माघ माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को भीष्म अष्टमी कहते हैं। इस दिन को भीष्म तर्पण दिवस भी कहते हैं।भीष्म पितामह की पुण्यतिथि मनाई जाती है.चंद्रवंश के राजा शांतनु और उनकी पहली पत्नी गंगा , जो नदी देवी थीं, के एकमात्र जीवित पुत्र थे। वे द्यौ उर्फ प्रभास नामक वसु के अवतार थे।(महाभारत के भीष्म पर्व) माघ शुक्ल अष्टमी, भरणी नक्षत्र, मेष राशि चंद्रमा और पर्व - भीष्म अष्टमी" का विवरण:
भीष्म अष्टमी की कथा -
प्रस्तावना: भीष्म अष्टमी का पर्व माघ शुक्ल अष्टमी को मनाया जाता है, जो महाभारत के महान पात्र भीष्म पितामह की पुण्यतिथि के रूप में प्रसिद्ध है। यह दिन विशेष रूप से उनके त्याग, बलिदान और संस्कारों के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। इस दिन उनकी पूजा, कथा, और तर्पण से पुण्य की प्राप्ति होती है . पितृ दोष से मुक्ति मिलती है।
भीष्म पितामह का जन्म और शिक्षा:
- शांतनु और देवी गंगा का विवाह:
- हस्तिनापुर के राजा शांतनु का विवाह देवी गंगा से हुआ था। उनके संतान के रूप में देवव्रत का जन्म हुआ। देवव्रत बाद में भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए।
- महर्षि परशुराम से शिक्षा:
- देवव्रत ने महर्षि परशुराम से युद्ध कला में शिक्षा प्राप्त की। वे युद्ध के एक महान योद्धा बने, और उनकी वीरता और शक्ति की किवदंती फैलने लगी।
- हस्तिनापुर का युवराज:
- देवव्रत को हस्तिनापुर का युवराज घोषित किया गया। उनके नेतृत्व में हस्तिनापुर का शासन और भी सशक्त हुआ।
भीष्म प्रतिज्ञा (भीष्म की महान प्रतिज्ञा):
- राजा शंतनु और सत्यवती का विवाह:
- एक दिन राजा शांतनु ने सत्यवती नामक कन्या से विवाह का निश्चय किया। सत्यवती के पिता ने यह शर्त रखी कि उनकी बेटी से उत्पन्न पुत्र ही हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनेगा।
- धर्म संकट और देवव्रत की प्रतिज्ञा:
- इस शर्त के कारण राजा शांतनु गंभीर धर्म संकट में पड़ गए, क्योंकि देवव्रत पहले ही युवराज थे और उनका विवाह न करने की कोई योजना नहीं थी।
- देवव्रत ने अपने पिता की इच्छाओं के सम्मान में एक महान प्रतिज्ञा ली। उन्होंने शपथ ली कि वे न तो विवाह करेंगे, न ही हस्तिनापुर के उत्तराधिकारी बनेंगे।
- भीष्म प्रतिज्ञा:
- देवव्रत ने भीष्म प्रतिज्ञा ली, जिसमें उन्होंने अपने जीवन को हमेशा के लिए ब्रह्मचर्य और निस्वार्थ भाव से समर्पित कर दिया। उन्हें अपनी इच्छा के खिलाफ विवाह न करने और किसी भी प्रकार की सत्ता को छोड़ने का संकल्प लिया।
- इस महान प्रतिज्ञा के कारण उन्हें भीष्म कहा गया। उनके पिता राजा शांतनु अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने भीष्म को इच्छामृत्यु का वरदान दिया, अर्थात वे जब चाहें तब अपनी मृत्यु का समय चुन सकते थे।
महाभारत युद्ध और भीष्म का योगदान:
- कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध:
- जब महाभारत युद्ध शुरू हुआ, तो भीष्म पितामह ने कौरवों की ओर से सेनापति के रूप में युद्ध लड़ा। वे एक महान योद्धा थे, और उनका नेतृत्व कौरवों के पक्ष में युद्ध को लंबा खींचने के लिए प्रमुख था।
- उनके रहते पांडवों को विजय प्राप्त करने में कठिनाई आ रही थी।
- शिखंडी और भीष्म का समर्पण:
- एक रणनीति के तहत शिखंडी नामक व्यक्ति ने भीष्म पितामह को युद्ध के लिए चुनौती दी। शिखंडी एक महल में पैदा हुई कन्या थी, जिसे बाद में पुरुष बना दिया गया था।
- जब भीष्म ने शिखंडी को देखा, तो उन्होंने अपने धनुष को नीचे रख दिया, क्योंकि वे शिखंडी को अपने पुराने समय का मित्र मानते थे और उनसे युद्ध नहीं करना चाहते थे।
- इस अवसर का लाभ उठाकर अर्जुन ने उन पर बाणों की वर्षा की और उन्हें गंभीर रूप से घायल कर दिया।
भीष्म पितामह का उत्तरायण में प्राण त्याग:
- उत्तरायण का महत्व:
- भीष्म पितामह को इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था, लेकिन वे सूर्योदय के उत्तरायण के समय ही प्राण त्यागना चाहते थे।
- उत्तरायण वह समय होता है जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है, और इसे विशेष रूप से शुभ समय माना जाता है। वे छह महीने तक सूर्य के दक्षिणायण में होते हुए जीवित रहे, लेकिन सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश करते ही उन्होंने अपनी मृत्यु को स्वीकार किया।
- माघ शुक्ल अष्टमी को प्राण त्याग:
- माघ शुक्ल अष्टमी के दिन, जब सूर्य उत्तरायण में प्रवेश कर गया, तो भीष्म पितामह ने शरशय्या पर लेटते हुए अपने प्राण त्याग दिए।
भीष्म अष्टमी का महत्व:
- पुण्य और श्रद्धा का दिन:
- माघ शुक्ल अष्टमी का दिन पितामह भीष्म के श्राद्ध और पूजा के रूप में मनाया जाता है। इस दिन तर्पण, व्रत और पूजा का महत्व है।
- यह दिन विशेष रूप से संस्कारों, पितृ भक्ति, और निस्वार्थ त्याग के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।
- पापों से मुक्ति:
- भीष्म अष्टमी के दिन व्रत रखने और पूजा करने से व्यक्ति के सभी पाप समाप्त होते हैं और उसे पितृ दोष से मुक्ति मिलती है।
- इस दिन पूजा और तर्पण से विशेष आशीर्वाद प्राप्त होता है, जो जीवन में सुख और शांति लाता है।
- माघ शुक्ल अष्टमी:
- माघ माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को विशेष महत्व है। इस दिन भरणी नक्षत्र और मेष राशि में चंद्रमा होने से विशेष पुण्यलाभ की प्राप्ति होती है।
- यह दिन विशेष रूप से भीष्म अष्टमी के रूप में मनाया जाता है, जो भीष्म पितामह के शोक और श्रद्धा के रूप में मनाया जाता है।
- भीष्म अष्टमी और पर्व:
- भीष्म अष्टमी का पर्व विशेष रूप से भीष्म पितामह की याद में मनाया जाता है।
- इस दिन उनका श्राद्ध, तर्पण और पूजा करने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
- भीष्म अष्टमी के दिन पूजा सामग्री:
- पूजा में जौ, तिल, पुष्प, दूर्वा और दारा का दान और उपयोग किया जाता है।
- इन सामग्रियों से पूजा और तर्पण करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है।
- भीष्म पितामह का श्राद्ध और तर्पण:
- भीष्म अष्टमी पर भीष्म पितामह का श्राद्ध और तर्पण करने से व्यक्ति की सभी इच्छाएं पूरी होती हैं। निसंतान - गुणवान संतान की प्राप्ति होती है।
- तर्पण करने से सभी तरह के पाप खत्म हो जाते हैं .
- पितृदोष दूर हो है।
- यह दिन पितरों के प्रति श्रद्धा और समर्पण का होता है, खासकर भीष्म पितामह की पूजा से उनके आशीर्वाद प्राप्त होते हैं।
- भीष्म पूजा का मंत्र:
6. माघे मासि
सिताष्टम्यां सतिलं भीष्मतर्पणम्।
श्राद्धच ये नरा: कुर्युस्ते स्यु: सन्ततिभागिन:।।
- भीष्म पितामह की पूजा के लिए विशेष मंत्र का जाप किया जाता है:
- **"वसु नाम अवताराय शान्ति नोर्मात्म जाय च।
- अर्ध्यम् ददामि भीष्माय आबाल्य ब्रह्मचारिणे॥"**
- इस मंत्र का जाप करके और अर्ध्य जल तथा तिल का दान करके भीष्म पितामह को प्रसन्न किया जाता है।
- पूजा विधि:
- अर्ध्य जल और तिल दक्षिण दिशा की ओर मुख करके देना चाहिए।
- इस दिन सूर्यास्त से पहले तर्पण और पूजा करने से विशेष लाभ मिलता है।
- भीष्म अष्टमी का पर्व:
- भीष्म अष्टमी बंगाल और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में मनाया जाने वाला एक छोटा सा पर्व है।
- यह पर्व भीष्म पितामह की याद में मनाया जाता है, जो महाभारत के महान योद्धा थे।
- भीष्म पितामह का महाभारत में योगदान:
- महाभारत के अनुसार, भीष्म पितामह ने कुरुक्षेत्र युद्ध में भाग लिया और उसी युद्ध में वे मारे गए थे।
- भीष्म शांतनु के पुत्र थे, और उनके पास एक वरदान था कि वह अपनी इच्छानुसार मृत्यु का दिन चुन सकते थे (इच्छामृत्यु)।
- भीष्म की शपथ:
- भीष्म ने विवाह न करने और अपने पिता के सिंहासन के प्रति हमेशा वफादार रहने की शपथ ली थी, जिससे उन्हें विशेष सम्मान मिला था।
- भीष्म की पुण्यतिथि:
- भीष्म की पुण्यतिथि माघ माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाई जाती है, जिसे माघ शुक्ल अष्टमी कहा जाता है।
- भीष्म की मृत्यु और प्रतीक्षा:
- भीष्म ने अपने शरीर को छोड़ने से पहले 58 दिनों तक प्रतीक्षा की, ताकि वे उत्तरायण के शुभ दिन पर प्राण त्याग सकें।
- उत्तरायण वह समय है जब सूर्य दक्षिणायन की छह महीने की अवधि पूरी करने के बाद उत्तर की ओर जाता है, जिसे शुभ माना जाता है।
- उत्तरायण का महत्व:
- हिंदू मान्यता के अनुसार, उत्तरायण में मरने वाला व्यक्ति स्वर्ग जाता है।
- इस कारण भीष्म ने उत्तरायण के दौरान मृत्यु का वरण किया, ताकि उनकी आत्मा को सर्वोत्तम मोक्ष प्राप्त हो।
- 'एकोदिष्ट श्राद्ध' का अनुष्ठान:
- भीष्म अष्टमी के दिन अनुयायी 'एकोदिष्ट श्राद्ध' का अनुष्ठान करते हैं, जो विशेष रूप से भीष्म पितामह के सम्मान में किया जाता है।
- तर्पण अनुष्ठान:
- भीष्म की आत्मा की शांति के लिए अनुयायी पास की नदी के किनारे जाकर तर्पण अनुष्ठान करते हैं।
- इस अनुष्ठान के माध्यम से वे न केवल भीष्म की आत्मा को शांति प्रदान करते हैं, बल्कि अपने पूर्वजों का भी सम्मान करते हैं।
- गंगा स्नान और तिल चढ़ाना:
- अनुयायी संसार से मुक्ति पाने और अपनी आत्मा को शुद्ध करने के लिए गंगा नदी में पवित्र डुबकी लगाते हैं।
- इसके बाद वे उबले हुए चावल और तिल चढ़ाते हैं, जो पुण्य की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
- उपवास और अर्घ्य:
- इस दिन उपवास रखते हैं और दिनभर अर्घ्य अर्पित करते हैं।
- वे देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए भीष्म अष्टमी मंत्र का जाप ।
- माता-पिता द्वारा तर्पण:
- माता-पिता भीष्म के नाम पर तर्पण करते हैं, यह आशा रखते हुए कि उनके पुत्रों को भी भीष्म पितामह के समान गुण और आशीर्वाद प्राप्त हों।
निष्कर्ष:
भीष्म
अष्टमी पर विशेष तर्पण, अनुष्ठान, उपवास और
मंत्र जाप के माध्यम से भीष्म पितामह को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। यह दिन
पितरों और पूर्वजों की शांति के साथ-साथ आत्मा की शुद्धि और देवताओं का आशीर्वाद
प्राप्त करने का महत्वपूर्ण अवसर है।
भीष्म
अष्टमी एक महत्वपूर्ण पर्व है जो भीष्म पितामह की पुण्यतिथि पर मनाया जाता है। यह
दिन उनकी वीरता, तपस्या और
विशेष शपथों को याद करने का अवसर है, साथ ही उत्तरायण के महत्व को समझाने वाला भी है।
Bhishma Ashtami –
Overview: Bhishma Ashtami is observed on the eighth day of the Shukla Paksha (waxing moon) in the month of Magha. This day is also known as Bhishma Tarpan Day, as it marks the death anniversary (Punyatithi) of Bhishma Pitamah, one of the greatest characters in the Mahabharata. The day symbolizes his selfless sacrifice, discipline, and devotion. It is believed that performing worship, listening to the story of Bhishma, and offering Tarpan (ritualistic offerings) on this day brings merit and liberation from ancestral debts (Pitru Dosha).
Bhishma Pitamah’s Birth and Education:
- Marriage of King Shantanu and Ganga:
- King Shantanu of Hastinapur married Devi Ganga, and their only surviving son was Devavrat, who later became known as Bhishma.
- Training by Maharshi Parashuram:
- Devavrat received his training in martial arts from Maharshi Parashuram. He became a great warrior, and his fame spread throughout the land.
- Crown Prince of Hastinapur:
- Devavrat was declared the Yuvraj (heir to the throne) of Hastinapur, and under his leadership, the kingdom flourished.
Bhishma’s Great Vow (Bhishma Pratigya):
King Shantanu and Satyavati’s Marriage:
- King Shantanu wished to marry Satyavati, but her father demanded that only her son would inherit the throne of Hastinapur.
Devavrat’s Vow of Renunciation:
- Devavrat, in order to honor his father's desire to marry Satyavati, took a solemn vow to remain celibate and renounce his claim to the throne of Hastinapur.
Bhishma Pratigya:
- Devavrat took a Bhishma Pratigya (vow of lifelong celibacy and renunciation of power), earning the name Bhishma. His father, King Shantanu, was so pleased by his sacrifice that he granted Bhishma the boon of Ichha Mrityu (the ability to choose the time of his death).
Bhishma’s Role in the Mahabharata War:
- The War between Kauravas and Pandavas:
- During the Mahabharata War, Bhishma fought on the side of the Kauravas as their commander. He was a formidable warrior, and his presence in the war made it difficult for the Pandavas to gain victory.
- Shikhandi and Bhishma’s Surrender:
- As part of a strategy, Shikhandi, a former woman turned man, challenged Bhishma in battle. Bhishma, recognizing Shikhandi from his past, laid down his weapons in respect. This allowed Arjuna to strike him with arrows, severely wounding him.
Bhishma’s Death and the Significance of Uttarayan:
- The Importance of Uttarayan:
- Bhishma had the boon of Ichha Mrityu but wished to die only during Uttarayan, the period when the Sun moves northward (considered an auspicious time for death). He waited on his deathbed for 58 days until Uttarayan arrived.
- Bhishma’s Death on Magha Shukla Ashtami:
- On Magha Shukla Ashtami, when the Sun entered Uttarayan, Bhishma finally chose to relinquish his body, marking the end of his life.
Significance of Bhishma Ashtami:
A Day for Piety and Reverence:
- Magha Shukla Ashtami is observed as a day of Shraddha (ritual offerings) and worship of Bhishma. On this day, rituals like Tarpan and fasting are performed to honor his virtues and seek blessings.
Liberation from Pitru Dosha:
- Performing the Tarpan (ritualistic offering of water) on Bhishma Ashtami helps in the liberation from Pitru Dosha (ancestral debts) and purifies the soul.
Rituals of Bhishma Ashtami:
Observing Fast and Offering Tarpan:
- Devotees observe a fast and offer Tarpan (water and sesame seed offerings) facing the south direction. This is believed to bring peace to the soul and grant blessings for children and prosperity.
Importance of Bhishma’s Shraddha:
- Performing Shraddha (rites for the ancestors) on this day, especially for Bhishma, is considered very beneficial. It is believed that the soul of the deceased will find peace and blessings for the family.
Reciting Mantras and Offering Water:
- Devotees recite special mantras such as:
- "Vasu Nama Avataraya Shanti Normatma Jaya Cha"
- Offering Arghya (water) and Til (sesame seeds) while chanting these mantras is believed to bring peace to Bhishma's soul.
- Devotees recite special mantras such as:
Special Offerings:
- Offerings of barley, sesame seeds, flowers, and Durva grass are made during the rituals. These items are considered auspicious for gaining spiritual benefits.
Conclusion: Bhishma Ashtami is a sacred day that commemorates Bhishma Pitamah’s immense sacrifice, discipline, and unwavering devotion. By observing fasting, performing rituals, and offering Tarpan, devotees honor his legacy. It is a day dedicated to purifying one's soul, gaining blessings from ancestors, and receiving divine grace for a prosperous and peaceful life. This day is a significant occasion for remembering Bhishma's vows, his devotion to his father, and his supreme sacrifice for the greater good.
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