सोमभद्र – श्रोमणा कथा
"श्रोमणा – नयन पथ वैराग्या"
यह कथा जैन आगमों और पुरानी श्रवकाचार कथाओं में है,
🌺 सोमभद्र–श्रोमणा कथा-
मोह-माया बनाम वैराग्य का उद्घोष"
दार्शनिक रूप से गूढ़ जैन कथाचित्र-दरबार (नाट्य रूप में दृश्य) प्रस्तुत किया गया है,
जिसमें प्रमुख पात्र सोमभद्र और श्रौमणा हैं।
यह दृश्य वैराग्य, आत्मज्ञान, मोह और त्याग की गहन अनुभूति को प्रकट करता है,
जिसमें जैन सिद्धांतों का सार समाहित है।
📜 पात्र:
- श्रौमणा – अतिसुंदर, विदुषी राजकुमारी, आत्मज्ञान की खोजी
- सोमभद्र –राजा – मोह में लिप्त, सौंदर्य का पूजक
- युवा राजकुमार, मोह-बंधन में उलझा, अंत में वैराग्यवान
- मंत्री, साध्वी, दासी, दर्शकगण
1: राजदरबार में श्रौमणा का आगमन
🎭 (मंच सज्जा – स्वर्णमय दरबार, चंवर डोलते हैं, रत्नजड़ित सिंहासन, सभा स्तब्ध)
श्रौमणा मंद गति से प्रविष्ट होती हैं –
सौंदर्य की साक्षात मूर्ति, पर मुख पर वैराग्य
की छाया।
राजा (मंत्रमुग्ध होकर):
"हे श्रौमणे! तुम्हारा सौंदर्य तो कामदेव को भी मोहित कर
दे! क्यों तुम सदा ध्यानस्थ, विरक्त और मौन रहती हो?"
श्रौमणा (शांत स्वर में):
"राजन्! यह शरीर, यह रूप – क्षणिक है। जो नश्वर है, उस पर गर्व क्यों? मेरा सौंदर्य मेरा बंधन नहीं बन सकता।"
📜 श्लोक (भगवती
आराधना से):
"सव्वेसिं भावणाणं, पासं य अपणिव्वुओ।
ण णिब्बाेइ कसायेसु, एस विरइव्वओ तवो॥"
“वह तप असली है जो सभी आसक्तियों को त्यागकर होता है, जहाँ कषायों में लिप्तता नहीं रहती।”
2: सोमभद्र का मोह और आत्मग्लानि
सोमभद्र (एकांत में):
"श्रौमणा का सौंदर्य देख मैं विचलित हो उठा। परंतु उनके वचन
सुनकर मुझे आत्मग्लानि हो रही है। क्या मैं केवल शरीर को देख सका?"
श्रौमणा (सोमभद्र से):
"राजकुमार! जो केवल रूप देखता है, वह
अंधा है। जो आत्मा को पहचानता है, वही ज्ञानी है।"
📜 श्लोक (तत्त्वार्थसूत्र
से):
"मोहः सर्वावगाहि"
"मोह सब विकारों में व्याप्त होता है।"
"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः॥"
"सही दृष्टि, ज्ञान और आचरण – यही मुक्ति का मार्ग है।"
3: श्रौमणा का वैराग्य और दीक्षा
🎭 (श्रौमणा अपने केश त्यागती हैं, दासी विलाप करती है, किंतु श्रौमणा मुस्कराती हैं।)
श्रौमणा (दीक्षा लेते समय):
"अब यह केश, यह वस्त्र, यह नाम – कुछ नहीं। मैं केवल आत्मा हूँ।
मुझे आत्म-स्वरूप की अनुभूति चाहिए।"
📜 श्लोक (उत्तराध्ययन सूत्र):
"णज्जा व चित्तेण विणा व दंसणं,
ण संजयं पाव समण्णुजाणइ।"
"जब तक चित्त निर्मल न हो, सम्यकदर्शन
नहीं होता।"
4: सोमभद्र का आत्मपरिवर्तन और संन्यास
सोमभद्र (रोते हुए):
"श्रौमणा, तुमने मुझे मेरे भीतर
झाँकना सिखाया। अब मैं राजसी मोह नहीं, आत्मा का ज्ञान चाहता
हूँ। मैं भी दीक्षा लूंगा।"
📜 श्लोक (आत्मानुभव आधारित):
"अण्णं च नायं अप्पाणं च नायं
ण आयं परस्स, परो ण आयं।"
"न कोई किसी का है, न कोई स्वयं का
मालिक। आत्मा ही सत्य है।"
📚 कथानुभव और संदेश:
🌿श्रौमणा रूप की सीमा
लांघकर आत्मा के स्वरूप तक पहुँची।
🔥सोमभद्र ने मोह से
वैराग्य की ओर कूच किया।
👑राजा ने भी अंततः
जीवन की क्षणभंगुरता को समझा।
सोमभद्र – श्रोम संवादात्मक कथा
🔱 1:राजकुमार की क्लांत आत्मा
सोमभद्र, अवंतिपुर के राजा की संतान, भोग-विलास के मध्य भी एक अनदेखी पीड़ा से ग्रस्त था। महल के सोने जड़े कक्ष, सुगंधित सुरा, नृत्य की स्वर लहरियाँ — पर आत्मा अशांत।
स्वगत
चिन्तन:
"न किञ्चित् रम्यते चित्ते, सदा मोहवशं
गतम्।
किं जीवनं यदि शून्यं, आत्मबोधविवर्जितम्॥"
🌼 2: श्रोमणा का नगर आगमन
वन से नगर आई तपस्विनी श्रोमणा, जो अब आर्यिका बनने के निकट थी — नारी रूप में तप और ज्ञान का ऐसा तेज़ कि दृष्टिपात मात्र से अज्ञान नष्ट हो।
उसकी चाल धीमी, पर शब्द वेद तुल्य। नगर में कोलाहल मच गया – “यह कौन है? देवी? मुनि?”
🪷 3: प्रथम दृष्टि और द्वंद्व
सोमभद्र जब पहली बार श्रोमणा को देखता है, कुछ क्षण को समय थम सा जाता है। यह प्रेम नहीं था – यह चेतना का स्पर्श था।
संवाद:
सोमभद्र: “तेरे नेत्रों में अपार गहराई
है – क्या तू आत्मज्ञानी है?”
श्रोमणा: “नेत्र केवल पथ दिखाते हैं,
पर जो आत्मा का पथ देखे – वही ज्ञान है।”
श्लोक:
"न चक्षुषा ज्ञायते आत्मा, न शब्देन न
गन्धतः।
चिन्तयन् संहितां बुद्ध्या, पश्यति
आत्मस्वरूपतः॥" – उपनिषद्
4: आन्तरिक संघर्ष
सोमभद्र अब रात्रि में समाधि मुद्रा में बैठने लगता है। राजसिंहासन आकर्षित नहीं करता, प्रियाओं की मधुर वाणी अब भार लगती है।
श्रोमणा
कहती है:
"सत्यं शिवं सुन्दरं तत्र, यत्र
रागविनाशः।
दृष्टिर्मुक्ता यदि भवति, तदा जीवः मुक्ति
व्रजति॥"
🕉️ 5: आत्मनिर्णय और तप
एक रात्रि
सोमभद्र, राजसभा में मौन खड़ा हो गया। उसने कहा –
“मैं अब संयम का पथ ग्रहण करता हूँ।
श्रोमणा ने केवल दर्शन नहीं दिए, बल्कि मुझे जाग्रत किया है।”
राजा ने
कहा – “किंतु तू मेरा उत्तराधिकारी है।”
सोमभद्र:
"राज्यं न मम, आत्मा मे धर्मपथं
याचते।"
और उसी क्षण मुनि दीक्षा की ओर प्रस्थान।
6: श्रोमणा की अंतिम शिक्षा
श्रोमणा:
“जो आत्मा को जानता है, वही बंधन से छूटता है।
तू राजा नहीं – तू साधक है, तू जाग्रत आत्मा है।”
श्लोक:
"न स्त्री न पुरुषो बन्धुः, न राज्यं
न धनं सुखम्।
अहमेव परं ब्रह्म, नान्यः शरणं मम॥"
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(3)
श्रोमणा – आत्मबोध और वैराग्य की कथा 🔱
1: राजकुमार की क्लांत आत्मा
राजकुमार सोमभद्र, अवंतिपुर सम्राट का पुत्र, समस्त राजसी ऐश्वर्य के बीच भी भीतर एक शून्यता अनुभव करता था। भोग-विलास, नृत्य, राग, स्वाद – सब व्यर्थ लगते। आत्मा जैसे भीतर से पुकार रही थी – "किं कर्तव्यं?"
स्वगत
श्लोक:
🔸 "न किञ्चित् रम्यते चित्ते,
सदा मोहवशं गतम्।
किं जीवनं यदि शून्यं, आत्मबोधविवर्जितम्॥"
2: श्रोमणा का नगर आगमन
वनों से नगर में आगमन हुआ एक संयमित, दीप्तिमान तपस्विनी का — नाम था श्रोमणा। उसके नेत्रों में शांति थी, वाणी में वैराग्य। नगरवासी चकित, राजमहल स्तब्ध।
वर्णनात्मक
टीका:
वह केवल स्त्री नहीं, आत्मिक तेज की मूर्ति थी
– जैसे स्वयं "बुद्धि की देवी" वन से उतर आई हो।
3: प्रथम दृष्टि और आत्म-स्पर्श
राजकुमार ने पहली बार श्रोमणा को देखा — दृष्टि टकराई नहीं, प्रज्ञा जाग उठी। यह प्रेम नहीं था, यह एक जागृति थी। वह कह बैठा:
संवाद:
सोमभद्र: “क्या तुम तप की अग्नि में
दीप्त आत्मा हो?”
श्रोमणा: “मैं तो दर्पण हूँ, जो तुम्हारे भीतर की अग्नि को दिखाने आई हूँ।”
श्लोक
(उपनिषद्):
🔸 "न चक्षुषा ग्राह्यमिदं न वाचा न
मनसा।
आत्मा ह्येवात्मना द्रष्टव्यः"_
4: आंतरिक संघर्ष
राजसी भोग अब सोमभद्र को विष लगने लगे। रात्रियाँ ध्यान में बीतने लगीं, जीवन की सार्थकता पर प्रश्न उठने लगे।
श्रोमणा
का उपदेश:
“त्याग वह नहीं जो वस्त्रों से हो, त्याग वह
है जो अहंकार से हो।
संयम वह नहीं जो बाहर दिखे, संयम वह है जो मन को वश में करे।”
नीतिश्लोक:
🔸 "रागद्वेषविनिर्मुक्तैः
युक्तैः पश्यति आत्मनः।
योगयुक्तो विमुच्यते बन्धनात्॥" – गीता
5: आत्मनिर्णय – वैराग्य की घोषणा
राजसभा
में सबके समक्ष सोमभद्र ने कहा:
“राज्य अब मेरा नहीं, मैं आत्मा का अनुगामी
बनना चाहता हूँ। दीक्षा मेरा उत्तर है, तप मेरा मार्ग है।”
श्लोक:
🔸 "राज्यं न मम, आत्मा मे धर्मपथं याचते।
राज्ये रागो हि बन्धनं, वैराग्ये
मुक्तिसंश्रयः॥"
6: श्रोमणा की अंतिम शिक्षा
सोमभद्र दीक्षा को अग्रसर हुआ। जाते समय श्रोमणा ने कहा:
“यात्रा कठिन है, परंतु जो स्वयं को जान ले, वह अमर हो जाता है। ब्रह्मज्ञानी वह है जो संसार के मध्य भी निर्लिप्त रहे।”
श्लोक:
🔸 "नाहं देहो न मे बुद्धिर्नाहं
चित्तं न मे मनः।
अहमेव परं ब्रह्म, नान्यः शरणं मम॥"
(4)
1: सोमभद्र का विलासी जीवन
एक बार वर्धमान नगर में सोमभद्र नामक राजा का पुत्र विलासिता में लिप्त था। उसके लिए स्त्रियाँ, रत्न, भोग-विलास ही जीवन का सार था।
🗣️ सोमभद्र (स्वगत):
"किं सुखं विद्यते त्वन्यत् सुरतैः विना?
एषा रम्या जीवनसंपदा।"
📜 "कामो रागसमुत्थोऽयं, नयति नरकं ध्रुवम्।
न जानाति यदात्मानं, सो मोहपरिवेष्टितः॥"
🔸 (हिन्दी अर्थ: जो व्यक्ति आत्मा का ज्ञान नहीं करता और राग में फँसा रहता है, वह निश्चित ही नरक को प्राप्त करता है।)
🌸– 2: श्रोमणा से भेंट
श्रोमणा एक विदुषी ब्राह्मणी थी, जिसका रूप अनुपम था किंतु मन संयममयी था। एक दिन सोमभद्र उसे देखकर मोहित हो गया।
🗣️ सोमभद्र:
"हे शुभे! त्वं रूपेण मनो हृतवती।
मम कामाग्निर्दग्धुमिच्छति त्वां – मां त्वया
स्पृशतु।"
🗣️ श्रोमणा (वैराग्य भाव से):
"देहोऽयं शोणितास्थिमांसरससंघातसमुच्चयः।
मोहात्तु रुचिरो ज्ञेयो न तु तत्त्वं विचारय॥"
🔸 (हिन्दी अर्थ: यह शरीर हड्डी, रक्त और मांस का समूह है। यह मोह के कारण सुंदर प्रतीत होता है, परंतु तत्वतः विचार करने पर घृणित है।)
🪔 – 3: तत्वज्ञान का उपदेश
🗣️ श्रोमणा:
"मरणं निश्चितं लोके, न जाने कः कालः भवेत्।
प्रमादं त्यज सुविपाकं, आत्मानं पश्य भो
नर॥"
🔸 (हिन्दी अर्थ: मृत्यु निश्चित है, पर उसका काल अज्ञात। इसलिए प्रमाद त्यागकर आत्मा की ओर देखो।)
📜 प्राकृत श्लोक:
"अइअं णरो हि दुज्जओ, जो कमे विअडं
समुपेस्सइ।
जो वि ण जाणइ मरणं, सो पुडहो विण बन्धणं
भवओ॥"
– 4: वैराग्य और दीक्षा
सोमभद्र को वैराग्य हुआ। उसने सभी भोगों का त्याग किया।
🗣️ सोमभद्र (गंभीर स्वर में):
"किं मे भोगैः विषरूपैः? किं
स्त्रीणां तृणसमां तनुभिः?
त्वमेव जननि बोधाय वर्तसे – अहं
मुनिर्भवामि।"
📜
"कामो हि नरकस्य द्वारं, वैराग्यं
मोक्षमार्गतः।
श्रोमणा चेतसा साऽस्या, सोमभद्रं चकार
यतिः॥"
🔸 (हिन्दी अर्थ: काम नरक का द्वार है, वैराग्य मोक्ष का मार्ग है।
श्रोमणा ने अपने ज्ञान से सोमभद्र को मुनि बना दिया।)
🔚– 5: श्रोमणा का संयम
कुछ समय बाद श्रोमणा ने भी वैराग्य धारण कर आर्यिका दीक्षा ले ली।
📜
"न स्त्री न पुंसां बन्धः, आत्मा वै
मुक्तिभाजनम्।
तत्त्वं यदि बोधं याति, स जीवो भवबन्धनात्
मुच्यते॥"
🔸 (हिन्दी अर्थ: स्त्री या पुरुष होना बंधन नहीं है। यदि आत्मा तत्वज्ञान प्राप्त कर ले, तो वह भवबन्धन से मुक्त हो जाता है।)
समापन उपदेश – आत्मबोध की अमृतधारा
श्रोमणा और सोमभद्र, दोनों अपने-अपने पथ पर अग्रसर —
एक संयमित आर्यिका बनी, दूसरा दीक्षित मुनि।
मिलन न होते हुए भी, आत्मा से आत्मा तक पूर्ण समर्पण।
जीवनसूत्र:
- विषय सुख क्षणिक हैं – आत्मसुख ही चिरंतन है।
- आत्मा को जानना ही धर्म है, धर्म ही मुक्ति का द्वार है।
- गुरु, ज्ञान और वैराग्य – यही त्रिदेव हैं सच्चे साधक के लिए।
शास्त्रीय श्लोक (योगवासिष्ठ):
🔸 "आत्मा तु
साक्षात्परमः स्वरूपं,
न तं क्षणेनापि विसर्जयामि।
विषयेन्द्रियेष्वेव
भ्रमामि मूढो,
न मे शिवं विन्दति मोहयोगात्॥"
(आधार: जैन उपदेश साहित्य, उपदेशमाला, प्रबंध-संग्रह, श्रावकाचार)
🔹 काम और मोह का त्याग करके ही
आत्मकल्याण संभव है।
🔹 एक सच्चा उपदेशक/उपदेशिका किसी को भी
वैराग्य की ओर मोड़ सकता है।
🔹 यह कथा दर्शाती है कि नारी केवल मोह
का कारण नहीं, अपितु वैराग्य का मार्ग भी बन सकती है।
"सोमभद्र–श्रोमणा" की कथा जैन धर्म से संबंधित है, और यह विशेष रूप से श्वेतांबर जैन परंपरा में प्रसिद्ध है। यह कथा वैराग्य-प्रेरणाप्रद चरित्रों में आती है, जो काम-विजय, सम्यग्दर्शन, और संयम जीवन की ओर प्रेरित करती है।
📌 विशेष शिक्षा:
🔸 श्रृंगार नहीं, ज्ञान ही मुक्तिदाता है।
🔸 नारी उपदेशिका भी हो सकती है –
श्रोमणा इसका श्रेष्ठ उदाहरण है।
🔸 सोमभद्र की कथा संयम की विजय कथा है।
📖 समापन संदेश
सोमभद्र और श्रोमणा अब भिन्न पथों पर, पर एक ही लक्ष्य की ओर – आत्ममोक्ष।
उपदेश:
- आत्मा अनश्वर है, इसे जानो।
- विषयों से नहीं, संयम से शांति मिलती है।
- गुरु और ज्ञान यदि मिल जाएँ, तो जीवन सार्थक हो जाता है।
नमन
श्रोमणा को – जो आँखों से नहीं, आत्मा से दिखाती हैं।
नमन सोमभद्र को – जो राजसी मोह से निकलकर
आत्मा का साधक बना।
श्रोमणा नामक ब्राह्मणी (या स्त्री पात्र) के माध्यम से सम्यक दर्शन, वैराग्य और संयम की महान प्रेरणा मिलती है।
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