चार माह (चतुर्मास) क्या करे ,क्या नहीं करे ? परुष एवं श्री सूक्त पाठ अर्थ सहित | (पंडित विजेंद्र तिवारी – ज्योतिष एवं कर्मकांड मर्मज्ञ )
चार माह
(चतुर्मास) क्या करे ,क्या नहीं करे ?
(पंडित विजेंद्र तिवारी –
ज्योतिष एवं कर्मकांड मर्मज्ञ )
(संदर्भ ग्रंथ- स्कंद पुराण, भविष्य पुराण,पद्म पुराण,निर्णय
सिंधु,अगस्त्य सहिता,हेमाद्रि,)
पूजा,अर्चना के लिए विशेष उपयोगी चतुर्मास अवधि है।
चातुर्मास 4 महीने की अवधि है, जो आषाढ़ शुक्ल एकादशी से प्रारंभ होकर कार्तिक
शुक्ल एकादशी तक चलता है।
-देवशयनी
एकादशी से श्री विष्णु पाताल के राजा बलि के यहां चार मास निवास करते हैं|-
चातुर्मास 4 माह हैं- श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक।
चातुर्मास के प्रारंभ को 'देवशयनी एकादशी' कहा जाता है और अंत को 'देवोत्थान एकादशी'।
चार महीने विष्णु के नेत्रों में योगनिद्रा-
ब्रह्मवैवर्त पुराण -
योगनिद्रा ने भगवान विष्णु
को प्रसन्न किया और प्रार्थना की आप मुझे अपने अंगों में स्थान दीजिए । श्री विष्णु
ने अपने नेत्रों में योगनिद्रा को स्थान कहा कि तुम वर्ष में चार मास मेरे नेत्रो मे रहोगी।
· हिन्दू धर्म के त्योहारों का अधिकांश चौमासा /4माह मे आते हें |बौद्ध एवं जैन धर्म मे इन 4 माह का विशेष महत्व
है |
एकादशी को विष्णु / हरि एवं
पूर्णिमा प्रदोष काल मे शिव / हर शयन
करते हैं -
व्याघ्र चर्म पर, जटा सर्प बंधन , उमा
पति शिव शयन करते है।
पूजा,अर्चना के लिए विशेष उपयोगी चतुर्मासअवधि है।
चतुर्मास में भगवान
नारायण जल पर शयन करते हैं।
चतुर्मास में भगवान नारायण जल पर शयन करते हैं।
प्रातः स्नान karna chaiye तीर्थ स्नान फल प्रदाता।
चार माह मूर्ति स्पर्श विष्णु जी की
वर्जित |
पीत वस्त्रों से सजाकर श्री हरि की आरती फल,सुगंध,पान-सुपारी अर्पित करने के बाद इस मन्त्र के द्वारा
स्तुति करें।
'सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत सुप्तं भवेद इदम।
विबुद्धे त्वयि बुध्येत जगत सर्वं चरा चरम।'
'हे जगन्नाथ जी! आपके शयनपर यह सारा जगत सुप्त हो जाता है और आपके जाग जाने पर सम्पूर्ण विश्व तथा चराचर भी जागृत होता हैं ।
प्रार्थना करने के बाद भगवान को श्वेत
वस्त्रों की शय्या पर शयन करा देना चाहिए।
स्वास्थ्य-
4 माह में पाचन शक्ति कमजोर होती है|
क्या करे-नियम-
-4 महीने सूर्योदय से पहले उठना ,स्नान करना
अधिकतर समय मौन रहना चाहिए।
वर्जित कार्य :
4 माह - भगवान नारायण के शयन से विवाह, यज्ञोपवीत संस्कार, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, गोदान, गृहप्रवेश आदि सभी मंगल कार्य निषेध हैं।
तन- मन दोष नाशक-
जलाशय जल ही तीर्थ- स्नान भगवान विष्णु शेष शैय्या पर शयन करते है|
४ महीने सभी जलाशयों में तीर्थत्व प्रभाव ।
-स्वास्थ्यवर्ध्क या रोग नाशक स्नान
1जुलाई से कार्तिक तक छोटी नदियों में स्नान वर्जित .
(गंगा नर्मदा सतलज यमुना
आदि बड़ी नदियों के अतिरिक्त अन्य नदियों में स्नान ।)
नदी के किनारे रहने वाले वर्ग के लिए
छोटी नदियों में भी स्नान वर्जित नहीं होता ।
प्रातः स्नान तीर्थ स्नान फल प्रदाता।
जल शुद्धि एवम दोष निवारणविधि |
- दो बार स्नान करना चाहिये।
- आंवला-मिश्री
जल से स्नान महान पुण्य प्रदान करता है।
-बेलपत्र डालकर ,पिसे हुए तिल, आंवला-मिश्री और जौं को बाल्टी जल मे मिलकर स्नान ।
स्नान जल शुद्धि एवम दोष निवारण विधि
जल में तिल ,बेल पत्र, आँवले का चूर्ण डालिए, ऐसे जल से स्नान जल के दोष दूर करता है।
ओज ,तेज और बुद्धि बढ़ाएँ-
1-व्रत चार माह करे या चातुर्मास में इन 4 महीनों में दोनों पक्षों की एकादशी का व्रत करना
चाहिये।
2-पुरुष सूक्त का पाठ करे बुद्धि विकास के लिए|
3- भ्रूमध्य
में ॐ का ध्यान बुद्धि वृद्धि |।
- दान, दया और इन्द्रिय संयम करने वाले को उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है।
2-व्रत मे वर्जित भोजन -
तेल, बैंगन, पत्तेदार सब्जियां, दूध, शकर, दही, नमकीन या मसालेदार भोजन, मिठाई, सुपारी, मांस और मदिरा का सेवन नहीं ।
-3- 4माह वर्जित भोजन सामग्री –
त्याज्य पदार्थ - चार माह भोजन मे वर्जित।-
वर्जित- नीबू, मूली, कुम्हडा, गन्ना, नमक, इमली, बेर, सावा, मसूर, उड़द, सलगम, पोइ, गाँठ गोभी, कुंदरू, मटर, चना,तरबुज,खरबूजा,बेल फल,गूलर,भुना एव्ं जला पदार्थ,बथुआ,नेपाली
धनिया,।
श्रावण माह - शाक,भाजी,पत्ते वाली भोजन सामग्री।
भाद्र माह दही ।
आश्वनि या क्वार माह मे दूध। करेला।
कार्तिक माह मे - दाल।
बहुत बीज वाली सब्जी
जैसे भटा, बेगन,परवल, करेला, कददु, भिंडी ।
बरबटी,मांस आहार।
आषाढ़-( जामुन का उपयोग करें)
प्रयोग ना करें-
तांबे के पात्र में रखा हुआ पानी बाजरा ,उड़दतुरई ,बैंगन ,गाजर ,मूली ,फूल गोभी ,पत्ता गोभी बेल ,केसर एवं हापुस आमजायफल ,जावित्री ,इमली अलसी, मूंगफली ,रिफाइंड तेल ,वनस्पति घी ,बटर ,पनीर ,दही।
श्रवण माह( सूखी सब्जी खाना चाहिए,पीतल या तांबे के बर्तन में पानी पियें)
प्रयोग नहीं करें
मसूर, चना बैंगन, तुरई ,अरबी ,जिमीकंद, कुंदरु ,काकडी ,नया आलू ,शकरकंद ,गाजर ,मूली ,चुकंदर ,फूल गोभी ,पत्ता गोभी ,भिंडी, पालक तरबूज, खरबूजाअदरक, हरीमिर्च ,हरा धनिया, इमली दूध ,पनीर, चीज, मावा ,प्याज
-पपीता ,लौंग, मूंगफली
तेल ,छेना , लौकी ,करेला |
भाद्रपद माह
प्रयोग ना करें- दही,मोठ ,उड़द ,मसूर, चना ,परवल ,लौकी ,भिंडी ,करेला ,बैंगन ,फ्राई अरबी, जिमीकंद कुंदरु ,ककड़ी ,नया आलू ,गाजर ,मूली ,चुकंदर ,फूल गोभी ,पत्ता गोभी ,पालक ,तरबूज, खरबूजा, पपीता पोदीना, हरी मिर्च ,हरा धनिया ,अदरक ,इमली ,जावित्री ,मूंगफली का तेल ,रिफाइंड तेल, श्रीखंड दही लस्सी ,गन्ना ,काजू ,पिस्ता
अश्वनी माह
प्रयोग ना करें- छाछ,तांबे के पात्र का पानी , बाजरा ,उड़द ,कुंदरु, कुंदरु, करेला ,जिमीकंद ,सूप टमाटर ,आलू ,अरबी ककड़ी, बैंगन ,शकरकंद ,गाजर ,मूली ,चुकंदर ,फूल गोभी ,पालक, पत्ता गोभी ,तरबूज ,खरबूज ,पपीता ,सो हरी मिर्च ,लाल मिर्च ,हरा धनिया, ही ग्राही मेथी, अजवाइन, अदरक ,सूट लॉन्ग जावित्री ,इमली ,तिल का तेल सरसों का तेल ,अलसी का तेल, मूंगफली ,रिफाइंड तेल, कड़ी ,दही, श्रीखंड, लस्सी ,छाछ ,पनीर, शहद ,काजू पिस्ता
कार्तिक माह
प्रयोग ना करें
सूखे मेवे ,गेहूं ,उड़द ,कुल्थी ,प्याज ,लहसुन ,का कूड़ा ,बैंगन ,शकरकंद, गाजर, मूली, फूल गोभी पत्ता गोभी पालक ,तरबूज ,खरबूज ,चुकंदर ,कुंदरु, करेला, जिमीकंद ,टमाटर ,आलू ,अरबी, चुकंदर, पपीता, लाल मिर्च हरी मिर्च ,सिंह मेथी, अजवाइन ,सूट ,जायफल ,जावित्री ,रिफाइंड ,तेल तिल का तेल, सरसों का तेल, अलसी का तेल ,दही ,छाछ ,लस्सी ,शहद ,ढोकला ,इडली,खमीर वाली चीजें ,काजू ,पिस्ता ,लज तांबे के पात्र का पानी |
प्रिय भोज्य पदार्थ त्याग
मोह नाशक सुख दाई
-प्रिय भोज्य पदार्थ त्याग
अर्थात चार माह न खाने का संकल्प करे।
-यह आलू, पीज़ा, पोहा,बिस्कुट,चाऊमिन, दूध, चाय, काफी
कोई भी पदार्थ जो दैनिक
जीवन मे सर्वाधिक आवश्यक हो, उसका परित्याग।
त्याज्य पदार्थ वस्तु
धातु रंग
-नमक, बेगन, अलुमिनियम, काँच,चीनी मिट्टी,ताम्र पात्र ,नीला,काला रंग वस्त्र,वस्तु मे परित्याग
महत्वपूर्ण| पूर्तकर्म
(परोपकार एवं धर्म कार्य) मनोकामना पूरक होते हैं ।
-सेंधा एवम काला नमक का दोश
अति अल्प है।
-पलाश या केले के पत्ते का
उपयोग् उत्तम।
श्रेष्ट एक समय भोजन
(द्वादशाह यज्ञ’ फल ) ।
-एक अन्न भोजन उपयोग निरोगी
काया-
-अन्न मे (दाल, चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा, गेहूं आदि मे) किसी एक का चार माह उपयोग करे अन्य
नहीं।पेय, फल, सब्जी, सिंघाडा या उसका आटा प्रयोग कर सकते हैं।
पाप नाशक पुण्य उदय उपाय
चार माह दूध एवम उससे
निर्मित पदार्थ एवम फल का ही उपयोग करे।
किस वस्तु परित्याग से क्या फल मिलता है -
1गुड
के परित्याग से मधुर स्वर ।
2तेल
के प्रत्यक्ष सुंदरं अंग ।
3सरसों
के तेल के त्याग से शत्रु नाश ।
4तांबूल
त्याग से सौंदर्य एवं चेतना।
5घी
के त्याग से शारीरिक कांति।
6शाक
पत्र त्याग से निर्मलता।
7भूमि
शयन से मुनियों जैसी श्रेष्ठता ।
8एक
दिन छोड़ कर भोजन (चावाल नही)से ब्रह्मलोक ।
9नाखून
एवं बाल नहीं कटवाने से गंगा स्नान का फल ।
10मौन
व्रत से उसके बचन खाली नहीं होते एवं उसके आदेश निर्देशों का पालन होता है।
11भूमि
पर भोजन करने से भूमि संबंधित सुख एवं भूमि का स्वामित्व मिलता है।
12नारायण
स्त्रोत ,श्री सूक्त, पुरुष
सूक्त पढ़ने से विष्णुलोक प्राप्त होता है।
13बिना
मांगे भोजन करने से धार्मिक पुत्र सुख मिलता है ।
14अतिअल्प
भोजन स्वर्ग सुख प्राप्त होता है ।
15पत्ते
पर भोजन से कुरुक्षेत्र का फल मिलता है।
16गुड
तांबे के पात्र में रखकर दान देने से या नमक दान करने से यश एवं प्रतिष्ठा में
वृद्धि होती है ।
17शिव
के अंगों की पूजा करने से रूद्र लोक प्राप्त होता है और विद्वान विद्वता प्राप्त
होती है।
पूजा मे वर्जित -
पुष्प एवं पत्ते
आषाढ़ शुक्ल एकादशी
से कार्तिक शुक्ल एकादशी की अवधि मे पूजा मे वर्जित- दुर्वा, शमी, अपमार्ग, भृङ्गराज् ।
---- श्रावण में पत्तेदार सब्जियां यथा पालक, साग इत्यादि, वर्जित |
-भाद्रपद में दही वर्जित |,
आश्विन में दूध वर्जित |,
कार्तिक में प्याज, लहसुन और उड़द की दाल आदि वर्जित है।
भोजन पात्र /बर्तन धातु /पत्ते-
1-पलाश पर्ण -‘स्कन्द पुराण’ -चातुर्मास में पलाश (ढाक) के पत्तों में या इनसे बनी पत्तलों में
किया गया भोजन चान्द्रायण व्रत एवं एकादशी व्रत के समान पुण्य प्रद है।
-पलाश पत्तों में भोजन त्रिरात्रि व्रत के समान पुण्यदायक और पाप नाशक
2- बड़ / वट /बरगद ( पत्तों) पत्तल - पत्तल पर किया गया भोजन पुण्यप्रद।
3- केला पत्ता
भोजन रुचि वर्धक ,फूड poisioning या गैस दोष का नाश करने वाल होता है |
5-पित्त शमन व रक्त शुद्धि -काँसे के पात्र –बुद्धि वर्द्धक, ।
6--ॐ नमः शिवाय 5 जप कर फिर सिर पर डाला पानी का, तो पित्त बीमारी, कंठ का सूखना, चिड़चिड़ा स्वभाव कम |
7- पलाश
के पत्तों पर भोजन पापनाशक पुण्यदायी होते हैं, ब्रह्मभाव को प्राप्त कराने वाले होते हं।
स्वास्थ्य?अम्लपित्त, रक्तपित्त, त्वचाविकार, यकृत व हृदयविकार से पीड़ित व्यक्तियों के लिए
काँसे के पात्र उपयोगी हैं।
-मौन व्रत सर्वाधिक
महत्वपूर्ण।
ज्ञान,मनोबल,अतिन्द्रिय शक्ति आध्यात्मिक चेतना वृद्धि।
-भूमि पर शयन, ब्रह्मचर्य , उपवास, जप, ध्यान, दान-पुण्य आदि विशेश लाभप्रद होते हैं ।
गाय, भूमि, विद्या या शिक्षा ( शिक्षा से संबंधित वस्तुये यथा
पुस्तक, पेन पेंसिल, शुल्क, निशुल्क ट्यूशन)।
प्रतिदिन पठनीय या श्रवण
पुरुश सूक्त, रुद्र सूक्त, श्री सूक्त पाठ प्रतिदिन ईश कृपा, विघ्न नाशक एवम लक्ष्मीप्रद।
पुरुsh सूक्त
सहस्त्र शीर्षा
पुरुश:सहस्राक्ष:सहस्र पात् |
स भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्य तिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ||१||
जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुश
हैं, वे सारे ब्रह्मांड को आवृत करके भी दस अंगुल शेश
रहते हैं ||१||
पुरुशSएवेदं सर्व यद्भू तं यच्च भाव्यम् |
उतामृतत्यस्येशानो यदन्ने
नाति रोहति ||२||
जो सृष्टि बन चुकी, जो बननेयुक्ता है, यह सब
विराट पुरुश ही हैं | इस अमर जीव-जगत
के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं ||२||
एता वानस्य महिमातो
ज्यायाँश्च पूरुषः |
पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्या मृतं दिवि ||३||
विराट पुरुश की महत्ता अति विस्तृत है | इस श्रेष्ठ पुरुश के एक चरण में सभी प्राणी
हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं ||३||
त्रिपाद उर्ध्व
उदैत्पुरुश:पादोSस्येहा भवत्पुनः |
ततो विष्वङ्
व्यक्रामत्साशनान शनेSअभि ||४||
चार भागोंवाले विराट पुरुश के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है | इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्षमें समाये हुए हैं ||४||
ततो विराड जायत विराजोSअधि पूरुषः |
स जातोSअत्य रिच्यत पश्चाद्भूमि मथो पुर: ||५||
उस विराट पुरुश से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ | उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न
हुए | वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर
शरीरधारियों को उत्पन्न किया ||५||
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत:
सम्भृतं पृशदाज्यम् |
पशूंस्न्ताँश्चक्रे
वायव्या नारण्या ग्राम्याश्च ये ||६||
उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ(जिससे
विराट पुरुश की पूजा होती है) | वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुश के द्वारा ही हुई ||६||
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतSऋचः सामानि जज्ञिरे |
छन्दाँसि जज्ञिरे
तस्माद्यजुस्तस्माद जायत ||७||
उस विराट यज्ञ पुरुश से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ | उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात्
वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ ||७||
तस्मादश्वाS अजायन्त ये के चोभयादतः |
गावो ह जज्ञिरे
तस्मात्तस्माज्जाताSअजावयः ||८||
उस विराट यज्ञ पुरुश से
दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुश से गौए, बकरिया और भेड़s आदि पशु भी उत्पन्न हुए ||८||
तं यज्ञं बर्हिषि
प्रौक्षन् पूरुषं जातमग्रत:|
तेन देवाS अयजन्त साध्याS ऋशयश्च ये ||९||
मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुश
को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांड
रूपयज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुश से
ही यज्ञ (आत्मयज्ञ ) का प्रादुर्भाव किया ||९||
यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा
व्यकल्पयन् |
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू
किमूरू पादाSउच्येते ||१०||
संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुश का, ज्ञानीजन
विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी
कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख
क्या है ? भुजा, जाघें और
पाँव कौन-से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुश किस प्रकार पूर्ण बना ? ||१०||
ब्राह्मणोSस्य मुखम आसीद् बाहू राजन्य: कृत: |
ऊरू तदस्य यद्वैश्य:
पद्भ्या शूद्रोS अजायत ||११||
विराट पुरुश का मुख ब्राह्मण अर्थात् ज्ञानी (विवेकवान) जन हुए | क्षत्रिय अर्थात पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं | वैश्य अर्थात् पोशणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी
व्यक्ति उसके पैर हुए ||११||
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो:
सूर्यो अजायत |
श्रोत्रा द्वायुश्च
प्राणश्च मुखाद अग्निर जायत ||१२||
विराट पुरुश परमात्मा के मन
से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, कर्ण से
वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि का प्रकटीकरण हुआ ||१२||
नाभ्याSआसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत |
पद्भ्यां भूमिर्दिश:
श्रोत्रात्तथा लोकांर्Sअकल्पयन् ||१३||
विराट पुरुश की नाभि से अंतरिक्ष, सिर से
द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं | इसी
प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया
है) ||१३||
यत्पुरुषेण हविषा देवा
यज्ञमतन्वत |
वसन्तोSस्यासीदाज्यं ग्रीष्मSइध्म:
शरद्धवि: ||१४||
जब देवों ने विराट पुरुश रूप को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन(समिधा)
ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई ||१४||
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रि:
सप्त: समिध: कृता:|
देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम् ||१५||
देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें
विराट पुरुश को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से
बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं ||१५||
यज्ञेन यज्ञमयजन्त
देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् |
ते ह नाकं महिमान: सचन्त
यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा: ||१६||
आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने, यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया | यज्ञीय जीवन जीनेवाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के
साध्य देवताओं के निवास, स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं ||१६||
ॐ शांति: ! शांति: !!
शांति: !!!
श्रीसूक्त ऋग्वेद के
पांचवें मण्डल के अन्त में है ...
तीन बार आचमन करें-
श्री महालक्ष्म्यै नमः ऐं
आत्मा तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
अर्थ- श्री महालक्ष्मी को मेरा नमन । मैं आत्मा
तत्व को शुद्ध करता हूं।
श्री महालक्ष्म्यै नमः ह्रीं
विद्या तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा |
अर्थ- श्री महालक्ष्मी को
मेरा नमन। मैं विद्या तत्व को शुद्ध करता हूं।
श्री महालक्ष्म्यै नमः
क्लीं षिव तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा |
अर्थ-श्री महालक्ष्मी को
मेरा नमन। मैं शिव तत्व को शुद्ध करता हूं।
संकल्प-
दाएं हाथ में चावल,जल लेकर संकल्प करें-
हे मां लक्ष्मी, मैं समस्त कामनाओं की पूर्ति के लिए श्रीसूक्त
लक्ष्मी जी की जो साधना कर रहा हूं, आपकी कृपा के बिना कहां संभव है। हे माता श्री
लक्ष्मी, मुझ पर
प्रसन्न होकर साधना के सफल होने का आशीर्वाद दें। (हाथ के चावल भूमि पर चढ़ा दें।)
विनियोग –
(दाएं हाथ में जल लें।)
मंत्र: ¬ हिरण्यवर्णामिति पंशदशर्चस्य सूक्तस्य, श्री आनन्द, कर्दम चिक्लीत, इन्दिरा सुता महा ऋशयः। श्रीरग्निदेवता ।
आद्यस्तिस्तोनुष्टुभः चतुर्थी वृहती। पंचमी शष्ठ्यो त्रिष्टुभो, ततो अष्टावनुष्टुभः अन्त्याः प्रस्तारपंक्तिः।
हिरण्यवर्णमिति बीजं, ताम् आवह
जातवेद इति शक्तिः, कीर्ति
ऋद्धि ददातु में इति कीलकम्। श्री महालक्ष्मी प्रसाद सिद्धयर्थे जपे विनियोगः। (जल
भूमि पर छोड़ दें।)
अर्थ- इस पंद्रह ऋचाओं वाले श्री सूक्त के कर्दम
और चिक्लीत ऋषि हैं अर्थात् प्रथम तंत्र की इंदिरा ऋषि है, आनंद कर्दम और चिक्लीत इंदिरा पंज है और शेश चैदह
मंत्रों के द्रष्टा हैं। प्रथम तीन ऋचाओं का अनुष्टुप, चतुर्थ ऋचा का वहती, पंचम व शष्ठ ऋचा का त्रिष्टुप एवं सातवीं से
चैदहवीं ऋचा का अनुष्टुप् छंद है। पंद्रह व सोलहवीं ऋचा का प्रसार भक्ति छंद है।
श्री और अग्नि देवता हैं। ’हिरण्यवर्णा’
प्रथम ऋचा बीज और ’कां सोस्मितां’ चतुर्थ ऋचा शक्ति है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति के लिए विनियोग है। (हाथ
जोड़ कर लक्ष्मी जी एवं विष्णु जी का ध्यान करें।) गुलाबी कमल दल पर बैठी हुई, पराग राशि के समान पीतवर्णा, हाथों में कमल पुष्प धारण किए हुए, मणियों युक्त अलंकारों को धारण किए हुए, समस्त लोकों की जननी श्री महालक्ष्मी की हम वंदना
करते हैं। श्री
सूक्त का पाठ ¬
हिरण्यवर्णां हरिणीं
सुवण्र् रजतस्रजाम्। चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह।।
अर्थ- जो स्वर्ण सी
कांतिमयी है, जो मन की
दरिद्रता हरती है, जो
स्वर्ण रजत की मालाओं से सुशोभित है, चंद्रमा के सदृश प्रकाशमान तथा प्रसन्न करने
युक्ता है, हे
जातवेदा अग्निदेव ऐसी देवी लक्ष्मी को मेरे घर बुलाएं।
तां म आ वह जातवेदो
लक्ष्मी मनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामष्वं पुरुषानहम्।।
अर्थ- हे जातवेदा अग्निदेव। आप उन जगत् प्रसिद्ध
लक्ष्मी जी को मेरे लिए बुलाएं जिनका आवाहन करने पर मैं स्वर्ण, गौ, अश्व और भाई, बांधव, पुत्र, पौत्र आदि को प्राप्त करूं। महत्त्व- गौ, अश्व आदि की प्राप्ति होती है।
अश्वपूर्वां रथमध्यां
हस्तिनाद प्रमोदिनीम्। श्रियं देवीमुप ह्वये श्रीर्मा देवी जुशताम्।।
अर्थ-जिस देवी के आगे घोड़े और मध्य में रथ है अथवा
जिसके सम्मुख घोड़े रथ में जुते हुए हैं, ऐसे रथ में बैठी हुई हाथियों के निनाद से विश्व को
प्रफुल्लित करने युक्ता देदीप्यमान एवं समस्त जनों को आश्रय देने युक्ता लक्ष्मी
को मैं अपने सम्मख् आमंत्रित करता हूँ |लक्ष्मी मरे घर में सर्वदा निवास करें।
कां सोस्मितां
हिरण्यप्राकारामाद्र्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। पद्मेस्थितां पद्मवर्णां
तामिहोप ह्वये श्रियम्।।
अर्थ- आपका अद्भुत
अवर्णनिया हैं | मुखारविंद मंद-मंद मुस्काता
है, आपका
स्वरूप अवर्णनीय है, आप चारों
ओर से स्वर्ण से मंडित और दया से आर्द्र ,हृदया अथवा समुद्र से उत्पन्न आर्द्र शरीर से
युक्त देदीप्यमान हैं। मनोरथों को पूर्ण करने युक्ता, कमल के ऊपर विराजित, कमल सदृश गृह में निवासित||
प्रसिद्ध लक्ष्मी को मैं
अपने पास आमंत्रित करता हूँ ।
चन्द्रां प्रभासां यशसां ज्वलन्तीं
श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्। तां पद्मिनीमीं शरणं प्रपद्येअलक्ष्मीर्में
नष्यतां त्वां वृणे।।
अर्थ- चंद्रमा के समान
प्रभा युक्ता, अपनी
कीर्ति से देदीप्यमान, स्वर्गलोक
में इंद्रादि देवों से पूजित ,उदार कमल के मध्य रहने युक्ता, आश्रयदात्री शरण में आता हूं। आपकी कृपा से
दरिद्रता नष्ट हो।
आदित्यवर्णे तपसोधि जातो
वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथबिल्वः। तस्य फलानि तपसा नुदन्तु या अन्तरा याष्च बाह्या
अलक्ष्मीः।।
अर्थ- हे रवि के समान कांति
युक्ता, आपके तेज
से ये वन पादप प्रकट हैं। आपके तेज से यह बिना पुष्प के फल देने वाला बिल्व वृक्ष
उत्पन्न हुआ। उसी प्रकार आप अपने तेज से बाहृय और आभ्यंतर की दरिद्रता को नष्ट
करें।
उपैतु मां देवसखः
कीर्तिष्च मणिना सह। प्रादुर्भूतोस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धि ददातु मे।।
अर्थ-हे लक्ष्मी। श्री महादेव के सखा मणिभद्र (कुबेर के मित्र) के साथ कीर्ति अर्थात् यश मुझे
प्राप्त हो |
मैं इस विश्व में उत्पन्न
हुआ हूं मुझे कीर्ति- समृद्धि प्रदान कर किर्तुवान यशस्वी करें।
क्षुत्पिपासामलां
ज्येष्ठाम लक्ष्मीं नाशयाम्यहम्। अभूतिम समृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात्।।
अर्थ- भूख और प्यास की
धात्री ज्येष्ठ भगिनी अलक्ष्मी को मै नष्ट करता हूं। हे लक्ष्मी। आप मेरे घर
से अनैश्वर्य, वैभवहीनता
तथा धन वृद्धि के के विघ्नों को दूर करें।
गन्धद्वारां दुराधर्षां
नित्य पुष्टां करीषिणीम् ईष्वरीं सर्वभूतानां तामिहोप ह्वये श्रियम्।।
अर्थ- सुगंधित पुष्प के
समर्पण से प्राप्त धन धान्य से सर्वदा पूर्ण कर समृद्धि देने, युक्ता, समस्त प्राणियों की स्वामिनी तथा विश्व प्रसिद्ध लक्ष्मी को मैं अपने घर में सादर बुलाता
हूं।
मनसः काममाकूतिं वाचः
सत्यमषीमहि। पषूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः।।
अर्थ-हे मां लक्ष्मी। आपके
दिव्य प्रभाव से मैं मानसिक इच्छा एवं संकल्प, वाणी की सत्यता, गौ आदि पशुओं से प्राप्त, दुग्ध-दध्यादि एवं सभी अन्नों प्राप्त करूं । मैं लक्ष्मीवान् और कीर्तिवान बनूं
कर्दमेन प्रजा भूता मयि
संभव कर्दम। श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्।।
अर्थ- ’कर्दम’ नामक ऋषि
पुत्र से लक्ष्मी प्रकट हुई हैं। हे कर्दम, तुम मुझमें निवास करो तथा कमल की माला युक्ता लक्ष्मी को मेरे कुल
में निवास कराओ।
आपः सृजन्तु स्निग्धानि
चिक्लीत वस मे गृहे। नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले।।
अर्थ- जल देवता वरुण स्निग्ध पदार्थों को उत्पन्न करें।
लक्ष्मी के आनंद, कर्दम, चिक्लीत और श्रीत ये चार पुत्र हैं। हे चिक्लीत
नामक लक्ष्मी पुत्र, तुम मेरे गृह में निवास
करो। दिव्य गुणयुक्ता अपनी मा लक्ष्मी को मेरे घर में निवास कराओ।
आद्र्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिड्गलां पद्ममालिनीम्। चन्द्रां
हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह।।
अर्थ- हे अग्निदेव। तुम
मेरे घर में दिग्गजों (हाथियों) के शुण्डाग्र से आर्द्र शरीर युक्ता, पुष्टिप्रदा, पीत वर्ण युक्ता, कमल की माला
युक्ता, जगत को प्रकाशित करने वाली प्रकाश स्वरूपा लक्ष्मी को बुलाओ। आद्र्रां
यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्। सूर्यां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह।।
अर्थ- हे अग्निदेव। तुम मेरे घर में सदा दर्यार्द्र मन से अथवा समस्त भुवन जिसकी याचना करते हैं, दुष्टों को दंड देने अथवा यष्टिवत् अवलंबनीया (जिस
प्रकार असमर्थ पुरुश को लकड़ी का सहारा चाहिए उसी प्रकार लक्ष्मी
जी के सहारे से अशक्त व्यक्ति भी संपन्न हो जाता है), सुंदर वर्ण युक्ता एवं स्वर्ण की माला युक्ता सूर्यरूपा, ऐसी प्रकाश स्वरूपा लक्ष्मी को बुलाओ।
तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मी मन पगामिनीम्, यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान्
बिन्देयं पुषानहम्।।।
अर्थ- हे अग्निदेव। मेरे
यहां उन लक्ष्मी को, जो मुझे
छोड़कर अन्यत्र कभी न जाएँ , बुलाओ। लक्ष्मी के द्वारा मैं स्वर्ण, उत्तम ऐश्वर्य, गौ, घोड़े और पुत्र पौत्रादि को प्राप्त करूं।
य: शुची परयुता भूत जुहुयादाज्यमन्वहम्। सूक्तं पंचदशर्चं च श्री कामः सततं जपेत्।।
अर्थ-
मनुष्य लक्ष्मी की कामना से पवित्र और सावधान होकर
अग्नि में गोघृत का हवन और साथ ही श्री सूक्त की पंद्रह ऋचाओं का
प्रतिदिन पाठ करे।
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