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संकष्टी चतुर्थी वक्र तुंड चतुर्थी-व्रत पूजा विधि

 

संकष्टी चतुर्थी वक्र तुंड चतुर्थी-व्रत पूजा विधि

 ( संकटों से मुक्ति का पर्व ,संदर्भ ग्रंथ  - भविष्योत्तर पुराण)

 माघ कृष्ण पक्ष की चतुर्थी वक्रतुंड चतुर्थी यह संकष्टी चतुर्थी के नाम से प्रसिद्ध है।

 वर्ष की समस्त कृष्ण पक्ष चतुर्थी  व्रत का आरंभ इस दिन से ही होता है ।

 संकल्प का मंत्र - पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह कर हाथ हथेली में लिया हुआ जल पृथ्वी पर छोड़टे हुए निम्न मन्त्र बोल कर व्रत करना चाहिए।

 

गणपति प्रीयते संकष्ट चतुर्थी व्रतम करिष्ये। 

(है गणेश जी आपकी प्रसन्नता के लिए संकष्ट छातुर्थी का व्रत करूँगा /करुँगी।)

 इस माह से व्रत प्रारंभ करके वर्ष भर करने पर समस्त प्रकार के संकटों का नाश होता है।

पौराणिक ग्रंथ - इस व्रत में गणेश एवम् चंद्र की पूजा का विशेष महत्व है।

   सायंकाल के  समय भगवान विघ्नेश्वर गणेश जी की पूजा करना चाहिए।

 गम गणपतये नमः ।या गणेश चालीसा  पढ़ें।  रात्रि में  चंद्रमा को उदय होते समय जल से अर्घ्य दें ।

 ओम चंद्रमसे नमः जलम समर्पयामि।।

कथा-

एक समय मुनि एवं देवता गण भगवान शिव शंकर के पास संकट मुक्ति की याचना प्रार्थना लेकर पहुंचे।ईश्वर शिव ने अपने दोनों पुत्रों(कार्तिकेय एवं गणेश ) से पूछा ,इनकी समस्या कौन निराकृत  करेगा ?

कार्तिकेय व गणेश जी दोनों ने ही कहा –हम समर्थ हैं ,आप आदेश दे हम समस्या दूर कर देंगे।।

भगवान शिव ने कहा कि पुत्रों तुम दोनों में से जो सबसे पहले पृथ्वी की परिक्रमा करके आएगा वही देवताओं की मदद करेगा ।

परम पिता  शिव के मुख से यह वचन सुनकर सर्व प्रथम  कार्तिकेय अपने वाहन मोर पर बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकल गए।\

गणेश जी सोच विचार कर , अपने स्थान से उठें और अपने माता-पिता की सात बार परिक्रमा करके वापस बैठ गए।

परिक्रमा करके लौटने पर कार्तिकेय ने स्वयं को विजेता बताया ।

 शिव जी ने श्री गणेश से पृथ्वी की परिक्रमा ना करने का कारण पूछा।

गणेश ने कहा- 'माता-पिता पृथ्वी ही नहीं ,व तो समस्त लोक ही हैं।'

यह सुनकर भगवान शिव ने गणेश जी को देवताओं के संकट दूर करने का अधिकार दिया ।

भगवान शिव ने गणेश जी को आशीर्वाद दिया कि –“माघ चतुर्थी के दिन जो तुम्हारा पूजन एवं  रात्रि में चंद्रमा को अर्घ्य देगा उसके तीनों कष्ट यानी दैहिक, दैविक तथा भौतिक कष्ट या संकट  दूर होंगे।व्रत करने वाले की समस्त समस्याएँ दूर होंगी एवं जीवन के भौतिक सुखों की प्राप्ति होगी। सुख-समृद्धि ,पुत्र-पौत्रादि, धन-ऐश्वर्य वृद्धि होगी ।“

 

पूजन

शुद्ध जल,दूध,दही,शहद,घी,चीनी,पंचामृत,वस्त्र,जनेऊ,मधुपर्क,सुगंध,लाल चन्दन,रोली,सिन्दूर,अक्षत(चावल),फूल, ,बेल पत्र,दूब,शमी पत्र,गुलाल,आभूषण, ,धूपबत्ती,दीपक,प्रसाद,फल,गंगाजल,पान,सुपारी,मौली या कलावा ,कपूर।

                                                  

आवाहन आगच्छ उल्काय नम:|

    गजाननं भूत गणादि सेवितम कपित्थ जम्बू फल चारू भक्षणं।

उमा सुतम शोक विनाश कारकं नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम।|

  आगच्छ भगवन्देव स्थाने चात्र स्थिरो भव।

  यावत्पूजा करिष्यामि तावत्वं सन्निधौ भव।|

मूल मन्त्र- गं नम:,गाँ स्वाहा,गीं स्वाहा,गुं स्वाहा,गूं स्वाहा ,गें स्वाहा,गों स्वाहा,गं स्वाहा|

1'ॐ गं गणपतये नमः।

2ॐ श्रीं गं सौम्याय गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा।

3 प्रणम्य शिरसा देवं गौरी विनायकम् ।
भक्तावासं स्मेर नित्यमाय्ः कामार्थ सिद्धये ॥1

प्रथमं वक्रतुडं च एकदंत द्वितीयकम् ।
तृतियं कृष्ण पिंगात्क्षं गज वक़त्रं चतुर्थकम् ॥2

लंबोदरं पंचम च पष्ठं विकटम एव च ।
सप्तमं विघ्न राजेंद्रं धूम्र वर्णम तथा अष्टक़म् ॥3

नवमं भाल चंद्रं च दशमं तु विनायकम् ।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजानन्म ॥4

जप हवन –

श्रीं गं सौम्याय गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वशमानाय स्वाहा।

हवन विधि

हवन मे आम की लकड़ी वर्जित एवं पीपल वट,गूलर , पलाश आदि लकड़ी का ही प्रयोग करें।

 काले तिल से आधे जौ, जौ से आधे चावल।

संक्षिप्त हवन विधि-
ऊं अग्नये नमः अग्नि प्रज्वलन करे ।
ऊं गुरुभ्यो नमः ।
आहुति मंत्र-

ऊं अग्नये स्वाहा . ऊं गं  स्वाहा
ऊं भैरवाय स्वाहा \ऊं गुरुभ्यो नमः स्वाहा \

ऊं गं गणपतये स्वाहा।

क्षमा-

यानि कानि च पापानि जन्मान्तर कृतानि च।

तानि तानि विनश्यन्ति प्रदक्षिण पदे पदे ..|

प्रदक्षिणा नमस्कारान् समर्पयामि . ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . समस्त राजोपचारान् समर्पयामि . ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . मंत्र पुष्पं समर्पयामि।

आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनं।

पूजाविधिं न जानामि क्षमस्व पुरुषोत्तम।

क्षमापनं समर्पयामि।

ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . पुनरागमनाय च।|

 

।।श्री गणपति अथर्वशीर्ष।। अथर्ववेदीय ।। 

ॐ नमस्ते गणपतये।

त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि, त्वमेव केवलं कर्ताऽसि

त्वमेव केवलं धर्ताऽसि,त्वमेव केवलं हर्ताऽसि

त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि ,त्व साक्षाद आत्मा असि नित्यम्।।1।।

ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि।।2।।

अव त्व मां। अव वक्तारं।अव श्रोतारं। अव दातारं।

अव धातारं। अवानूचानमव शिष्यं।अव पश्चातात। अव पुरस्तात।

अवोत्तरात्तात। अव दक्षिणात्तात्।अव चोर्ध्वात्तात्।। अवाधरात्तात्।।

सर्वतो मां पाहि-पाहि समंतात्।।3।।\

त्वं वाङ्‍मयस्त्वं चिन्मय:।त्वमआनंदम सयस्त्वं ब्रह्म मय:।

त्वं सच्चिदानंदा द्वितीयो असि।त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।

त्वं ज्ञानमयो विज्ञान मयोसि।।4।।

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते।सर्वं जगदिदं त्वत्त अस्तिष्ठति।

सर्वं जगदिदं त्वयि लयम इष्यति।सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति।

त्वं भूमि रापोनलो निलो नभ:। त्वं चत्वारि वाक्पदानि।।5।।

 

त्वं गुण त्रया तीत: त्वम अवस्था त्रयातीत:।त्वं देहत्रयातीत:।

त्वं काल त्रयातीत:।त्वं मूलाधार स्थितो सि नित्यं।

त्वं शक्ति त्रयात्मक:।त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं।

त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रूद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं

वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्म भूर्भुव: स्वरोम्।।6।।

गणादि पूर्वम उच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं।

अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितं।

तारेण ऋद्धं। एतत्तव मनु स्वरूपं।

गकार: पूर्वरूपं। अकारो मध्यम रूपं।

अनुस्वारश्चान्त्यरूपं। बिन्दुरूत्तर रूपं।

नाद: संधानं। सं हिता संधि:सैषा गणेश विद्या।

 गणक ऋषि:निचृद्गायत्रीच्छंद:। गणपतिर्देवता।

ॐ गं गणपतये नम:।।7।।

एकदंताय विद्‍महे।वक्रतुण्डाय धीमहि।

तन्नो दंती प्रचोदयात।।8।।

 

एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुश धारिणम्।

रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषक ध्वजम्।

रक्तं लंबोदरं शूर्प कर्णकं रक्त वाससम्।

रक्त गंधा अनुलिप्ता अगं रक्त पुष्पै: सुपुजितम्।।

भक्त अनुकंपिनं देवं जगत्कारणम अच्युतम्।

आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृ‍ते पुरुषात्परम्।

एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:।।9।।

 

नमो व्रातपतये। नमो गणपतये।

नम: प्रमथ पतये।नमस्ते अस्तु लंबोदराय एकदंताय।

विघ्न नाशिने शिव सुताय।श्रीवरद मूर्तये नमो नम:।।10।।

एतद अथर्वशीर्ष यो धीते।स ब्रह्म भूयाय कल्पते।

स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते।स सर्वत: सुखमेधते।

स पञ्च महा पापात्प्रमुच्यते।।11।।

 


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