श्राद्ध :त्रेता(द्वापर:श्राद्ध - 864000वर्ष+ :त्रेता 1296,000वर्ष=20,60,000 पूर्व ) में भी प्रचलित था |
श्राद्ध :त्रेता(द्वापर:श्राद्ध - 864000वर्ष+ :त्रेता 1296,000वर्ष=20,60,000
पूर्व ) में भी प्रचलित था |
(नारद
पुराण) भगवान श्रीराम जब पितृ तीर्थ गया जी के रुद्र पद में गए थे | भगवान
श्रीराम जब पितृ ,मनु /कालान्तर दशरथ जी को
पिंडदान करने लगे । गोलोक वासी महाराजा दशरथ स्वर्ग से उपस्थित हुए “भगवान श्रीराम
से हाथ फैलाए हुए कहा “मेरे हाथो में ये पिंड दो “|
श्री रामने अनसुना करते हुए हाथो में पिंडदान
नहीं किया| दशरथ रोकते रहे परन्तु श्री राम ने उस पिंड को
रुद्रपद पर ही रख दिया।
महा राजा दशरथ जी ने कहा ‘है पुत्र तुम्हारे इस
कार्य से मोह्वाशत पितृलोक से अब मेरा उद्धार हो गया एवं मुझे रुद्रलोक की
प्राप्ति हुई है। मैं तुमको आशीर्वाद देताहूँ की-तुम अनंत काल तक राज्य , प्रजा
का पालन करोगे तथा जीवन काल में यज्ञों का अनुष्ठान करने से विष्णु लोक को में
रहोगे । अयोध्या के सभी नागरिक, पशु पक्षी विष्णु लोक जाएंगे।
देवव्रत भीष्म से उनके पिता शांतनु ने पिंड माँगा -
-सर्वप्रथम श्राद्ध कर्म ज्ञान किसे हुआ ?(महाभारत-अनुशाशन
पर्व)
ऋषि अत्रि के नाम का उल्लेख मिलता है |
-किसके द्वारा सर्व प्रथम “पितृ तृप्ति यज्ञ -
कर्म” किया गया ?
ऋषि “निमिष” को पितृ कर्म-जल,तिल,जौ
अर्पण(तर्पण )एवं पितरों की तृप्ति के लिए पिंड दान का ज्ञान ,महर्षि
अत्रि द्वारा प्राप्त हुआ |अर्थात ऋषि “निमिष”द्वारा ही सर्व
प्रथम पितृ तृप्ति यज्ञ - कर्म किया गया |जो कालांतर में ऋषियों में संचारित
होते हुए जन समुदाय में प्रसारित हुआ |
-“पितृ तृप्ति यज्ञ – कर्म” में अग्नि का
महत्व ?
-पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण एवं भोजन पकवान
की अधिकता से पितर वर्ग अजीर्ण से पीड़ित हो उठा |अग्नि देव ने
अजीर्ण से सुरक्षा के लिए उनका साथ देने का निर्णय किया गया ,अर्थात
अग्नि को सर्व प्रथम पक्वान्न अर्पित कर पितृ की संतुष्टि की जाना प्रारंभ हुई |
-श्राद्ध कर्म में तीन पिंड आवश्यक क्यों ?
महाभारत काल से प्रचलित तीन पिंड व्यवस्था है |
प्रथम –जल को अर्पित- चंद्रदेव संतुष्ट होकर
देव एवं पितरों को संतुष्ट करते है |
-द्वितीया पिंड –पत्नी को खिलाना चाहिए |इससे
पितृ सन्तुष होकर सुपुत्र संतान वशज की कामना पूर्ण करते है |
-तृतीया पिंड- अग्नि को समर्पित किया जावे
जिससे अग्नि देव आपत्ति विपत्ति निराकृत कर जीवन सुखी बनाये |
-श्राद्ध :तर्पण कर्म की पूर्णता क्या भीष्म तर्पण के बिना होती है ?
- तर्पण करता से जौ-अक्षत के साथ इस युग पुरुष
को उनके अंश स्वरूप उनकी तर्पण की अंजलि हमेशा अर्पण करता है। उल्लेखनीय यह भी कि
तर्पण की भीष्माजंलि के बगैर तर्पण कार्य नहीं इसलिए श्राद्ध कर्म भी अपूर्ण |
तर्पण मन्त्र - 'वैयाघ्र पद गोत्राय सांग्कृत्य प्रवराय
च-अपुत्राय ददाम्येतद् जलं भीष्माय वर्मणे' |
निसंतान भीष्म जी का श्राद्ध कौन करे?
द्वापर का अजेय योद्धा देवव्रत बनाम भीष्म चूंकि अविवाहित थे, इसलिए नि:संतान गोलोकवासी
(माघ माह - शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि ,जो प्रसिद्द भीष्म अष्टमीके नाम से हुई ) हुए |
तत्कालीन उद्भट मनीषियों ने इस संदर्भ में
व्यस्था सृजित की कि, सभी भीष्म के गोत्र
वाले एवं जो भीष्म के कुल गोत्र के नहीं भी हो अपने पूर्वजों के साथ देवव्रत के
नाम से जौ,तिल एवं जल की अंजलि (तर्पण )करेंगे |
मारकंडेय ने भी पिता के या पित्र प्रसाद से ही दीर्घायु
प्राप्त की थी |मनुष्य योनि में किए हुए कर्मों का फल मृत्यु के उपरांत ही मिलता
है।
गयाशिर में पितरों का आवाहन करते हुए पिंडदान
करने लगे श्राद्ध के समय जब भीष्म अपने पिता को पिंड देने लगे तब उन तब उनके पिता
का हाथ भूमि के बाहर आया |शांतनु
ने (पिता-त्त्मा) पिंड मेरे हाथों पर रख दो |भीष्म ने “शास्त्रीय कल्पसूत्र” नियम के आधार पर, पिता की बात को अनसुना करते हुए उनके
हाथ में न रखते हुए ,पिंड
को नियमानुसार उचित स्थान पर ही रख दिया |
-इस
धर्म नीति के परिपालन से ,भीष्म
के निर्णय एवं कार्य से उनके पितर शांतनु
तृप्त हुए |तृप्त
पिता की आत्मा ने भीष्म को आशीर्वाद देते हुए कहा कि “जब तक तुम जीवित
रहना चाहोगे तब तक मृत्यु तुम पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाएगी |तुम्हारी आज्ञा होने पर ही मृत्यु
तुम्हारा वरण कर सकेगी\”तुम
त्रिकालदर्शी होगे और जीवन के अंत में तुमको भगवान विष्णु लोक मिलेगा । जो पितर
पक्ष में तर्पण करेगा उसे पितृ दोष से मुक्ति मिलेगी ।“ऐसा कहकर शान्तनु वहां से
तृप्त होकर चले गए।तुमको
-
(संदर्भ ग्रंथ हरिवंश पुराण या महाभारत अखिलभाग 16 अध्याय)
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