दुर्गा शाप,एक श्लोकी एवं लघु सप्तशती
क्रौच शाप
'सप्तशती' क्रौञ्च तथा वशिष्ठ द्वारा शापित है। क्रौन्य पर्वत ऋषि तपस्या करते थे। पर्वत टूटने से तपस्वियों को कष्ट हुआ, उनके, शाप' ( सात सौ मन्त्र ) से सप्तशती' शापित हो गई।
वशिष्ठ का शाप
वशिष्ठ ऋषि के पुत्र शक्ति ऋषि, देवी ' की आराधना सप्त शती मंत्रो से कर रहे थे। उनको विश्वामित्र जी ने मार डाला।
जब हो सकी, तो वशिष्ठ ऋषि ने
देवी ' सप्त शती के मंत्र , विश्वामित्र से पुत्र की रक्षा नही कर सके, तो वशिष्ठ ने'सप्तशती' को शाप दिया।
शाप मोचन के बिना पूर्ण फल नही मिलता-
शापों से मुक्ति मन्त्र -
- प्रत्येक पाठ करने के पूर्व इक्कीस बार शाप-मोच तथा इक्कीस बार उत्कीलन का जप करना चाहिये।
'शाप-मोचन' तथा 'उत्कीलन-मन्त्र'
ब्रह्म वशिष्ठ विश्वामित्र शापाद विमुक्ता भव।
1- शापमोचन मन्त्र- ॐ ह् सौं हसकरी हू से ॐ ह्रीं ह्रीं सौंः क्षम्ल प्लीं डम्ल क्ष्फ क्षां क्षीं क्षं क्ष क्षी कन्याभिराक्षिप्त षट् कर्माणि त्रोटय त्रोटय, सप्त-शन्मन्त्राणि जाग्रय जाग्रय, क्रौञ्च वशिष्ठयोश्च शाप निवृत्तिं कुरु कुरु, मोचय मोचय, हुँ फट् स्वाहा।
2- उत्कीलन मन्त्र —
ॐ क्लीं ह्रीं क्लीं विशुद्ध ज्ञान देहाय त्रिवेदी दिव्य-चक्षुषे । श्रेय प्राप्ति निमिते
नमः। सोमार्द्ध-धारिणे ह्रीं ऐं स्वाहा ॥
1लाल - वस्त्र,आसन हो।
2दीपक
घी का दीपक दायें तरफ और सरसो के तेल का दीपक बाएं तरफ रखें।
लघु सप्तशती- (मार्कण्डेय पुराण)
प्रतिदिन संपूर्ण सप्त शती पाठ नही कर सके तो आपदा विपदा नियंत्रण के लिए
लघु दुर्गा सप्तशती (मार्कण्डेय ऋषि कृत )का पाठ करे।
पठन श्रेष्ठ समय-
सूर्योदय से प्रथम घंटा। अष्टम घंटा या मध्य रात्रि- उच्च स्वर मे पठनीय।
- दुर्गा सप्तशती पाठ करने का फल प्राप्त होता है |
दुर्गा सप्तशती एक श्लोक में –आपत्ति एवं विपत्ति मुक्ति हेतु फलप्रद-
एक श्लोकी
दुर्गासप्तशती
" या अंबा मधु कैटभ प्रमथिनी,या माहिष उन्मूलिनी,
या धूम्रेक्षण चन्ड
मुंड मथिनी,या रक्त बीजाशिनी,
शक्तिः शुंभ निशुंभ
दैत्य दलिनी,या सिद्ध लक्ष्मी: परा,
सा दुर्गा नवकोटि विश्व
सहिता,माम् पातु विश्वेश्वरी।
लघु सप्तशती प्रारंभ
ॐ वीं वीं वीं वेणु हस्ते स्तुति विध वटुके हां तथा
तान माता स्वानन्दे नन्द रूपे अविहत निरुते भक्तिदे मुक्तिदे त्वम् |
हंसः सोहं विशाले वलय गति हसे सिद्धिदे वाममार्गे
ह्रीं ह्रीं ह्रीं सिद्ध लोके कष कष विपुले वीरभद्रे नमस्ते || १ ||
ॐ ह्रींकारं चोच्चरन्ती मम हरतु भयं चर्म मुण्डे
प्रचन्डे खां खां खां खड्ग पाणे ध्रक ध्रक ध्रकिते उग्र रूपे स्वरूपे |
हुं हुं हुंकार नादे गगन भुवि तथा व्यापिनी व्योम
रूपे हं हं हंकार नादे सुरगण नमिते राक्षसानां निहंत्री || २ ||
ऐं लोके कीर्तयन्ति मम हरतु भयं चण्ड रुपे नमस्ते
घ्रां घ्रां घ्रां घोररूपे घ घ घ घ घसिते घर्घरे घोर रावे |
निर्मांसे काक जङ्घे घसित नख नखा धूम्र नेत्रे
त्रिनेत्रे हस्ताब्जे शुल मुण्डे कल कुल कुकुले श्रीमहेशी नमस्ते || ३ ||
क्रीं क्रीं क्रीं ऐं कुमारी कुह कुहम अखिले
कोकिलेमअनुरागे मुद्रा संज्ञत्रि रेखां कुरु कुरु सततं श्रीमहामारी गुह्ये |
तेजोंगे सिद्धि नाथे मन उपवन चले नैव आज्ञा निधाने
ऐंकारे रात्रि मध्ये शयित पशु जने तंत्र कांते नमस्ते || ४ ||
ॐ व्रां व्रीं व्रुं व्रूं कवित्ये दहन पुरगते रुक्म
रूपेण चक्रे त्रिः शक्त्या युक्त वर्णादिक कर नमिते दादिवं पूर्ण वर्णे |
ह्रीं स्थाने कामराजे ज्वल ज्वल ज्वलिते कोशितै
अस्तास्तु पत्रे स्वच्छदं कष्ट नाशे सुरवर वपुषे गुह्य मुंडे नमस्ते || ५ ||
ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोर तुण्डे घ घ घ घ घ घ घे घर्घर
अन्यांघ्रि घोषे ह्रीं क्री द्रं द्रौं च चक्र र र र र रमिते सर्व बोध प्रधाने |
द्रीं तीर्थे द्रीं त्यज्येष्ठ जुग जुगज जुगे
म्लेच्छदे काल मुण्डे सर्वाङ्गे रक्त घोरा मथन करवरे वज्र दण्डे नमस्ते || ६ ||
ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम भित्ते गगन गड गड़े
गुह्ययोन्याहि मुण्डे वज्राङ्गे वज्र हस्ते सुरपति वरदे मत्त मातङ्ग रूढे |
सुतेजे शुद्ध देहे ल ल ल ल ललिते छेदिते पाश जाले
कुण्डल्य आकार रूपे वृष वृषभ हरे ऐन्द्रि मातर्नमस्ते || ७ ||
ॐ हुं हुं हुंकार नादे कष कष वसिनी माँसि वैताल हस्ते
सुंसिद्धर्षैः सुसिद्धिर्ढ ढ ढ ढ ढ ढ ढ़ः सर्वभक्षी प्रचन्डी |
जूं सः सौं शांति कर्मे मृत मृत निगडे निःसमे
सीसमुद्रे देवि त्वं साधकानां भव भय हरणे भद्रकाली नमस्ते || ८ ||
ॐ देवि त्वं तुर्यहस्ते कर धृत परिघे त्वं वराह
स्वरूपे त्वं चेंद्री त्वं कुबेरी त्वमसि च जननी त्वं पुराणी महेन्द्री |
ऐं ह्रीं ह्रीं कारभूते अतल तल तले भूतले स्वर्ग
मार्गे पाताले शैल भृङ्गे हरि हरभुवने सिद्धि चंडी नमस्ते || ९ ||
हँसि त्वं शौंड दुःखं शमित भव भये सर्व विघ्नान्त
कार्ये गां गीं गूं गैंषडंगे गगन गटि तटे सिद्धिदे सिद्धि साध्ये |
क्रूं क्रूं मुद्राग जांशो गस पवन गते त्र्यक्षरे वै
कराले ॐ हीं हूं गां गणेशी गज मुख जननी त्वं गणेशी नमस्ते || १० ||
|| श्री मार्कण्डेय कृत लघु सप्तशती दुर्गा स्तोत्रं
जगदम्बा अर्पणम अस्तु।।
दाहिने कर मे जल लेकर पृथ्वी पर छोड़ दे
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