हर तालिका
व्रत,कश्यप गोत्र-रक्षा बंधन पर्व-.मुहूर्त-हस्त नक्षत्र प्रमुख
मुहूर्त- 06:02 बजे से सुबह 08:33 बजे तक है।
- कश्यप गोत्र वाले ब्राह्मण सामवेदी ब्राह्मण जेसे -तिवारी, त्रिपाठी,तिवाड़ी, तेवारी,तेवाड़ी, त्रिवेदी ,दीक्षित आदि उपनामों से प्रचलित ब्राह्मण आज के दिन ‘हस्त’ नक्षत्र में ही ‘हरताली’ तीज पर जनेऊ धारण करते हैं.
सन्दर्भ ऋग्वेद- हरतालिका तीज रक्षा बंधन -
प्राचीन काल में ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ मुनि के नेतृत्व में शिवोपसक कश्यप गोत्र - सामवेद वाले ब्राह्मणों ने ,राजर्षि विश्वामित्र संरक्षण प्राप्त इच्छवाकु के वंशजों राजाओं से युद्ध किया था ,जिसे दशराज्ञ युद्ध कहते हैं।
जिसमें ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ मुनि के नेतृत्व वाले कश्यप गोत्र - सामवेद वाले ब्राह्मणों तिवारी एवं दीक्षित ब्राह्मणों की विजय हुई थी .
is कारण हम समस्त कश्यप गोत्री ब्राम्हणों ने याजुर्वेदोक्त पूर्णिमा पर रक्षाबंधन पर्व ना मनाकर तीज़ के अवसर पर रक्षाबंधन व उपाकर्म मनायते है एवं शिव उपासना करते है।
( संदर्भ-ऋग्वेद के सातवें खण्ड में वर्णित )
उत्तराखंड,कुमायूं,उत्तरप्रदेश-लखनऊ से आगरा तक,झारखंड धाम (गिरिडीह) : चिकसोरिया समाज, भूमिहार भाई, विशेष प्रचलित. ..
कलाई पर रक्षासूत्र बांधने से रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है और संक्रामक रोगों से लड़ने में मदद मिलती है
हरताली के दिन प्रातःकाल यज्ञोपवीत धारण किया जाता है.
- हरतालिका तीज के दिन भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा की जाती है |
शिव पुराण - कथानुसार
पावन व्रत को सबसे पहले राजा हिमवान की पुत्री माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए किया था . माता पार्वती के तप प्रसन्न होकर भगवान शिव ने पार्वती को पत्नी के रूप में स्वीकार किया था।
‘हर’ अर्थात कशों का हरण करने वाले,भगवान शिव के नाम के पूर्व ‘हर’ बोला जाता है .
शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती ने इस व्रत को रखा था,
इसलिए इस पावन व्रत का नाम हरतालिका तीज है ।
- सौभाग्य की रक्षा करने वाले इस व्रत को सौभाग्यवती स्त्रियां अपने अक्षय सौभाग्य और सुख की लालसा हेतु मनाती हैं।
-अविवाहित कन्या मनोनुकूल पति की प्राप्ति के लिए भी इस पवित्र पावन व्रत को श्रद्धा और निष्ठा पूर्वक करती है।
उत्तरा खंड में पूरा प्रदेश , उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार में व्यापक प्रसिद्द एवं प्रचलित है . चंपावत)। मां पूर्णागिरि धाम के सामवेदी और कोसमनि शाखा के तिवारी ब्राह्मणों का विशेष पर्व है.
अपने भाइयों को रक्षासूत्र बांधती हैं तथा उनके सौभाग्यशाली जीवन एवं दीर्घायुष्य की कामना करती हैं
“येन बद्धो बलि: राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥”.
अर्थात - जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानव नरेश राजा बलि को बांधा गया था, उसी रक्षाबन्धन से मैं तुम्हें बांधता हूं जो तुम्हारी रक्षा करेगा।
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कथा (संकलन)
श्री महादेव जी बोले - हे देवी ! हां सुनो, मैं तेरे सम्मुख उस व्रत को कहता हूं, जो परम गुप्त है,
- तारा गणों में चंद्रमा , ग्रहों में सूर्य, वर्णों में ब्राह्मण , नदियीं में गंगा, पुराणों में महाभारत, वेदों में सामवेद और इंद्रियों में मन श्रेष्ठ है, वैसे ही पुराणों और वेद सब में हरतालिका तीज का वर्णन है. जिसके प्रभाव से तुमको मेरा आधा आसान प्राप्त हुआ है। हे देवी ! मैं तुमसे वर्णन करता हूँ।
-भाद्र पद माह के शुक्ल पक्ष की हस्त नक्षत्र संयुक्त तृतीया के दिन इस व्रत का अनुष्ठान करने से सब पापों का नाश हो जाता है।
-तुमने पहले हिमालय पर्वत पर इसी महान व्रत को किया था, जो मैं तुम्हें सुनाता हूं।
पार्वती जी बोलीं- हे प्रभु! इस व्रत को मैंने किस लिए किया था वह मुझे सुनाने की इच्छा है, सो कृपा करके कहिए।
टैब शिवजी बोले –
पर्वतों में श्रेष्ठ हिमालय नमक एक पर्वत है, जो अनेक प्रकार की भूमि तथा विविध वृक्षों से परिपूर्ण है। उस पर्वत पर अनेक प्रकार के पक्षी, मृग, देवगढ़, गंधर्व, सिद्ध चरण और मुदित मन से विचरण करते रहते हैं. एवं गंधर्व गण निरंतर गान किया करते हैं। र्वत की चोटी स्फटिक, स्वर्ण, मणि, मुंगो से सुशोभित है। पर्वत आकाश के समान ऊँचा है। चोटी सदा बर्फ से ढकी रहती है, तथा गंगा का निरंतर निनाद होता रहता है।
हे पार्वती ! तुमने अपने बाल्यावस्था में , ! तुमने 12 वर्ष तक हमको प्राप्त करने की तपस्या की थी.
- माघ की महीने में कंठ तक जल में निवास कर,
- वैशाख मास के प्रखर धूमें अग्नि सेवन कर,
- श्रावण मास में घर से बहार वर्षा में भींग कर मेरी तपस्या निराहार रहकर आदि आदि कठिन ताप किया .
तुम्हारे इस उग्र तप को देखकर तुम्हारे पिता हिमवान बहुत ही दुखी एवं चिंतित हुए।
वे तुम्हारे विवाह के विषय में चिंतायुक्त हो गए, कि ऐसी तपस्विनी कन्या के लिए वर कहां से उपलब्ध हो सकेगा।
ऐसे ही समय में ब्रह्मपुत्र नारद जी आकाश मार्ग से तुम्हारे पिता के पास आये।
तुम्हारे पिता ने उन मुनिश्रेष्ठ की अर्घ, पद्य, आसन आदि दे कर पूजा की और हिमवान के कहा - वह मुनिवर ! आप अपने आने का कारण बताएं क्योंकि परम सौभाग्य से ही आप जैसे महानुभावों का आगमन होता है।
उत्तर में नारद जी ने कहा - हे पर्वत राज ! आप मेरे आने का कारण जानना चाहते हैं तो सुनिए, मुझे भगवान विष्णु ने आपके पास संदेशवाहक के रूप में भेजा है और कहा है कि अपने इस कन्या रत्न को किसी योग्य पुरुष के ही हाथ में अर्पित करें।
सम्पूर्ण देवों में वासुदेव से बढ़कर अन्य कोई देव नहीं है। इसलिए मेरी भी यही राय है कि आप अपने कन्या भगवान विष्णु को सौप कर जगत में यशस्वी बने।
नारद जी की बात सुनकर हिमालय ने कहा - यदि भगवान विष्णु ने इस कन्या को ग्रहण करें की इच्छा की है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है, क्यों कि आपकी सम्मति है, इसलिए अब आज से इस सम्बन्ध को निश्चित ही समझिए।
हिमवान द्वार इस प्रकार का निश्चयात्मक उत्तर पाकर नारद जी हमारे स्थान से अंतध्यान होकर शंख चक्र गदा एवं पद्मधारी विष्णु जी के पास उपस्थित हुए।
विष्णु भगवान से कहा –
हे देव! मैंने आपका विवाह संबंध पर्वतराज हिमालय की पुत्री से निश्चित कर दिया है। उधर हिमालय ने प्रसन्न होकर तुमसे कहा की, हे पुत्री! मैंने तुम्हारा विवाह भगवान विष्णु के साथ पक्का कर दिया है। पिता द्वार विपरीतार्थक वाक्य सुनकर तुम अपनी सखी के घर चली गई और वहीं भूमि पर लोट पॉट हो कर क्रंदन कर दुखी हो कर होकर अत्यंत विलाप करने लगी।
तुम्हें रुदन करते देखकर तुम्हारी सहेलियों ने तुमसे पूछा –
हे देवी ! तुम अपने दुख का कारण मुझे बताओ हम सभी निहसंदेह आपका कार्य पूरा करेंगे।
सखियो द्वार अश्वासन पाकर तुमने उत्तर दिया, सखी आप सभी सुनिए, मेरी इच्छा महादेव जी के साथ विवाह करने की है, परन्तु मेरे पिता ने मेरी इच्छा के विरुद्ध कार्य किया है, अर्थात उन्होंने विष्णु भगवान के साथ विवाह करने का नारद जी को वचन दे दिया है. इसलिए सखियां अब मैं अपने इस शरीर का निश्चित रूप से परित्याग करूंगी.
तुम्हारी सारी बात सुनकर सखियों ने कहा तुम घबराओ नहीं हम और तुम दोनों ही ऐसी घनघोर वन में निकल चले जहां पर तुम्हारी पिता न पहुंच सके।
इस प्रकार की गुप्त मंत्रणा करके तुम अपनी सखियों के साथ निर्जन वन में पलायन कर गई।
-तुम्हारी पिता हिमवान ने आस पड़ोस के घरों में तुम्हारी खोज की किन्तु तुम्हारा कहीं पता ना चला।
तुम्हारे पिता ने तुम्हें ना पाकर मन में संदेश दिया कि कहीं किसी देव, दानव, किन्नर आदि ने मेरी पुत्री का अपहरण तो नहीं कर लिया। वे इस सोच में भी पड़ गए कि मैं अब नारद जी को क्या जवाब दूंगा।क्योंकि मैंने उनसे भगवान विष्णु के लिए पुत्री के विवाह का वचन दिया था, अब मैं उपहास का पात्र बनूँगा, ऐसा सोचते सोचते पिता हिमवान मूर्छित हो गए, उनके संज्ञाशून्य हो गए.
हिमवान मूर्छित को देख कर , सभी लोग उनके समीप एकत्रित होकर उनसे पूछने लगे कि,
हे पर्वतराज ! आप अपनी मूर्छा अवस्था का कारण मुझे बताएं।
- हिमालय ने उन लोगों से कहा, मेरी कन्या का किसी ने अपहरण कर लिया है या हो सकता है किसी विषधर सांप ने डसलिया हो अथवा सिंह व्याघ्र आदि किसी पशु ने भक्षण कर लिया हो, यही मेरे दुःख का करण है ।
न जाने मेरी पुत्री कहां चली गई है ।अब मैं क्या करुं, ऐसा कहते हुए हिमालय इस प्रकार कांपने लगे, जैसे किसी प्रचंड आँधी में वृक्ष हिलते है, तत्पश्चात तुम्हारे पिता तुम्हारी खोज में भयानक जंगल के भीतर अग्रसर हुए।
-इधर तुम तो पहले से ही अपनी सखियों के सा
वहां एक गुफा भी थी. तुमने उसी गुफा में जाकर आश्रय लिया और निराहार रहकर मेरा बालुकामयी मूर्ति का स्थापन किया।
जब भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया हस्त नक्षत्र से युक्त tithi तृतीया आई तब तुमने उस दिन रात्रि में जागरण कर गीत वाद्य आदि के साथ मेरा भक्ति पूर्व पूजन किया। हे प्रिये! तुम्हारे द्वार की गई उस कठिन तपस्या एवं व्रत के प्रभाव से मेरा सिंहासन चलायेमान हो उठा और जहां तुम सखियों के साथ थी, उस स्थान पर मैं जा पहुंचा।
मैंने तुमसे कहा कि, हे वरानने ! मैं तुमसे अत्यंत प्रसन्न हूँ, तुम मुझसे अपना इच्छित वर प्राप्त कर लो।
तब उत्तर में तुमने कहा - हे देव ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न आप मुझे पतिरूप में प्राप्त हो। मैं 'तथास्तु ' कहकर पुनः अपने कैलाश पर्वत पर आ गया। मेरे चले आने के बाद तुमने प्रातः काल नदी में स्नान क्र मेरी स्थापित मूर्ति का विसर्जन किया। इतना करने के बाद तुमने अपनी सखियों के साथ पारण किया।
उसी समय तुम्हारे पिता हिमालय भी तुम्हें खोजते हुए उसी जंगल में आ गए। किन्तु वन की गहनता के कारन चारों ओर ढूंढने पर भी तुम्हारा कुछ भी पता उन्हें न चला। अब तो वे निराश हो कर भूमि पर गिर पड़े। पुनः उठने के बाद हिमालय ने दो कन्याओं को सुप्तावस्था में देखा। उन्होंने निकट आकर तुम्हें गोद में उठा लिया और रुदन करने लगे। रोते -रोते ही उन्होंने तुमसे पूछा कि, तुम इस घनघोर जंगल में क्यों आई?
पिता की बात सुनकर तुमने उनसे कहा कि - हे तात ! मैं अपना विवाह शिव जी के साथ करना चाहती थी, परंतु मेरी इच्छा के प्रतिकुल अपने विष्णु भगवान से मेरा विवाह निश्चित कर दिया था , इसी करण रूष्ट होकर मैं अपनी सखियों के साथ गृह का परित्याग कर यहाँ चली आई।
हे तात ! यदि आप मुझे घर ले जाना चाहते हैं, तो मुझे महादेव जी से विवाह करने की आज्ञा दीजिए। मेरा ऐसा ही दृढ़ निश्चय है।
तुम्हारे इस कठिन संकल्प को जानकर तुम्हारे पिता ने तथास्तु कहा, और वे तुम्हें अपने साथ घर वापस ले आए। घर वापस आने पर मेरे साथ तुम्हारा पाणी ग्रहण हुआ।
इसी व्रत के प्रभाव से तुमने अचल सौभाग्य प्राप्त कर लिया। मैंने आज तक व्रत का कथान किसी से नहीं किया है। हे देवी! तुम अपनी सखियों के द्वार हरण की गई इसी से इस व्रत का नाम हरितालिका है।
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