शीतला अष्टमी को "बासी- भोजन " देवी को अर्पण एवं त्वचा रोग का शमन
(चैत्र ,वैशाख
,जेठ,आषाढ़
-चार माह की अष्टमी )
शीतला शब्द से तात्पर्य है ठंडा अर्थात शीतल उष्णता से परे ताप रहित
शीतला पर्व वर्ष
में कब-कब मनाया जाता है ?
सामान्यतः यह पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है | इसके अन्य नाम भी हैं बसोडा ,लसोड़ा ,बसौरा
अर्थात यह नाम या यह शब्द बासी वस्तुओं या बासी भोजन से संबंधित होने के कारण नाम
यह रखे गए हैं|
इस
प्रकार के नाम क्यों प्रचलित हुए इसका प्रमुख कारण है -
बासी
भोजन क्योंकि इस दिन घर में ताजा भोजन बनाना वर्जित है| 1 दिन पूर्व जो भोजन बनाएंगे, दूसरे दिन प्रातः मां शीतला देवी की पूजा कर उस
बासी भोजन को ही शीतला देवी को अर्पित करने के बाद ,खाने
की परंपरा है |
बासा भोजन खाने की परम्परा अष्टमी को क्यों पड़ी
?
यह परंपरा इसलिए पड़ी क्योकि तिथि अष्टमी की
अधिष्ठात्री देवी हैं |दुर्गा
जी का स्वरूप मां शीतला देवी हैं | अष्टमी
तिथि का निर्माण सूर्य चंद्रमा दोनों ग्रह की एक विशेष स्थिति में होने पर
होता है |
अष्टमी
तिथि को सूर्य चंद्रमा का जनसामान्य पर किस प्रकार प्रभाव पड़ता है? इस रहस्य से ऋषि मुनि परिचित थे | इसलिए उन्होंने इस दिन ताजा भोजन वर्जित किया ||
ग्रीष्म ऋतु
में संक्रमणक रोग सरलता से होते है |
संक्रामक रोग आदि अथवा फोड़े फुंसी त्वचा
रोग यथा चेचक ,खसरा ग्रीष्म ऋतु में सरलता से होते है |
जो ठंडा भोजन या बासी भोजन करेगा उसको इस
प्रकार के रोग ग्रीष्म ऋतु में नहीं होंगे अर्थात ग्रीष्म ऋतु में त्वचा रोग या
चेचक संक्रामक रोग से सुरक्षा के लिए इसको प्रचलित किया गया |
अष्टमी तिथि को पर्व मानाने का कारण प्रमुख ?
तत्कालीन समय या प्राचीन समय में सबसे पहले
संक्रामक यह त्वचा रोग ग्रीष्म काल में सर्वाधिक कोमल त्वचा वाले बच्चों पर होते
थे | इसलिए महिलाएं अपने बच्चों की आरोग्यता के लिए
(रंगपंचमी से अष्टमी तक मां शीतला की पूजा कर भसुरा बनाकर पूजा जाता है)
इसमें
चावल कडी ,चने की दाल ,रबड़ी
,बिना नमक की पूरी या मीठी पूरी एक दिन पूर्व
बनाकर रख लिए जाते हैं ,और
दूसरे दिन मां शीतला देवी को अर्पित कर पूरे परिवार को ग्रहण करने के लिए प्रदान
किए जाते हैं|
स्कन्द पुराण के अनुसार देवी
का स्वरूप
शीतला देवी का वाहन गदर्भ होता है | शीतला देवी हाथ में कलश झाड़ू और नीम के पत्ते
रखती हैं एवं एक हाथ अभय मुद्रा में होता है | यह
इन बातों को स्पष्ट करता है कि,खसरा
चेचक या त्वचा रोग की अधिष्ठात्री
अभय
मुद्रा -से सुरक्षा प्रदान करने वाली अधिष्ठात्री शीतला देवी हैं | |
उनके हाथ में झाड़ू और कलश यह स्वच्छता
पर्यावरण के प्रति जागरूकता का संदेश है |
कलश में
पौराणिक आधार पर 33
करोड़ देवी देवताओं का निवास होता है|
अभय
मुद्रा में होने के कारण यह माना जाता है कि जो इनका ध्यान इनकी पूजा या इनको भोजन
समर्पित करता है वह त्वचा रोग से सुरक्षित रहता है |
इनके साथ ज्वर जोर का दैत्य , देवी घंटाकर्ण ,चौसठ
योगिनी ,त्वचा रोग के देवता सत्यवती देवी विराजमान मानी
जाती हैं |
इनके कलश में दाल के दानों के रूप में
प्रतीकात्मक रुप से विषाणु नाशक स्वास्थ्यवर्धक शुद्ध जल होता है |
इनके लिए स्कंद पुराण में शीतला अष्टक नाम का
स्रोत स्त्रोत भी है | जिसे
भगवान शिव जी ने जन कल्याण हेतु स्वयं निर्मित किया था|
शीतला
देवी की पूजा वटवृक्ष के समीप के जाने का विधान है |
यदि मंदिर या शीतला देवी की मूर्ति उपलब्ध नहीं
हो तो बट वृक्ष के समीप भी इनकी पूजा की जा सकती है |
इससे देवी धन-धान्य पूर्ण कर सूर्य चंद्र ग्रह
जन्य आपत्ति विपत्ति की रोगदायी स्थिति को
दूर रखते हैं |
शीतला
माता स्वच्छता के अधिष्ठात्री हैं | इसलिए
संक्रामक रोग जो ग्रीष्म में ही पनपते हैं
उनको दूर करने का विधान बताया गया है|
राजस्थान में महिलाओं का अधिकार सोमवार या
गुरुवार के दिन ही मां शीतला की पूजा करती है| वहां पर मां को गुड़ और रोटी
अर्पित करने का विधान भी है |
इनकी पूजा करने से पीत ज्वर,फ़ोड़े-फुंसी,नेत्र
रोग ,चेचक ,खसरा
,पीलिया एवं ग्रीष्मकालीन ज्वर दाह व अन्य रोग
नहीं होते हैं | इस
प्रकार ऋतु के परिवर्तन का भी प्रभाव नहीं होता है |
1 पौराणिक आधार पर शीतला अष्टक स्त्रोत पढ़ने का
विधान है परंतु यदि हम शीतला अष्टक स्त्रोत नहीं भी पढ़ पाते हैं या उतना समय का
अभाव है तो एक अत्यंत प्रभावशाली मंत्र शीतला देवी का है- उत्तर दिशा की और मुँह कर देवी की पूजा की जाना चाहिए अथवा
पूर्व भी शुभद है |
है
शीतली तू जगत माता,शीतली
तू जगत पिता, शीतली तू जगत दात्री,शीतला देवी आपको बार बार नमो नमः| एक
सामान्य विधान प्रचलित है
मिट्टी के सकोरे में जल 1 दिन पहले जल भरने का प्रयोग है |
ठंडे जल से स्नान करना चाहिए |
मिट्टी के किसी बर्तन में दही ,चावल, रबड़ी, शकरपारे, खीर ,बाजरा आदि रखे जाते हैं |
मेहंदी, काजल ,हल्दी
,मौली ,पीले
वस्त्र एवं शीतल जल का कलश रखना चाहिए |
नमक का प्रयोग भोजन में नहीं होना चाहिए |
मिट्टी का एक दीपक, दीपक में मौली की बत्ती बनाकर, दीपक में लगाना चाहिए|
महिलाओं को चाहिए कि वे रोली और हल्दी मिश्रित
कर अपने माथे पर टीका लगाएं|
देवी मंदिर या पूजा वटवृक्ष के समीप या घर में
भी पूजा की जा सकती है |
देवी
की मूर्ति को भी जल से स्नान करा सकते हैं |
महिला उपयोगी वस्तु अर्पित की जाती है |
कलश में बचा हुआ जल अपने ऊपर छिड़कने से शुद्धि
प्राप्त होती है|
इस वर्ष की तीन शीतला अष्टमी पूजा निकल चुकी है
| चैत्र वैशाख ज्येष्ठ शेष बचा हुआ है आषाढ़ |
आषाढ़ कृष्ण पक्ष की अष्टमी स्नान के उपरांत मन
में यह विचार कर निवेदन कर सकते हैं-
हे मां
शीतला आप ग्रीष्म से उत्पन्न समस्त
रोगों को नष्ट करें और इस घर को सुख
समृद्धि ऐश्वर्य प्रदान करें|
शीतला
रोग जनित उपद्रव शांत कर आयु ,आरोग्य ,ऐश्वर्य की अभिवृद्धि करे |
इस संबंध में परंपरागत पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक कहानी
प्रचलित है|
किसी गांव में प्राचीन काल में ,ग्रामवासी
शीतला माता की पूजा अर्चना कर रहे थे |
ग्राम वासियों ने उन्हें गरिष्ठ तप्त ,गर्म भोजन प्रसाद स्वरूप अर्पित किया|
उस
भोजन से मां शीतला का मुँह तप्त हो गया ,जल गया और देवी मां कुपित ,क्रोधित
हो गई|
अपनी
कुपित दृष्टि से ,क्रोधवशात ,क्रोधाग्नि
से उन्होंने उस गांव में अग्नि का प्रवाह कर दिया |
पुरे ग्राम के घर धु धु कर जल गए | केवल उस गांव में एक वृद्धा का घर सुरक्षित रहा
|
जब ग्राम वासियों ने जाकर वृद्धा से उसके घर के
न जलने का रहस्य ,पूछा
तो उस वृद्धा ने बताया कि मां शीतला को गरिष्ठ , तप्त
, भोजन गर्म भोजन खिलाने के कारण आप लोगों
कीयह स्थिति बनी |
जबकि मैंने तो रात को ही भोग के लिए भोजन बनाकर रखा था वही ठंडा बासी भोजन मां
शीतला को अर्पित किया | इसलिए
उन्होंने मेरा घर प्रसन्न होकर जलने से सुरक्षित कर दिया|
अंततः
ग्रामवासियों ने मां शीतला से क्षमा याचना की और रंग पंचमी के बाद आने वाली सप्तमी
के दिन से अर्थात सूर्य -चंद्रमा के सयोंग से निर्मित अष्टमी तिथि को बसोडा एवं शीतला मां की पूजन का
संकल्प सदैव के लिए ले लिया |
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