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पितरों का आशीष मिलता है...

जीवन के समस्त संकट दूर होकर उन्हें पितरों का आशीष  मिलता है...। 

 

कभी भी परिवार के मृत व्यक्तियों का चित्र देवी और देवताओं के साथ न लगाएं या रखें, क्योंकि देवी या देवता पितरों से बढ़कर होते हैं। ऐसा करने से देवदोष होता है।

 

2.पूर्वजों के चित्र ब्रह्म अर्थात मध्य स्थान में कभी नहीं लगाना चाहिए क्योंकि इससे मान-सम्मान की हानि होती है। पश्चिम या दक्षिण में लगाने से संपत्ति की हानि होती है। उत्तर, ईशान और पूर्व दिशा में किस स्थिति में लगाना चाहिए यह नीचे देखें।

 

3.पितरों की तस्वीर घर में सभी जगह नहीं लगाना चाहिए। इसे शुभ नहीं माना जाता है। इससे तनाव बना रहता है।

 

4.यह भी कहा जाता है कि कभी भी मृत लोगों की तस्वीर जीवित लोगों के साथ ना लगाएं इससे नकारात्मकता फैलती है।

 

5.पूर्वजों की तस्वीर को बैठक, शयनकक्ष और रसोई घर में भी नहीं लगाना जाहिए। इससे पूर्वजों का अपमान होता है और घर में तनाव का माहौल बना रहता है।

 

6.पितरों की तस्वीर को कभी भी लटकते हुए या झुलते हुए नहीं लगाना चाहिए। मान्यता है कि इससे व्यक्ति का जीवन भी लटकता और झुलता रहता है।

 

यहां लगाएं तस्वीर:-

1.कुछ वास्तुशास्‍त्रियों के अनुसार यदि घर में पूजा-पाठ का स्थान ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) में है तो पितरों की तस्वीर को पूर्व में लगा सकते हैं। वहीं, यदि पूजा स्थल पूर्व दिशा में हो तो तस्वीर ईशान में लगा सकते हैं। यदि पूजा घर से भिन्न किसी कमरे में पूर्वर्जों की तस्वीर लगा रहे हैं तो उत्तर दिशा की दिवार पर लगा सकते हैं जिससे की पूर्वर्जों का चेहरा दक्षिण की ओर रहेगा।

 

2.हालांकि हम आपको यहां सलाह देना चाहेंगे कि आप अपने पूर्वर्जों की तस्वीर घर की दक्षिण दीवार पर लगाएं। आप इसे घर का दक्षिण पश्‍चिम का कोना मान लीजिए। अगर दक्षिण नहीं मिल पा रहा है तो आप पश्‍चिम के कोने में लगा सकते हैं। मतलब यह कि उनका मुख पूर्व या उत्तर में होना चाहिए।

 

3.घर के किसी एक ही स्थान पर ही पूर्वजों की तस्वीर लगाएं। वह स्थान ऐसा होना चाहिए तो कि दिशादोष से मुक्त हो।

 

4.जब भी तस्वीर लगाएं तो तस्वीर के नीचे किसी लकड़ी के गत्ते का सपोट लगाना चाहिए जिससे तस्वीर लटकी या झुलती हुई नजर नहीं आती है।

 

5.घर के पूर्वजों का चित्र सिर्फ आपके देखने के लिए है किसी दूसरे के लिए नहीं। अत: उसे उस स्थान पर ही लगाएं जहां पर किसी अतिथि की नजर ना पड़े। आप भी उन्हें प्रतिदिन न देखें तो ही अच्छा है। यह सही है कि आपकी भावनाएं उनसे जुड़ी है लेकिन उन्हें प्रतिदिन याद करने से आपके भविष्य पर इसका बुरा असर होगा। मान्यता है कि हर वक्त पूर्वजों को याद करते रहने से मन में उदासी और निराशा की भावना का विकास होता है।

 

 

 

 

 

 

 

पितरों का पितृलोक चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। दूसरी ओर अग्निहोत्र कर्म से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी पितृलोक कहा जाता है। तीसरी ओर कुछ पितर हमारे वरुणदेव का आश्रय लेते हैं और वरुणदेव जल के देवता हैं। अत: पितरों की स्थिति जल में भी बताई गई है।

तीन वृक्ष:-

1.पीपल का वृक्ष : पीपल का वृक्ष बहुत पवित्र है। एक ओर इसमें जहां विष्णु का निवास है वहीं यह वृक्ष रूप में पितृदेव है। पितृ पक्ष में इसकी उपासना करना या इसे लगाना विशेष शुभ होता है।

 

2.बरगद का वृक्ष : बरगद के वृक्ष में साक्षात शिव निवास करते हैं। अगर ऐसा लगता है कि पितरों की मुक्ति नहीं हुई है तो बरगद के नीचे बैठकर शिव जी की पूजा करनी चाहिए।

 

3.बेल का वृक्ष : यदि पितृ पक्ष में शिवजी को अत्यंत प्रिय बेल का वृक्ष लगाया जाय तो अतृप्त आत्मा को शान्ति मिलती है। अमावस्या के दिन शिव जी को बेल पत्र और गंगाजल अर्पित करने से सभी पितरों को मुक्ति मिलती है।...इसके अलावा अशोक, तुलसी, शमी और केल के वृक्ष की भी पूजा करना चाहिए।

 

तीन पक्षी:-

1.कौआ : कौए को अतिथि-आगमन का सूचक और पितरों का आश्रम स्थल माना जाता है। श्राद्ध पक्ष में कौओं का बहुत महत्व माना गया है। इस पक्ष में कौओं को भोजन कराना अर्थात अपने पितरों को भोजन कराना माना गया है। शास्त्रों के अनुसार कोई भी क्षमतावान आत्मा कौए के शरीर में स्थित होकर विचरण कर सकती है।

 

2.हंस : पक्षियों में हंस एक ऐसा पक्षी है जहां देव आत्माएं आश्रय लेती हैं। यह उन आत्माओं का ठिकाना हैं जिन्होंने अपने ‍जीवन में पुण्यकर्म किए हैं और जिन्होंने यम-नियम का पालन किया है। कुछ काल तक हंस योनि में रहकर आत्मा अच्छे समय का इंतजार कर पुन: मनुष्य योनि में लौट आती है या फिर वह देवलोक चली जाती है। हो सकता है कि आपके पितरों ने भी पुण्य कर्म किए हों।

 

3.गरुड़ : भगवान गरुड़ विष्णु के वाहन हैं। भगवान गरुड़ के नाम पर ही गुरुढ़ पुराण है जिसमें श्राद्ध कर्म, स्वर्ग नरक, पितृलोक आदि का उल्लेख मिलता है। पक्षियों में गरुढ़ को बहुत ही पवित्र माना गया है। भगवान राम को मेघनाथ के नागपाश से मुक्ति दिलाने वाले गरूड़ का आश्रय लेते हैं पितर।... इसके अलावा क्रोंच या सारस का नाम भी लिया जाता है।

 

तीन पशु:-

1.कुत्ता : कुत्ते को यम का दूत माना जाता है। कहते हैं कि इसे ईधर माध्यम की वस्तुएं भी नजर आती है। दरअसल कुत्ता एक ऐसा प्राणी है, जो भविष्‍य में होने वाली घटनाओं और ईथर माध्यम (सूक्ष्म जगत) की आत्माओं को देखने की क्षमता रखता है। कुत्ते को हिन्दू देवता भैरव महाराज का सेवक माना जाता है। कुत्ते को भोजन देने से भैरव महाराज प्रसन्न होते हैं और हर तरह के आकस्मिक संकटों से वे भक्त की रक्षा करते हैं। कुत्ते को रोटी देते रहने से पितरों की कृपा बनी रहती है।

 

2.गाय : जिस तरह गया में सभी देवी और देवताओं का निवास है उसी तरह गाय में सभी देवी और देवताओं का निवास बताया गया है। दरअसल मान्यता के अनुसार 84 लाख योनियों का सफर करके आत्मा अंतिम योनि के रूप में गाय बनती है। गाय लाखों योनियों का वह पड़ाव है, जहां आत्मा विश्राम करके आगे की यात्रा शुरू करती है।

 

3.हाथी : हाथी को हिन्दू धर्म में भगवान गणेश का साक्षात रूप माना गया है। यह इंद्र का वाहन भी है। हाथी को पूर्वजों का प्रतीक भी माना गया है। जिस दिन किसी हाथी की मृत्यु हो जाती है उस दिन उसका कोई साथी भोजन नहीं करता है। हाथियों को अपने पूर्वजों की स्मृतियां रहती हैं। अश्विन मास की पूर्णिमा के दिन गजपूजा विधि व्रत रखा जाता है। सुख-समृद्धि की इच्छा रखने वाले उस दिन हाथी की पूजा करते हैं।.. इसके अलावा वराह, बैल और चींटियों का यहां उल्लेख किया जा सकता है। जो चींटी को आटा देते हैं और छोटी-छोटी चिड़ियों को चावल देते हैं, वे वैकुंठ जाते हैं।

 

तीन जलचर जंतु:-

1.मछली : भगवान विष्णु ने एक बार मत्स्य का अवतार लेकर मनुष्य जाती के अस्त्वि को जल प्रलय से बचाया था। जब श्राद्ध पक्ष में चावल के लड्डू बनाए जाते हैं तो उन्हें जल में विसर्जित कर दिया जाता है।

 

2.कछुआ : भगवान विष्णु ने कच्छप का अवतार लेकर ही देव और असुरों के लिए मदरांचल पर्वत को अपनी पीठ पर स्थापित किया था। हिन्दू धर्म में कछुआ बहुत ही पवित्र उभयचर जंतु है जो जल की सभी गतिविधियों को जानता है।

 

3.नाग : भारतीय संस्कृति में नाग की पूजा इसलिए की जाती है, क्योंकि यह एक रहस्यमय जंतु है। यह भी पितरों का प्रतीक माना गया है।... इसके अलावा मगरमच्छ भी माना जाता है।

 

 

 

पितर जगानाथाली में पूजन सामग्री के साथ ही गुड़ और घी भी विशेष रूप से रखें। इसके बाद दरवाजे के दोनों ओर एक-एक बड़ा दीपक रखें। उसमें गाय के गोबर से बने कंडें जलाएं, दोनों दीपों का पूजन करें। पूजन के बाद पितर देवताओं को याद करें और दोनों दीपों में सुलगते हुए कंडों पर गुड़-घी एक साथ मिलाकर पांच बार डाल दें

 

।। पितृ-सूक्तम् ।।

 

उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।

 

असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु॥1

 

अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः।

 

तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥2

 

ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।

 

तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु॥3

 

त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्।

 

तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः॥4

 

त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः।

 

वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः॥5

 

त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ।

 

तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6

 

बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।

 

तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात॥7

 

आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।

 

बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः॥8

 

उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।

 

तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9

 

आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः।

 

अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10

 

अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सु-प्रणीतयः।

 

अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन॥11

 

येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।

 

तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति॥12

 

अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः।

 

ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥13

 

आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे।

 

मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम॥14

 

आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय।

 

पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात॥15

 

॥ ॐ शांति: शांति:शांति:॥> >


पितृ कवच 
का पवित्र पाठ

 

कृणुष्व पाजः प्रसितिम् न पृथ्वीम् याही राजेव अमवान् इभेन।

 

तृष्वीम् अनु प्रसितिम् द्रूणानो अस्ता असि विध्य रक्षसः तपिष्ठैः॥

 

तव भ्रमासऽ आशुया पतन्त्यनु स्पृश धृषता शोशुचानः।

तपूंष्यग्ने जुह्वा पतंगान् सन्दितो विसृज विष्व-गुल्काः॥

 

प्रति स्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायु-र्विशोऽ अस्या अदब्धः।

 

यो ना दूरेऽ अघशंसो योऽ अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत्॥

 

उदग्ने तिष्ठ प्रत्या-तनुष्व न्यमित्रान् ऽओषतात् तिग्महेते।

यो नोऽ अरातिम् समिधान चक्रे नीचा तं धक्ष्यत सं न शुष्कम्॥

 

ऊर्ध्वो भव प्रति विध्याधि अस्मत् आविः कृणुष्व दैव्यान्यग्ने।

 

अव स्थिरा तनुहि यातु-जूनाम् जामिम् अजामिम् प्रमृणीहि शत्रून्।

 

अग्नेष्ट्वा तेजसा सादयामि॥

 

Pitr strot

पितृ गायत्री मंत्र प्रतिदिन १ माला या उससे अधिक जाप करे,,

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ॐ आद्य-भूताय विद्महे सर्व-सेव्याय धीमहि । शिव-शक्ति-स्वरूपेण पितृ-देव प्रचोदयात्

॥ पितृ प्रणाम मंत्र ॥

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। देवताभ्यः पित्रभ्यश्च महा योगिभ्य एव च नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः॥

मार्कंडेय पुराण (९४/३ -१३ )में वर्णित पितृ स्तोत्र पितरों की तस्वीर पर गंध, अक्षत, काले तिल चढ़ाकर या पीपल के वृक्ष में जल अर्पित कर नीचे लिखे पितृस्तोत्र का पाठ करें ।

॥ पुराणोक्त पितृ -स्तोत्र ॥

अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्।

नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।

इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा।

तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि।।

नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा।

द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः।।

देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्।

अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः।।

प्रजापतं कश्यपाय सोमाय वरूणाय च।

योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः।।

नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु।

स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे।।

सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा।

नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्।।

अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्।

अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः।।

ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः।

जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः।।

तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः।

नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः।।

॥ अर्थ: ॥

रूचि बोले - जो सबके द्वारा पूजित, अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।

जो इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नेता हैं, कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूँ।

जो मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक हैं, उन समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी नमस्कार करता हूँ।

नक्षत्रों,ग्रहों,वायु,अग्नि,आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो नेता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

जो देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ।

चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूँ। साथ ही सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।

अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोम मय है।

जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ। उन्हें बारम्बार नमस्कार है। वे स्वधा भोजी पितर मुझ पर प्रसन्न हों

मार्कण्डेयपुराण में महात्मा रूचि द्वारा की गयी पितरों की यह स्तुति पितृस्तोत्रकहलाता है। पितरों की प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है। इस स्तोत्र की बड़ी महिमा है।

पितरो की उपासना का दृष्टांत ॥

रूचि नाम के महात्मा थे यह मार्कण्डेय पुराण मे आया है ज्ञानार्जन हेतु आप के समक्ष है । रूचि महात्मा पितरो के बहुत बड़े भक्त थे ।

एक दिन पितरो ने उनसे कहा

पितर बोले ~ विवाह स्वर्ग का सोपान है । बेटा! अविवाहित जीवन मे क्लेश -पर - क्लेश उठाना पड़ेगा तथा मृत्यु के बाद और दूसरे जन्म मे भी क्लेश ही क्लेश भोगने होगे जबकि गृहस्थी मे रहकर देवताओ, ॠषियो ,पितरो और अतिथियो की सेवा तथा पूजा करके पुण्यमय लोको को प्राप्त कर लेता है ।

रूचि ने कहा ~ परिग्रह मात्र ही दुख और पाप का कारण होता है। परिग्रह मोक्ष का बाधक है ।

तब पितर बोले ~

पूर्व जन्म के कर्म भोग से क्षीण होते है और विद्वान पुरूष आत्मा का प्रक्षालन करते हुए उसकी बंधनो से रक्षा करते हुए मोक्ष की प्राप्ति करते है ।

रूचि ने पूछा ~

पितामहो ! कर्म मार्ग को अविद्या कहा है। पितरो ने बतलाया

इसमे कतई संदेह नही है कि कर्म मार्ग अविद्या नही है। मगर, यह भी सत्य है कि मोक्ष प्राप्ति का मार्ग कर्म ही कारण है। वास्तविकता यह है कि शास्त्र विहित कर्मो के न करने से आत्मा दग्ध रहती है ।

अतः वत्स! तुम विधि-विधान पूर्वक स्त्री को ग्रहण करो जिससे हम लोग भी संतुष्ट हो सके

रूचि ने कहा ~

पितरो! अब मै बूढ़ा हो चला हू ,भला, मुझको कौन अपनी कन्या देगा ?

पितर बोले ~

हमारी बात नही मानोगे तो हम लोगो का पतन हो जायेगा और तुम्हारी भी अधोगति ही होगी ~

महात्मा रूचि पितरो के सुने वचन से अत्यंत ब्याकुल होकर ब्रह्मा जी की अराधना शुरू कर दिया ~ ब्रह्माजी ने आर्शीवाद दिया कि विप्रवर! तुम प्रजापति होओगे मगर, तुम पितृपूजा करो वे ही प्रसन्न होकर तुम्हे पत्नी और पुत्र दोनो ही देगे भला ! पितर संतुष्ट हो जाए तो क्या नही दे सकते ?

तब महात्मा रूचि ने नदी के तट पर पितरो का तर्पण किया और पितरो की उपासना करने लगे

पितर प्रसन्न होकर मुनिश्रेष्ठ से कहा~

वत्स! इसी समय पत्नी प्राप्त होगी और "रौच्य " नाम का संतान तुम्हे प्राप्त होगा और तुम्हारे द्वारा यह रचित स्त्रोत जिसको पढ़कर हम लोगो को संतुष्ट किया है। यह स्त्रोत श्राद्ध के समय जो इंसान पढ़ेगा पितर वहा अवश्य ही उपस्थित होकर अपने कुटम्बजनो को आर्शीवाद अवश्य ही देगे पितर अन्तर्ध्यान हो गये और पर्म्लोचा नामक अप्सरा अपनी कन्या "मालिनी " के साथ प्रकट होकर महात्मा रूचि का विवाह विधि-विधान से किया उसके ही गर्भ से महापराकर्मी,महाविद्यवान एवं धर्मात्मा पुत्र "रौच्य मनु " ने जन्म लिया रौच्य नामक मनु 13 वे मन्वन्तर के अधिपति हुए है ।

पितरो को नमन ~~

श्री राज राजेश्वरी तर्पण स्तोत्रम् ॥

कल्याणायुत पूर्णबिम्बवदनां पूर्णेश्वरा नन्दिनीं

पूर्णापूर्ण परापरेशमहिषीं पूर्णामृतास्वादिनीम्।

सम्पूर्णां परमोत्तमामृतकलां विध्यावतीं भारतीं

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥१॥

एकानेकमनेककार्य विविधां कार्यैकचिद्रूपिणीं

चैतन्यात्मक एकचक्ररचितां चक्राण्क एकाकिनीम्।

भावाभाव विवर्द्धिनीं भयहरां सद्भक्तिचिन्तामणीं

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥२॥

एशाधीश्वर योगवृन्दविदितां सानन्द भूतां परां

पश्यन्तीं तनुमध्यमां विलसितीं श्रीविष्णुसद्रूपिणीम्।

आत्मानात्मविचारिणीं त्रिवरणां विध्यात्रिबीजत्रयीं

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥ ३॥

लक्ष्मीलक्ष निरीक्षणां निरुपमां रुद्राक्षमालाधरां

साक्षात्करण दक्षवंशकलितां दीर्घाक्षदीर्घेश्वरीम्।

भद्रां भद्र वरप्रदां भगवतीं भद्रेश्वरीं मुद्रिणीं

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥ ४॥

ह्रिंबीजान्वितनाद बिन्दु भरितां ॐकारनादात्मिकां

ब्रह्मानन्द घनोदरीं गुणवतीं ज्ञानेश्वरीं ज्ञानदाम्।

इच्चाज्ञानक्रियावतीं जितवलीम् गन्धर्वसंसेवितां

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥ ५॥

हर्षोन्मत्त सुवर्ण पात्र भरितां पानोन्नताघूर्णितां

हुङ्कारप्रिय शब्द ब्रह्मनिरतां सारखतोल्लासिनीम्।

सारासार विचार वादचतुरां वर्णाश्रमाकारिणीं

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥ ६॥

सर्वज्ञानकलावतीं सकरुणां स्वंनादिनीं मादिनीं

सर्वान्तर्गतशालिनीं शिवतनुं सन्दीपिनीं दीपिनीं।

संयोग प्रियरूपिणीं प्रियवतीं प्रीतिप्रतापोन्नतां

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥ ७॥

कर्माकर्मविवर्जितां कुलवतीं कर्मप्रदां कौलिनीं

कारुण्यां तनुबुद्धिकर्मविरतां सिन्दुप्रियां शालिनीम्।

पञ्चब्रह्मसनातनान्तरगतां ज्ञेयाङ्गयोगान्वितां

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥ ८॥

हस्ते कुम्बनिभां पयोक्तभरितां पीनोन्नतां नौमितां

हीराढ्याभरणां सुरेन्द्रवनितां शृङ्गारपीठालयाम्।

योग्याकारिणीमुद्रितकरां नित्यामवर्णात्मिकां

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥ ९॥

लक्ष्मीलक्षण पूर्ण भक्तिवरदां लीलाविनोदस्थितां

लक्ष्म्या रञ्जितपादपद्मयुगलां ब्रह्मेन्द्रसंसेविताम्।

लोकालोकित लोककामजननीं लोकप्रियाञ्कस्थितां

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥ १०॥

ह्रींकारिं सुतरां करप्रियतनुं श्रीयोगपीठेश्वरीं

माङ्गल्यायतपञ्कजाभनयनां माङ्गल्य सिद्धिप्रदाम्।

तारुण्यान्तपसार्चितान्तरुणिकां तन्त्र्यर्चितां नर्तिनीं

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥ ११॥

सर्वेशाङ्गविहारिणीं सकरुणां सर्वेश्वरीं सर्वगां

सत्यां सर्वमयीं सहस्रदलनां सप्तार्णवोपस्थिताम्।

संसर्गादिविवर्जिनीं शुभकरीं बालार्ककोटिप्रभां

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥ १२॥

कादिक्षान्त सुवर्ण बिन्दुसुतनुं स्वर्णादि सिंहासिनीं

नानावर्ण विचित्र चित्रचरितां चातुर्य चिन्तामणिम्।

चित्तनन्द विधायिनीं सुविपुलां रूढत्रयां शेषिकां

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥ १३॥

लक्ष्मीशादि विधीन्द्रचन्द्र मुकुटां षष्ठाङ्ग पीटार्चितां

सूर्येन्द्राग्निमयैकपीटनिलयां त्रिस्थां त्रिकोणेश्वरीं

गोश्रीगुर्विणीगर्वितां गगनगां गङ्गागणेशप्रियां

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥ १४॥

ह्रींकूटत्रयरूपिणीं समयगां संसारिणीं हंसिनीं

वामाचारपरायणां सुकुलजां बीजावतीं मुद्रिकाम्।

कामाक्षीं करुणार्द्र चित्र चरितां श्रीमन्त्र मूर्त्यात्मिकां

श्रीचक्रप्रिय बिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥ १५॥

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नमो नमो नमस्तेस्तु प्रसीदन्तु स्वधाभुज ।।

बन्दी-मोचन स्तोत्र ॥

हा नाथ ! हा नरा वरोत्तम ! हा दयालो!

सीता पतेः रुचिर्कुन्तल शोभि वक्त्रम्।

भक्तार्ति दाहक मनोहर रुप धारिन् ।

मां बन्धनात् सपदि मोचय माविलम्बम्।।

सम्मोचितोऽस्तु भरताग्रज-पुंगवाढ्याः।

देवाश्च दानव-कुलाग्नि-सुदह्यमाना ।।

तत्सुन्दरी-शिरसि संस्थित-केश-बन्धः।

सम्मोचितोऽस्तु करुणालय मां पादम्।।

अत्राह महा-सुरथेन सु-विगाढ़ पाशः।

बद्धोऽस्मि मां पुरुषाशु देव! ॥

नो मोचयिष्यसि यदि स्मरणर्तिरेक ।

त्वं सर्व-देव-परिपूजित-पाद-पद्मम्।।

लोको भवन्तमिदमुल्लसितो हसिष्ये।

तस्मादविलम्बो हि मोचय मोचयाशु ।।

इति श्रुत्वा जगन्नाथो, रघुवीरः कृपा-निधिः।

भक्तं मोचयितुं गतः, पुष्पकेनाशु-वेगिना।।

इस स्तोत्र का नित्य कम से कम ११ पाठ करने से सब प्रकार का कष्ट दूर होता है एवं सभी प्रकार के बन्धन से मुक्ति मिलती है।

पितृस्तोत्र आदि का पाठ : प्रत्येक दिन पितरों की स्तुति में निम्नलिखित में से किसी एक स्तोत्र का पाठ करना चाहिए : (अ) रुचिस्तव (अर्चितानाममूर्त्तानां पितॄणां …) (ब) पितृशान्ति स्तोत्र (नमो वः पितर उर्जे…) (स) पितृसूक्त (उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमा…) (द) पितृसूक्त (अपेतो यन्तु पणयोऽसुम्ना…) 2. प्रत्येक दिन एवं श्राद्ध के दिन पितृगायत्री का जप करना चाहिए : (अ) ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥ (ब) ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत ॥ 3. कथा श्रवण एवं स्तोत्रादि का पाठ : पितृदोष शान्ति के लिए निम्नलिखित का श्रवण करना चाहिए: (अ) श्रीमद्भागवत महापुराण (ब) श्रीमद्भगवद् गीता (स) वाल्मीकि रामायण (द) सत्यनारायण व्रत कथा (य) हरिवंशपुराण उपर्युक्त पाँचों का आयोजन यदि घर पर हो सके, तो अधिक अच्छा है । (र) महाभारत (ल) गरुडपुराण पितृदोष शान्ति के लिए निम्नलिखित स्तोत्र आदि का भी पाठ करना चाहिए : (अ) विष्णुसहस्रनाम (ब) गजेन्द्र मोक्ष (स) रुद्राष्टाध्यायी (द) पुरुष सूक्त (य) ब्रह्म सूक्त (र) विष्णु सूक्त (ल) रुद्र सूक्त (व) यम सूक्त (श) प्रेत सूक् अन्तिम पाँच का पाठ एक साथ होता है । इसके अतिरिक्त मन्दिर या घर में भजन-कीर्तन के साथ रात्रि जागरण करने से भी पितृदोष शान्त होता है । 4. विधिवत् श्राद्ध : श्राद्ध पितृदोष शान्ति का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावी उपाय है । सभी पूर्वजों की और विशेष रूप से सपिण्ड पितरों की क्षयाह एवं महालय पक्ष की तिथि में श्राद्ध करना चाहिए । महालय पक्ष की प्रत्येक तिथि को भी ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों का श्राद्ध करना चाहिए तथा अन्तिम दिन अर्थात् अमावस्या को सर्वपितृ श्राद्ध करना चाहिए । इसके अतिरिक्त प्रत्येक मास की अमावस्या को एवं अष्टका, अन्वष्टका इत्यादि श्राद्ध भी सम्पन्न किए जाने चाहिए । 5. त्रिपिण्डी आदि श्राद्ध करना : पितृदोष की शान्ति के लिए विधिवत् त्रिपिण्डी आदि श्राद्ध करवा लेना चाहिए । इससे राहत मिलती है । 6. ग्रहों से सम्बन्धित उपाय : जिन ग्रहों के कारण पितृदोष बन रहा है, उनके मन्त्रों का जप एवं स्तोत्रों का पाठ करना चाहिए तथा व्रत-दान आदि कार्य भी सम्पन्न करने चाहिए । नवग्रह रुद्राक्ष माला धारण करने से भी राहत मिलती है । 7. मृतक के मोह को समाप्त करने के प्रयास करना : मोहग्रस्त पितर की एक ओर तो गति नहीं होती है, वहीं दूसरी ओर वह पितृदोष उत्पन्न करता है । सामान्यतः मृतक का मोह उसके उत्तरदायित्वों का पूरा न होना होता है । प्रयास करके मृतक के शेष रहे उत्तरदायित्वों को पूर्ण करें । (अ) मृतक की अन्तिम इच्छा पूर्ण करना । (ब) मृतक के जीवित जीवनसाथी की देखभाल अच्छी एवं आदरसहित करना । (स) कुल परम्परा का पालन करना और पितर को जिन आचरणों से कष्ट होने की सम्भावना है, उनको न करना । 8. अन्य उपाय : (i) प्रतिदिन पितरों का स्मरण एवं पूजन किया जाना चाहिए । (ii) प्रतिदिन एवं विशेष अवसरों पर कुलदेवता आदि का पूजन करना चाहिए । (iii) सपिण्ड पितरों से पूर्व के पूर्वजों का गया श्राद्ध अवश्य करना चाहिए । (iv) तीर्थादि पर पितरों के निमित्त श्राद्ध-तर्पणादि अवश्य करना चाहिए । (v) सन्तान, विवाह आदि कार्यों में वृद्धि श्राद्ध सम्पन्न किया जाना चाहिए । (vi) घर की दक्षिण दिशा में ऊँचे एवं पवित्र स्थान पर पितरों के निमित्त प्रत्येक दिन सायंकाल चौमुँहा दीपक जलाना चाहिए । साथ ही, एक जलपात्र भी वहाँ रखना चाहिए । (vii) दीपावली आदि अवसरों पर यमदीपदान आदि करना । (viii) दान : श्राद्ध एवं अन्य अवसरों पर योग्य ब्राह्मण को अन्न, वस्त्र, आभूषण, शय्या, देवमूर्ति, गाय, धन आदि का दान करना चाहिए । (ix) होम : वर्ष में एक बार घर में हवन का आयोजन करना चाहिए और उसमें देवताओं के साथ-साथ पितरों की भी आहुति लगनी चाहिए । (x) रुद्राभिषेक : वर्ष में एक बार रुद्राभिषेक करवाएँ । (xii) व्रतादि : ऋषिपंचमी, पूर्णिमा, चान्द्रायण आदि व्रत करने चाहिए । (xiii) पीपल पूजन : पीपल के वृक्ष का पूजन करना चाहिए । वहाँ जल चढ़ाना चाहिए और उसकी प्रदक्षिणा करनी चाहिए । वर्ष में कम से एक पीपल का वृक्ष भी लगाना चाहिए । (xiv) सार्वजनिक हित के कार्य : प्याऊ, कुआँ, तालाब, मन्दिर आदि का निर्माण करवाना चाहिए । अस्पताल, गौशाला, विद्यालय आदि को दान करना चाहिए । (xv) ब्राह्मण एवं गरीबों को भोजन करवाना चाहिए । (xvi) माता-पिता, साधु-सन्त, गुरुजन, रोगी, वृद्ध इत्यादि की सेवा-सुश्रूषा करनी चाहिए । (xvii) सदाचरण का पालन करना चाहिए ।  



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