कुछ श्लोक में परन्तु संपूर्ण पाठ का फल – दुर्गा शप्तशती ,गीता,गणेश पुराण,रामायण, भागवत,महाभारत ,विष्णु सहस्त्र,नाम आदि |
कुछ श्लोक में परन्तु संपूर्ण पाठ का
फल – दुर्गा शप्तशती ,गीता,गणेश पुराण,रामायण,
भागवत,महाभारत ,विष्णु
सहस्त्र,नाम आदि |
आज हम इतना व्यस्त है की वो
सम्पूर्ण भगवत,दुर्गा सप्तशती ,भगवत,महाभारत रामायण ग्रन्थ का संपूर्ण पाठ
का पाठ नहीं कर सकते है.
इस एक श्लोकी ,चतु
श्लोकी पाठ से जीवन में परमानन्द , अध्यात्मिक एवं लोकिक सुख सहज ही सुलभ हो
सकते हैं |इन श्लोको में संदर्भित ग्रंथो का सार है.
(
गणेश पुराण, दुर्गासप्तशती ,विष्णु
सहस्त्र, भागवत ,चतुःश्लोकी भागवत, रामायण
एकश्लोकी सुन्दरकाण्ड ,-महाभारत ,सप्त श्लोकी गीता)
नमो स्तवन अनंताय सहस्त्र मूर्तये, सहस्त्रपादाक्षि
शिरोरु बाहवे। -
सहस्त्र नाम्ने पुरुषाय शाश्वते, सहस्त्रकोटि
युग धारिणे नम:।।"
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने|
3-
एक श्लोक-महाभारत –श्रीकृष्ण कृपा एवं
विजय
आदौ देवकी देवी गर्भ जननं गोपी गृहे
वर्द्धनम् ।
माया पूतन जीवि ताप हरणम्
गोवर्धनोद्धरणम् ।।
कंसच्छेदन कौरवादि हननं कुंती तनुजावनम्
।
एतद् भागवतम् पुराण कथनम्
श्रीकृष्णलीलामृतम् ।।
भावार्थ - राजा कंस के बंदीगृह मथुरा
में ,भगवान विष्णु भगवान ने ,कंस
की बहिन , देवकी के गर्भ से श्रीकृष्ण के रुप में अवतार
लिया। पिता वसुदेव ने उन्हें गोकुल पहुंचाया। कंस ने ,श्रीकृष्ण
को मारने के लिए राक्षसी को भेजा। भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना का अंत कर दिया। भगवान
श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी ऊं गली पर उठाकर गोकुलवासियों की रक्षा की।
भगवान श्रीकृष्ण ने राजा कंस का वध कर दिया। कुरुक्षेत्र के युद्ध में कौरव
वंश का नाश एवं पाण्डवों की रक्षा की। श्रीमद्भागवत गीता के माध्यम से कर्म
का संदेश दिया। अंत में प्रभास क्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण का लीला संवरण हुआ।
आपत्ति एवं विपत्ति मुक्ति हेतु
फलप्रद-
एक श्लोक दुर्गासप्तशती
" या अंबा मधु कैटभ प्रमथिनी,या
माहिषोन्मूलिनी,
या धूम्रेक्षण चन्ड मुंड मथिनी,या
रक्त बीजाशिनी,
शक्तिः शुंभ निशुंभ दैत्य दलिनी,या
सिद्धलक्ष्मी: परा,
सादुर्गा नवकोटि विश्व सहिता,माम्
पातु विश्वेश्वरी। "
6-एक श्लोकी भागवत –भगवान् श्री कृष्ण
कृपा हेतु -
(एक ही मन्त्र से संपूर्ण भगवत
पढने का फल प्राप्त होता है -
मंत्र
आदौ देवकी देव गर्भ जननं, गोपी
गृहे वद्रर्धनम्।
माया पूज निकासु ताप हरणं
गौवद्र्धनोधरणम्।।
कंसच्छेदनं कौरव आदिहननं, कुंती
सुपाजालनम्।
एतद् श्रीमद्भागवतम् पुराण कथितं
श्रीकृष्ण लीलामृतम्।।
अच्युतं केशवं रामनारायणं
कृष्ण:दामोदरं वासुदेवं हरे।
श्रीधरं माधवं गोपिका वल्लभं जानकी
नायकं रामचन्द्रं भजे।।
7-
आदौ राम तपोवनादि गमनं हत्वा मृगं
कांचनं
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव
संभाषणम् ।
वाली निर्दलनं समुद्र तरणं लंकापुरी
दाहनं
पश्चाद्रावण कुंभकर्ण हननम एतद्धि
रामायणम् ॥
Aadau RamTapowanadigmanan Hatwa Mrigm
Kanchann,
WaidehiHaranan JatayuMaranan SugrivSambhashanam.
WaliNirdalanan SamudraTaranan
LankaPuriDahanan,
PaschadrawanKumbhKarnHananMetddhi
Ramayanam.
निशाम्य राम दयिताम् भङ्क्त्वा वनं
राक्षसान् ।
अक्षादीन् विनिहत्य वीक्ष्य दशकम्
दग्ध्वा पुरीं तां पुनः तीर्णाब्धिः
कपिभिर्युतो यमनमत् तम् रामचन्द्रम्भजे
॥
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत
सोऽस्म्यहम् ॥१॥
श्री भगवान कहते
हैं – सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत्,
असत् या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ भी
नहीं था। सृष्टि न रहने पर (प्रलय काल में) भी मैं ही रहता हूँ। यह सब सृष्टि रूप
भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह
भी मै ही हूँ॥१॥
तद्विद्यादात्मनो मायां
यथाऽऽभासो यथा तमः ॥२॥
जो मुझ मूल तत्त्व के अतिरिक्त (सत्य
सा) प्रतीत होता(दिखाई देता) है परन्तु आत्मा में प्रतीत नहीं होता (दिखाई नहीं
देता), उस अज्ञान को आत्मा की माया समझो जो प्रतिबिम्ब
या अंधकार की भांति मिथ्या है॥२॥
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न
तेष्वहम्॥३॥
जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु
और आकाश) संसार के छोटे–बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें
प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी सबमें व्याप्त होने पर भी सबसे
पृथक् हूँ।॥३॥
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात्
सर्वत्र सर्वदा॥४॥
11
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् माम अनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां
गतिम्।(१)
स्थाने ह्रषीकेश तव
प्रकीर्त्या , जगत् प्रहष्य अत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति , सर्वे
नमस्यन्ति च सिद्ध संघाः।(२)
सर्वतः पाणि पादं तत्सर्वतो अक्षि शिरो
मुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वम आवृत्य
तिष्ठति।(३)
कवि पुराणम अनुशासिता रमणोरणीयां सम
अनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारम अचिन्त्य रुपम् आदित्य
वर्णं तमसः परस्तात्।(४)
ऊर्ध्व मूल मधःशाखम अश्वत्थं प्राहुर
अव्ययं।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स
वेदवित्।(५)
सर्वस्य चाहं ह्रदि संनिविष्ठो।
मत्तः स्मृति र्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरह मेव वेद्यो
।
वेदान्त कृद्धेदवि देव चाहम्।(६)
मन्मना भव मद् भक्तो मद्याजी मां
नमस्कुरु ।
मामेवैद्यप्ति युक्तैव आमात्मानं
मत्परायणाः।(७)
इति सप्त श्लोकी गीता सम्पूर्णः
श्रीविघ्नेश पुराण सार मुदितं व्यासाय
धात्रा पुरात् ।
तत्खण्डं प्रथमं महागणपतेश्च
उपासनाख्यं यथा ।
संहर्तुं त्रिपुरं शिवेन गणपस्य आदौ
कृतं पूजनम् ।
कर्तुं सृष्टिमिमां स्तुतः स विधिना
व्यासेन बुध्याप्तये ॥ १ ॥
संकष्ट्याश्च विनायकस्य च भवो स्थानस्य
तीर्थस्य वै ।
दूर्वाणां महिमेति भक्ति चरितं
तत्पार्थिव अस्यार्चनम् ।
तेभ्यो यैर्यदभि अप्सितं गणपतिः
तत्तत्प्रतुष्टो ददौ ।
ताः सर्वा न समर्थ एव कथितुं ब्रह्मा
कुतो मानवः ॥ २ ॥
क्रीडा काण्डमथो वदेत्कृत युगे
श्वेतच्छविः काश्यपः ।
सिंह्वाङ्कः सविनायको दशभुजो भूत्वाथ
काशीं ययौ ।
हत्वा तत्र नरान्तकं तदनुजं देवान्तकं
दानवम् ।
त्रेतायां शिव नन्दनो दशभुजो जातो
मयूरध्वजः ॥ ३ ॥
हत्वा तं कमलासुरं च सगणं सिन्धु
महादैत्यपम् ।
पश्चात् सिद्धिमती सुते कनलजस्तस्मै च
ज्ञानं ददौ ।
द्वापारे तु गजाननो युग भुजो गौरी सुतः
सिन्दुरम् ।
संमर्द्य स्व करेण तं निज मुखे
चाखुध्वजो लिप्तवान् ॥ ४ ॥
गीता या उपदेश एव हि कृतो राज्ञे
वरेण्याय वै ।
तुष्टायाथ च धूम्रकेतुरभिधो विप्रः
सधर्मर्धिकत् ।
अश्वांको द्विभुजो सितो गणपतिम
म्लेच्छान्तकः स्वर्णदः ।
क्रीडा काण्डम इदं गणस्य हरिणा
प्रोक्तं विधात्रे पुरा ॥ ५ ॥
एत श्लोक सुपंचकं प्रतिदिनं भक्त्या
पठेद्यः पुमान ।
निर्वाणं परमं व्रजेन्स सकलान्
भुक्त्वा सुभोगानपि ॥ ६ ॥
॥ इति पंचश्लोकि गणेशपुराण
संपूर्णम् ॥
'ॐ
नमः शिवाय शुभं शुभं कुरू कुरू शिवाय नमः ॐ'
“ॐ गनपत वीर, भूखे
मसान, जो फल माँगूँ, सो फल आन।
गनपत देखे, गनपत
के छत्र से बादशाह डरे।
राजा के मुख से प्रजा डरे, हाथा
चढ़े सिन्दूर।
औलिया गौरी का पूत गनेश, गुग्गुल
की धरुँ ढेरी,
रिद्धि-सिद्धि गनपत धनेरी। जय
गिरनार-पति।
ॐ नमो स्वाहा।”
कृप: परशुरामश्च सप्त एतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयम
अथाष्टमम्।
जीवेद्वर्ष शतं सोपि सर्वव्याधि विवर्जित।।
-अश्वथामा, दैत्यराज
बलि, वेद व्यास,
हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम
और मार्कण्डेय ऋषि का स्मरण प्रातः करने से रोग नाश ,निरोगता
और 100 वर्ष की आयु प्राप्त होती है।
“ॐ ह्रीं श्रीं चामुण्डा सिंह-वाहिनी।
बीस-हस्ती भगवती, रत्न-मण्डित
सोनन की माल।
उत्तर-पथ में आप बैठी, हाथ
सिद्ध वाचा ऋद्धि-सिद्धि।
धन-धान्य देहि देहि, कुरु
कुरु स्वाहा।”
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