संक्षिप्त विधि:
व्रत के दिन स्वच्छ रहे। स्वच्छ वस्त्र पहने। स्वच्छ वस्त्रों, आसन पर बैठे। स्नान जल में तीर्थ नदी का जल मिलाले या भावना कर कहे - गंगा यमुना गोदावरी नर्मदा इहागच्छ इहा तिष्ठ, आपके जल में सन्निध्य आने से मेरे सब पाप नष्ट हो धुल जाए। पूर्व या उतर दिशा में मुंहकर स्नान करे, काले तिल भी पानी में डाले।
प्रातः स्नान उपरांत पूजन कक्ष में बैठकर हाथ मे जल लेकर कहे - मम अखिल पाप प्रशमन पूर्वक सर्व अमीष्ट सिद्धये श्री कृष्ण जन्माष्टमी व्रत महं करिष्ये।
मध्य या दोपहर 12 से 12.40 के मध्य काले तिल मिश्रित जल को अपने उपर छिडके या पुनः स्नान करे यदि अस्वच्छ हो।
मां देवकी को जल अचमनी से या जैस संभव हो अर्पण करे - प्रणमे देवजननी त्वया जातस्तु वामनः। वसुदेवात् तथा कृष्णो नमर तुभ्यं नमो नमः। सपुत्र अध्र्य प्रदतं मे गृहाण इमं नमो स्तुते।
श्री कृष्ण को पुष्पांजलि - ओम धर्माय धर्मेश्वरथ धर्मपतये धर्मसंभवाय गोविदाय नमो नमः।
रात्रि 12 बजे के बाद नालछेदन, नामकरण, षष्ठी पूजन क्रिया की भावना करे।
आरती भगवान श्रीकृष्ण
जन्मदिन उत्सव क्यो करना चाहिये -
जन्म दिन किसी भी प्रकार से सुखद नही होता है ।जन्म समय प्राणी को कष्ट, जन्मदात्री को, कष्ट मृत्यु तुल्य पीडा होती है। आज अधुनातम तकनीक से पीडा कम हो गयी, तब भी संभावनाऐ पीडाप्रद होती है।जन्मदात्री की चिंता, कष्ट, सुख बाधा, व्यय आदि के साथ साथ जन्म लेने वाले के दायित्व भी प्रारंभ होते है।
प्रत्येक धर्म, संप्रदाय में जन्म उत्सव मनाने की परंपरा है, क्योंकि एक नवागत का परिवार में आगमन हुआ। परंतु जन्मोत्सव को मनाने के पीछे आर्य ऋषियों मनीषियों का अनुभव हैं।
इस दिन जन्म लेेने वाले के लिये - टोने, टोटके, कुदृष्टि, नजर, स्वास्थ्य बाधा की संभावना सर्वाधिक होती है तथा कार्य सफलता सदैव संदिग्ध रहती है। जन्म के माह व तिथि ज्योतिष सम्मत, चंद्र तिथि पर आधारित,( अंग्रेजी प्रचलित ईसा विधि से नहीं )को कभी कोई नया कार्य, यात्रा निर्णय आदि नही करने के निर्देश है।
अतः यह व्यवस्था बनायी गयी कि ,जन्म माह व तिथि के समय सगे, संबंधी,मित्रों के साथ साथ ब्राहम्ण आदि को निमंत्रित कर जन्मदाता विश्वनिय देव का स्मरण करे। पूजा पाठ पश्चात् चाय, नाश्ता , भोजन सार्मथ्य के अनुसार करा कर उनसे सुखद, समृद्धि प्रद, आयुप्रद भविष्य के आशीर्वचन मंगल कामनाऐं ग्रहण कर शुभद सफलतद जीवन का प्रारंभ किया जावे। अर्थात् भावी अशुभत्व व असफलता का प्रतिबंध,निषेध, नियंत्रण, दूसरों के शुभाशीषो, आशीर्वचनो से किया जावे।
वर्तमान परंपरा में भोजन दान के बदले उपहार लेने से अन्नदान का महत्व समाप्त हो जाता है अतः वृद्धाश्रम, बाल आश्रम, मंदिर या अन्य क्षुधातुरो को भोजन वस्त्र दान करना श्रेष्ठ भविष्य का मार्ग है।
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