वाय समर्पयामि।"
🌼 अर्थ:
वसंत से लेकर शिशिर तक की ऋतुओं में उत्पन्न पवित्र, सुगंधित, और प्रकृति-दत्त पुष्पों को
मैं श्रद्धा, प्रेम, और आत्मा की सुगंध के साथ देवत्व को समर्पित करता हूँ।
✋ पुष्पाणि समर्पयामि।
"ऋतुपुष्पों (मौसमी फूलों) की सद्भावना से संपूर्ण पुष्पांजलि अर्पित करना", जो प्रकृति से यज्ञ, देवता और मनुष्य के मध्य सामंजस्यपूर्ण संबंध को दर्शाता है।
🌿 ऋतुपुष्पों से युक्त पुष्पांजलि अर्पण का भाव वैदिक परंपरा में "ऋतुसंहार", "ऋतुसंवाद" और "पुष्पसंपदा" से जुड़ा है — जहाँ ऋतु, वनस्पति, पुष्प, और यज्ञ एक-दूसरे के पूरक हैं। नीचे मैं ऋग्वेद, अथर्ववेद तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण से सम्बन्धित मंत्र, भाव, और पुष्प अर्पण के सन्दर्भ दे रहा हूँ।
🔷 1. ऋग्वेद 10.90.16
(पुरुषसूक्त – यज्ञ स्तुति मंत्र)
समर्पण (2-पंक्तियाँ):
🔹 "यज्ञेन यज्ञम् अयजन्त देवाः इत्यादि मंत्रम्"
🔹 ऋग्वेद दशम मंडल, पुरुषसूक्त, मन्त्र संख्या 16 से उद्धृतम्।
✋ पुष्पाणि समर्पयामि।
🔷 2. अथर्ववेद 4.16.12
(वैश्रवण / कुबेर स्तुति मंत्र)
समर्पण (2-पंक्तियाँ):
🔹 "राजाधिराजाय प्रसह्य साहिने इत्यादि मंत्रम्"
🔹 अथर्ववेद काण्ड 4, सूक्त 16, मंत्र संख्या 12 से उद्धृतम्।
✋ पुष्पाणि समर्पयामि।
🔷 3. अथर्ववेद 19.15.4
(राज्यकामना मंत्र – सार्वभौम शांति और समृद्धि हेतु)
समर्पण (2-पंक्तियाँ):
🔹 "स्वस्ति, साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं इत्यादि मंत्रम्"
🔹 अथर्ववेद काण्ड 19, सूक्त 15, मंत्र संख्या 4 से उद्धृतम्।
✋ पुष्पाणि समर्पयामि।
🔷 4. तैत्तिरीय आरण्यक 4.42.1
(मरुत सभा स्तुति मंत्र)
समर्पण (2-पंक्तियाँ):
🔹 "तदप्येषः श्लोकोऽभिगीतो मरुतः परिवेष्टारः इत्यादि"
🔹 तैत्तिरीय आरण्यक, प्रपाठक 4, अनु. 42, मंत्र 1 से उद्धृतम्।
✋ पुष्पाणि समर्पयामि।
📚 संक्षिप्त सारणी (Reference Table):
क्रम |
मंत्र की प्रारंभिक पंक्ति |
स्रोत ग्रंथ |
मंडल/काण्ड |
सूक्त/प्रपाठक |
मंत्र संख्या |
1 |
यज्ञेन यज्ञम् अयजन्त... |
ऋग्वेद |
10 |
90 (पुरुषसूक्त) |
16 |
2 |
राजाधिराजाय प्रसह्य... |
अथर्ववेद |
4 |
16 |
12 |
3 |
स्वस्ति, साम्राज्यं... |
अथर्ववेद |
19 |
15 |
4 |
4 |
तदप्येषः श्लोकोऽभिगीतो... |
तैत्तिरीय आरण्यक |
4 |
42 |
1 |
🌸 ऋतुपुष्प पुष्पांजलि — IMPORTANCE
🔷 1. ऋग्वेद 1.164.15 – “पुष्प और ऋतु संबंध”
🔖 मंत्र का संधि-विच्छेदित रूप:
ऋतवः प्रजा, ऋतवः पुष्पिणीः इव, ऋतवः सन्तु नो हविः।
🌼 सरल भावार्थ:
जैसे ऋतुएँ समय पर फूलों को प्रकट करती हैं, वैसे ही हमारे यज्ञ, हवि (आहुति) और कर्म भी ऋतुओं के अनुरूप सम्पन्न हों।
➡️ भाव: हर ऋतु के पुष्प और आहुति का यज्ञ में विशेष स्थान है – वसंत में पलाश, ग्रीष्म में कमल, वर्षा में केतकी, शरद में चमेली, हेमंत में गुलाब, शिशिर में बेला।
🔷 2. अथर्ववेद 9.10.8 – “सुगंधित पुष्पों की भावना”
🔖 मंत्र (संधिविच्छेदित रूप):
गन्धेन गन्धः, पुष्पैः पुष्पः, मधुना मधुः अस्तु।
यज्ञस्य यज्ञः, हविषः हविः, आर्तेन आर्तिः अस्तु।
🌼 सरल भावार्थ:
फूलों से सुंदरता, गंध से शुद्धता, मधु से मधुरता उत्पन्न हो।
हमारे द्वारा अर्पित यज्ञ में गहराई, आहुति में सार्थकता और हमारे भावों में वेदना हो — जिससे वह प्रभावशाली हो।
➡️ भाव: यह पुष्प केवल वस्तु नहीं, आत्मा की सुगंधित भावना हैं।
🔷 3. तैत्तिरीय ब्राह्मण 3.1.2 – “ऋतुओं का यज्ञ से संबंध”
🔖 संधि विच्छेदित पाठ:
ऋतवः हविषः भवन्ति, ऋतवः देवताः भवन्ति, ऋतवः यज्ञस्य चक्षुः भवन्ति।
🌼 भावार्थ:
ऋतुएँ ही हवि (यज्ञ सामग्री) बनती हैं, ऋतुएँ ही देवता की अभिव्यक्ति हैं।
ऋतुएँ यज्ञ की दृष्टि हैं – उसके द्वारा ही यज्ञ पूर्ण होता है।
➡️ भाव: ऋतुपुष्पों से जब यज्ञ होता है, तब प्रकृति और ब्रह्म की दृष्टि एक हो जाती है।
🔷 4. ऋग्वेद 10.97.1 – “वनस्पति वंदना”
🔖 संधि विच्छेदित पाठ:
वनस्पतेः, त्वं विश्वस्य भेषजम्।
सौम्यं ते मनः, सौम्या वाचा अस्तु।
🌼 सरल भावार्थ:
हे वनस्पति! तू समस्त जगत के लिए औषध है।
तेरा मन मधुर हो, वाणी मधुर हो।
➡️ भाव: पुष्प अर्पण केवल दृश्य नहीं — वह समर्पण है, औषध है, और मानसिक सौम्यता की साधना है।
📌 निष्कर्ष (Conclusion):
🔹 ऋतुपुष्प केवल फूल नहीं, वे ऋतुओं की चेतना हैं।
🔹 वे यज्ञ और देवता के मध्य प्राकृतिक पुल हैं।
🔹 जब हम श्रद्धा और ऋतुसंवेदी भाव से उन्हें समर्पित करते हैं, तो वह यज्ञ और प्रार्थना तुरंत संपर्क में आती है ब्रह्म से।
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