यह सौभाग्य व्रत हैं, भीष्म ने यह व्रत अर्जुन एवं पांडवो को बताया। वेधव्य ,पुत्र की आकस्मिक मृत्यु, दामाद मत्यु नही, आयु वृद्धि होती हैं ।
सोमवती अमावस्या कथा -
महाभारत के युद्ध
के पश्चात युधिष्ठिर पितामह भीष्म के पास गए। पितामह भीष्म शर शया पर उतरायण सूर्य
की प्रतीक्षा में मृत्यु को रोके हुए, बाणों की पीडा दायी चुभन पर अशक्त शयासीन थे।
पितामह भीष्म को
नमन कर युधिष्ठिर बोले .पितामह दुर्योधन की हठ एवं राज्य लिप्सा, भीम की कौरवो का नाश प्रतिज्ञा के कारण आज कोई
राजा योग्य शेष नही रहा है। भरतवंशी केवल हम पांडव ही पांच शेष है।
एक छत्र निर्विघ्न
शत्रुविहीन हमारा राज्य है। बहु उत्तरा के गर्भ का पिंड भी अश्वत्थामा ने समाप्त
कर दिया। मुझे वैसे ही भोग विलास से कोई रुचि नही है। वंश विनाश से मन व्यथित, दुखित है। संतान शेष नही रहने से संतृप्त हृदय
है। हे पितामह आप ही कोई चिरजीवी संतान का उपाय बताइये।
पितामह भीष्म ने
कहा -
चिरजीवी, दीर्घायु वाली संतान के लिये सफल उपाय सुनो। जब
सोमवार के दिन सोमवती अमावस्या हो। वनस्पतियों में जनार्दन विष्णु स्वरुप वृक्ष है
पीपल उस वृक्ष की एक सौ आठ परिक्रमा करना चाहिये। 108 की संख्या में कोई भी प्रिय वस्तु पुष्प फल, मिठाई, रत्न आभूषण धातु जो सार्मथ्य तथा श्रद्धा में
हो। प्रति परिक्रमा पृथक पृथक रखते जाओ। पीपल की 108 परिक्रमा पूर्ण करे।
यह व्रत तुम
उत्तरा से कराओ। उसका गर्भ जो उदर में अश्वत्थामा के प्रयोग से मृत हो गया है वह
जीवित हो जाएगा।
राजा युधिष्ठिर ने
जिज्ञासा, उत्सुकतावश प्रश्न किया। पितामह इस व्रत को
सर्वप्रथम किसने किया तथा कैसे परंपरा प्रचलन में आयी।
पितामह भीष्म -
धनदेव कुबेर की नगरी जैसी धन, सुख उपभोग भोग विलास वाली एक कांची नगरी विख्यात थी । इस नगरी में अप्सरा सदृश
अनुपम सौंदर्यशालिनी नारियां थी । गणिकाए नगर वधू, वेश्याओ इस नगरी में बहुसंख्य थी ।राजा रत्नसेन इस कांची नगरी का राजा था। इस
नगर में सर्व वर्ग जातियां अपने अपने कार्य में दक्ष एवं पूर्ण मनोयोग से धर्म
पालनरत थे।
देवस्वामी नामक
श्रेष्ठ ब्राहम्ण इस राज्य में रहता था। इसकी सर्वांग सुंदरी धनवती पत्नी लक्ष्मी
स्वरुपा थी। ब्राहम्ण देवस्वामी के सात पुत्र व एक गुणज्ञा रुपवती छोटी कन्या
गुणवती नामकी थी। सभी पुत्र विवाहित थे परंतु समतुल्य वर नही मिलने से कन्या
गुणवती अविवाहित ही थी।
एक दिन एक
ब्राहम्ण भिक्षार्थ उस ब्राहम्ण के द्वार आया। उसका मुखमंडल तेज से देदीप्त था।
ब्राहम्ण की सभी पुत्र बधुओ ने इस ब्राहम्ण को कुछ न कुछ भेंट किया। उस याचक ब्राहम्ण
को कुछ न कुछ भेट किया उस याचक ब्राहम्ण ने सब बधुओ को सुख सौभाग्य संपति का
आशीर्वाद दिया। कन्या गुणवती भी तेजवान सुंदर ब्राहम्ण के पास गयी, उसको नमन किया तथा भोज्य सामग्री उसको प्रदान
की।
ब्राहम्ण ने
आशीर्वाचन में कहा - शुभे कल्याणि तुम सदैव धर्मवती रहो।
कन्या गुणवती ने
इस आशीष को सुना ग्रहण किया तथा त्वरित गति से मां के समीप जाकर कहा मां द्वार पर
उपस्थित ब्राहम्ण ने सब भाभियो को सुख सौभाग्य संपति का आशीर्वाद दिया। मुझे केवल
धर्मवती रहने का आर्शीवचन कहा।
मां, शीघ्र बिटिया का हाथ पकड कर उस ब्राहम्ण के पास
गयी। बिटिया गुणवती के अभिवादन के उतर में ब्राहम्ण ने पूर्ववत धर्मानुरागिणी रहने
का आशीर्वाद दिया।
मां उस श्रेष्ठ
द्वारागत विप्र से चिंता एवं जिज्ञासा के स्वर में कहने लगी हे श्रेष्ठज्ञ विप्र
आपने मेरी पुत्रवधुओ को सुख सौभाग्य संपति की शुभकामना प्रदान की परंतु मेरी अनुपम
सुंदरि गुणवती को धर्मवती होने का आशीष ही केवल क्यो दुहराया? कृपया समाधान करे, किस कारण क्यो आप धर्मवती होना ही कह रहे है?
श्रेष्ठ विप्र
त्रिकालज्ञ था उसने कहा धनवती तुम पृथ्वीमंडल पर अपने चरित्र एवं धर्म के लिये
प्रसिद्ध हो तुम धन्य हो। तुम्हारी पुत्री को मैने यथायोग्य ही आशीर्वचन कहे है।
प्रारब्ध प्रबल संस्कार के समय ही वैधव्य से ग्रस्त हो जाएगी। इसलिये
धर्माचरण ही एक मात्र इसका शेष जीवन रह जाएगा। अतः मैने ऐसा कहा था कि तू धर्मवती
हो।
यह आशीर्वाद और
उसका कारण परम रहस्य उदघटित होते ही मां धनवती ने व्याकुल, चिंतातुर हो कर विप्र से निवेदन याचना भरे दुखी
रचर में कहा हे विप्र श्रेष्ठ यदि आप इस प्रारब्ध जन्य पाप मोचन भवितव्यता को
रोकने का कोई उपाय अवश्य जानते होगेए कृपया उस उपाय पर प्रकाश डालकर मुझे अवसाद
चिंता से मुक्त करने की परम कृपा करिये।
विद्वान ब्राहम्ण
ने यत्किंचित क्षण विचार मुद्रा बनायी फिर धीर गंभीर बाणी में बोला कल्याणि परमा
धनवती यदि तेरे घर में सोमा का प्रवेश हो जाए तो उसके पूजन अर्चन मात्र से इसका
वैधव्य दोष / पाप समाप्त हो जाएगा।
ब्रहाणी धनवती.यह
सोमा कौन है? इसका निवास कहा है ? इसकी जाति क्या है? मैं आपका समय अपने स्वार्थ के कारण ए व्यर्थ
नहीं करना चाहती, कृपया शीघ्र बताकर आप गंतव्य दिशा को प्रस्थान
कर सकते है।
विप्र याचक
भिक्षार्थी ने कहा .सिंहल द्वीप पर एक प्रसिद्ध धोबिन सोमा है। प्रयास करो।
ब्रहाणी ने अपने
परिवार के साथ बैठकर एप्रातः जलपान के समय सभी परिवार के सदस्यों को कन्या
गुणवती के वैधव्य वाली वार्ताए विप्र के कथन से अवगत कराया। सभी सदस्यों के चेहरो
पर चिंता की रेखाऐ उभर गयी ।सभी अवाक रह गए।
मां ने पुत्रो को
संबोधित कर कहा -
तुम्हारी यह छोटी
बहिन, हतभाग्या बैचारी वैधव्य का प्रारब्ध, इस जन्म में लिखवा लायी है। सोमा धोबिन के इस
घर में आनेे से भाल का कुअक मिट जाएगा दुर्भाग्य रेखा दूर हो जाएगी।
गुणवती के भाईयो
तथा अपने पुत्रो की ओर से कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नही मिलने से ब्रहाणी धनवती
पुनः कहने लगी.
जो पुत्र पिता का
आज्ञाकारी हो एवं मां का गौरव हो एलाल होए वह गुणवती को साथ लेकर सिंहलद्वीप जाऐ
एवं सोमा धोबिन को लेकर इस घर में आए।
सभी सात पुत्र एक
दूसरे की ओर देखने लगे। मात्र की कल्पना से पुत्र वधुऐ चिंताग्रस्त हो गयी।
अधोमुखी भाई अधोमुखी बैठ गए।
एक भाई ने कहा -
मां आप हमारी गुणवती बहिन के भविष्य का लेेकर चिंतित होए हम सब समझ रहे है। हमारे
लिये भी यह बात चिंता का विषय है। आप संतान व्यामोह मेंए यह तो सोचिये चार सौ कोस ;800 मील द्धसमुद्र के उस पार सिंहल द्वीप हमे जाने
को कह रही है। यह पथ कितना दुर्गम दुसह, दुसाध्य और दुर्दान्त मानव पशुओ से युक्त है। आप गुणवती के स्नेह में भावनाओ
की उत्ताल तरंगो से व्यथित, दुखित प्रताडित हैए इसलिये विचार निर्णय बुद्धि
से नहीं कर पा रही है। भावनाओं के अथाह स्नेह सागर से बाहर वास्तविक प्रायोगिक
संसार में आकर धैर्य, शंति से तो तनिक सोचिये। हम लौट कर वापस न आ
सकेघ् हम विवाहित हैए हमारे न रहने पर पत्नी का क्या होगा? उसका वैधव्य नही हो जाएगा आदि आदि। हम सिंहल
द्वीप नही जा सकते है। ऐसा कहकर भाई चुप हो गया। अन्य भाई सहमति, स्वीकारोक्ति की मुद्रा में अबोले निःशब्द बैठे
रहे। पुत्र वधुओ के मुखमंडलो स अनहोनी की लकीर,दुश्चिता की रेखा तिरोहित हो गयी ए अदृश्य हो
गयी। संतोष के भाव एमुक्ति के भाव उभर आए मुखमंडलो पर।
ब्राहम्ण
देवस्वामी इस अनपेक्षित उत्तर को सुनकर आक्रोशित एवं असहाय जन्य दुख से बोला .मेरे
सात पुत्र है। आज मैं पुत्र हीनता की प्रतीति कर रहा हूं। इनको जन्म देना इनका भरण
पोषण करना व्यर्थ गया। मैं स्वयं अपनी पुत्री गुणवती के भविष्य के लिये
एसिंहलद्वीप कल ही प्रस्थान करुंगा।
अभी ब्राहम्ण
देवसेन भावावेश में क्रोधजन्य कथ्य पूरा कर भी नहीं सके थे किए सबसे छोटा पुत्र
शिवस्वामी जो देवसेन का सर्वाधिक लाडला था, व्यतिक्रम, व्यवधान करते हुए दृढ़ प्रतिज्ञ शब्दो का
प्रयोग करकेए बोलने उठ खडा हुआ.. हे देवतुल्य पिता एआप भइया के अनपेक्षित उत्तर से
क्रोधावेश में ओर कुछ नही बोलिये। मेरे होते हुए आपको कोई चिंता करने की आवश्यकता
नही है। मैं आज ही अभी सिंहल द्वीप बहिन गुणवती को लेकर प्रस्थान करना चाहता हूं।
मां धनवती पिता
देवसेन अवाक छोटे पुत्र को देखते रह गए ।उसकी निश्चय भरी बातो ने उनका मुंह बंद कर
दिया। मध्यान्ह तक आवश्यक समान ले बहिन गुणवती को साथ लेकर सबको चरणभिवादन कर
सिंहलद्वीप हेतु छोटा पुत्र प्रस्थित हो गया।
देव अनुकूलतावश
गहनवनए निर्जनपथ एमांसभक्षी मानव पशुओ एविषैले जीवो से सुरक्षित दोनो भाई बहिन
निर्विहन यात्रा कर अपेक्षा से पूर्व विशाल समुंद्र तट पर पहुंच गए।
समुंद्र तट पर एक
विशाल वट वृक्ष था। उस वृक्ष के एक कोटर ए खोखले भाग में में गृधराज विशालगिद्ध के
बच्चे बैठे थे। उस वट वृक्ष के नीचे दोनो भाई बहिन विश्राम करने लगे। सायं समय गृध
अपने बच्चो के लिये भोजन लेकर आया और बच्चो को भोजन कराने का उपक्रम करने लगा।
बच्चे भोजन नीचे गिराने लगे। गृध ने पूछा. बच्चो भोजन क्यो नीचे गिरा रहे हो तुम
दिन भर से भूख प्यासे हो? तुम्हारे लिया ताजा कोमल कोमल मांस लाया हूं।
भूखे प्यासे क्षुधातुर होकर भी क्यों ग्रहण नही कर रहे होघ्
बच्चो ने कहा - हे
तात एदिन भर से वृक्ष की जड़ पर इस वृक्ष की शरण में दो मानव बैठे हैए वे निश्चय
ही भूखे है एअतः उनके बिना, हमे भोजन करना अच्छा व उचित नही प्रतीत हो रहा
है।
गृध पिता बच्चो की
परोपकारी बाते सुनकर प्रसन्न हुआ और स्वयं दया से भरकर करुणार्द्र हो कर उन दोनो
के पास पहुंचा।
गृध बोला. हे
विप्र आप दोनो कौन है? किस उद्देश्य से आपका आगमन हुआ? आप मुझे सब कुछ बताइये। भोजन करिये। जो भी संभव
होगा, मैं आपके लिये कर स्वयं को कृतार्थ समझूंगा।
शिव स्वामी गुणवती
के भाई ने अपने आने का उद्देश्य बताया तथा कहा बहिन के वैधव्य नाश हेतु सिंहल
द्वीप जाकर, सोमा घोबिन को घर ले जाना है।
गृध ने कहा .आप
विश्राम करे रात्रि यही शयन करे। प्रातः मैं आप दोनों को समुद्र के उस ले जाउंगा
तथा सोमा धोबिन का घर भी दिखा दूंगा।
अपने वचनानुसार
गृधराज ने दोनो भाई बहनो को समुद्र पार उतर कर सोमा धोबिन कर घर भी दिखा दिया।
दोनो भाई बहनो
विचार किया कि एयह सोमा धोबिन, हमारे साथ हमारे हितार्थ अपना परिवार छोडकर क्यो जाएगी? इसके पश्चात दोनो ने उसे प्रसन्न करने के लिये
योजना बनायी ओर योजना कार्य करने लगे।
सोमा प्रातः नित्य
प्रति देखती कि एउसका आंगन द्वार स्वच्छ लिपा पुता सुंदर मिलता। सोमा सोचती रही
किए मेरी कोई बहू ये सब करती है। परंतु उसके पूर्व इतनी स्वच्छता, सुंदरता लिपाई पुताई तो कभी नही होती थी। ऐसी
कौन सी बहु है एजो प्रातः सूर्योदय पूर्व मेरा घर द्वार इतना स्वच्छ सुंदर करती
है। यह जानकारी के लिये पुत्र वधुओ को बुलाकर उसने पूछा. तुम में से कौन मेरी ऐसी
बहू है एजो मुझसे पूर्व उठकर रोज झाडू बुहारी गोबर से लिपाई तथा घर का द्वार
पुष्पो से सजाती है?
सभी बहू एक दूसरे
को देखने लगीए फिर समवेत स्वर में कहा. मां हम ने तो यह नही किया। फिर वे स्वयं
आश्चर्यान्वित हो गयी कि एहमने नही ता ये कौन करता हैघ्
सोमा आगामी रात्रि
को अर्धरात्रि के पश्चात स्वयं छिप कर बैठ गयी यह देखने के लिये यह कार्य कौन करता
हैघ् सूर्योदय से दो ढाई घंटा पूर्व उसने देखा एएक अनुपम सुंदर कन्या घर द्वार पर
झाडू लगा रही है। एक सुंदर लडका पीछे पीछे झडे हुए स्थान पर बडी सफाई, स्वच्छता से लीपने का कार्य कर रहा है। जब वे
दोनो कार्य करते के पश्चात जाने लगे तो सोमा उनके पास पहुंचकर बोली रुको, सुनो तुम दोनों कौन हो? क्यो ये सब करते हो?
भाई ने कहा .हम
ब्राहम्ण है।
बस इतना सुनते ही
सोमा प्रायश्चित भरे शेष भरे स्वर में बोली .कैसे ब्राहम्ण हो? मैं धोबिन हूं छोटी जाति की हूं? पाप जातिन हूं। तुमने मेरा धर्म नष्ट कर दिया।
मेरे घर झाडू बुहारी कर मुझे पाप भागिनी बना दिया। न जाने मेरी क्या दुर्दशा होगी
? क्या क्या मुझे भोगना पडेगा।? तुम ब्राहम्ण होकर यह सब दोनो क्यो करते हो?
शिवस्वामी ने पूरा
वृतांत सोमा धोबिन, को बताया तथा याचना पूर्ण स्वर में निवेदन किया
यदि आप मेरी बहिन गुणवती के पास होगी तो इसका वैधव्य दोष समाप्त हो जाएगा कृपया आप
मेरी बहिन पर कृपा करे।
सोमा ने पूरी बात
अपने पुत्र पुत्रवधुओ को बतायी तथा कहा .मैं इनके साथ जा रही हूं। मेरे वापस आने
तक यदि इस राज्य में किसी की मृत्यु हो जाए तो उस शव को सुरक्षित रखना। दाह कर्म
नही करने देना एउस मृतक की रक्षा करना।
सोमा ने अपने
तपोबल से दोनो भाई बहन को समुद्र पार उतार दिया ओर फिर सब कांचीपुर नगर पहुच गए।
सोमा का धनवती ने स्वागत सत्कार सम्मान आतिथ्य किया। पिता के निर्देश पर पुत्र शिव
स्वामी ने उज्जयनी नगर में पहुच कर एपंडित देवशर्मा के पुत्र रुद्रशर्मा को
आमंत्रित किया तथा विधिवत गुणवती बहिन का पाणि ग्रहण संस्कार रुद्रशर्मा के साथ
धोबिन सोमा की उपस्थिति में प्रारंभ हो गया परंतु सप्तपदी फेरे के मध्य रुद्रशर्मा
अचेत होकर गिर गया।
सब उपस्थितजन रुदन
करने लगे। सोमा शांत थी । सोमा ने मृत्युनाशक पुण्य, संकल्प कर विधिपूर्वक गुणवती के हाथ में दे दिया। इस पुण्य के प्राप्त होते ही
रुद्रशर्मा उठ बैठा।
सोमा ने धनवती को
व्रतराज सोमवती अमावस्या व्रत की विधि बतायी तथा गुणवती को आशीष देकर घर के लिये
प्रस्थित हो गयी।
सोमा को मार्ग मे
मृतको को जीवन देने वाली एसोमवती अमावस्या पडी। सोमा को मार्ग में एक रुई के बोझ
के नीचे दबी करुण क्रंदन करती हुई एक वृद्धा दिखी। सोमा उसके पास पहुची बोली मां
आज सोमवती अमावस्या है एमैं रुई को स्पर्श नही करती। इसके बाद एक वृद्धा लकडी जडो
से दबी दिखी उसकी याचना पर भी सोमा ने कहा मूल जड एमें मै सोमवती अमावस्या के कारण
स्पर्श नही करती। इसलिये आपकी सहायता नही कर सकती क्षमा करे।
फिर उसे एक पीपल
का वृक्ष नदी के किनारे दिखा। सोमा ने पीपल वृक्ष की भगवान विष्णु का ध्यान व पूजा
की पीपल वृक्ष की 108
परिक्रमा की।
सोमा के द्वारा जैसे
ही पाणिग्रहण संस्कार के समय मृत्युनाशी पुण्य गुणवता को दिया गया उसके पश्चात, उसके पुत्र पति तथा दामाद की मृत्यु एक एक कर
होती गयी। सोमा का घर वियोग जन्य विलाप करुण कंदन के कोहराम युक्त स्वरो से भर
गया। सास के निर्देशानुसार पुत्रवधुओ नेए मन पर धीरज घर उन सब मृतको के शव
सुरक्षित रख लिये थे।
सोमवती अमावस्या
की 108वी परिक्रमा करते ही एउसके सभी संबंधी पति, पुत्र दामाद उठ कर बैठ गए।
सोमा जब घर पहुंची
तो पुत्रवधुओ ने अपने 2 अपने तरीके से सब घटनाक्रम बताया।
सोमा बोली .मैने
सोमवती अमावस्या को व्रत रखा। पीपल वृक्ष तथा भगवान विष्णु की ध्यान. पूजा की एवं
रुई, जड मूल को स्पर्श नही किया। 108 परिक्रमा गुड की डलियो से की। मुझे ज्ञात है 108वीं परिकमा पूरी होते ही सब प्राणवान हो गए।
तुम सब अभी पीपल वृक्ष की पूजा विष्णु भगवान का मंत्र का जप एवं 108 प्रदक्षिणा करो ।
इस व्रत के प्रभाव
से वेधव्य ,पुत्र की आकस्मिक मृत्यु, दामाद मत्यु नही, आयु वृद्धि होती हैं ।यह सौभाग्य व्रत हैं, भीष्म ने यह व्रत अर्जुन एवं पांडवो को बताया।पूजा पश्चाताप विष्णवे नमः कहकर 108 परिक्रमा बच्चे धागे को बांधते हुए एवं प्रति
परिक्रमा गुड या शकर से 108
गोल गोल छोटे छोटे
बरगद के फल जैसे बना ले बरगदा पकवान किसी थाली में रखते जाए। बाद मे बच्चो के
वितरित कर दें।
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