शीतला
अष्टमी -25.मार्च 2022 - पंडित वी.के.तिवारी
“ज्योतिष शिरोमणि
"बासी- भोजन " देवी
को अर्पण एवं त्वचा रोग का शमन-
(चैत्र,वैशाख ,जेठ,आषाढ़ -चार माह की अष्टमी )
शीतला षष्ठी,सप्तमी एवं अष्टमी ?नियम,कथा,विधि एवं औचित्य .
(संपूर्ण भारत में प्रचलित- विशेष उत्तर भारत )
- शीतला की उत्पत्ति –
भगवान ब्रह्मा से हुई थी। देवी का असली नाम -श्री शीतला शेखला बहला।
देवलोक से पृथ्वी पर , देवी शीतला माँ अपने साथ भगवान शिव के पसीने से बने ज्वरासुर को अपना साथी मानकर लाईं थी। तब उनके हाथों में दाल के दाने भी थे। राजा विराट ने माता शीतला को अपने राज्य में रहने के लिए स्थान नहीं दिया तो माता क्रोधित हो गई थी । देवी शीतला माँ के क्रोध की ज्वाला से राजा की प्रजा को लाल लाल दाने निकल आए और लोग मरने लगे। राजा विराट ने देवी शीतला माँ के क्रोध को शांत करने के लिए ठंडा दूध और कच्ची लस्सी उन पर चढ़ाई। देवी शीतला माँ का क्रोध शमन हुआ.
-देवी शीतला माँ के भाई गणेश जी हैं .
भगवती देवी शीतला माँ सात बहन हैं- ऋणिका, घृर्णिका, महला, मंगला, शीतला, सेठला और दुर्गा।
गौरी शीतला व्रत
-चैत्र कृष्ण अष्टमी से आषाढ़ कृष्ण अष्टमी तक होने वाले 90 दिन के व्रत को ही गौरी शीतला व्रत भी कहा जाता है।
देवी शीतला माँ किन रोग की अधिष्ठात्री है-
ज्वर, ओलै बीबी- हैजे, चैंसठ, घेंटु कर्ण- त्वचा- - रक्त संक्रमण की देवी होते हैं।
चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ के कृष्ण पक्ष की अष्टमी शीतला देवी की पूजा-अर्चना के लिए समर्पित होती है।
शीतला –अष्टमी का ही विधान है . सप्तमी और कुछ क्षेत्रों में षष्ठी भी प्रचलित है .
1-चैत्र कृष्ण अष्टमी , मूल रूप से अष्टमी तिथि से देवी से सम्बद्ध है.
चैत्र, वैशाख, जेष्ठ और आषाढ़ महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को शीतला अष्टमी पूजन करने का विधान स्कन्द पुराण में शिव जी ने बताया है।
2-शीतला सप्तमी –भाद्र कृष्ण पक्ष - गुजरात जन्माष्टमी से ठीक एक दिन पहले बसोड़ा “शीतला साते”पर्व प्रचलित. -सप्तमी तिथि को सूर्य पूजा एवं नमकीन तथा गर्म भोजन निषेध है .बसोडा नाम से प्रचलित .
3-.षष्ठी - माघ की शुक्ल पक्ष की षष्ठी .
औचित्य शीतल भोजन –
ऋतुओं का संधि काल रोग प्रद - शीत एवं ग्रीष्म ऋतु संधि काल रोगद होता है ,खान-पान ध्यान रखना आवश्यक इसलिए रोग से सुरक्षा का यह पर्व .
स्कन्द पुराण - शीतला अष्टमी-बासा भोजन या aaj अग्नि प्रयोग रहित भोजन ग्रहण किया जाता है .वर्ष में एक बार चैत्र कृष्ण अष्टमी को होता है परन्तु स्कन्द पुराण में ४माह में कृष्ण पक्ष अष्टमी को करने का उल्लेख है .
चेचक , रक्तविकार रोग ,संक्रामक रोग से सुरक्षा के लिए किया जाता है.
शीतला शब्द से तात्पर्य है ठंडा अर्थात शीतल उष्णता से परे ताप रहित.
शीतला पर्व वर्ष में कब-कब मनाया जाता है ?
सामान्यतः यह पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है . इसके अन्य नाम भी हैं बसोडा ,लसोड़ा ,बसौरा अर्थात यह नाम या यह शब्द बासी वस्तुओं या बासी भोजन से संबंधित होने के कारण नाम यह रखे गए हैं.
बासी भोजन क्योंकि इस दिन घर में ताजा भोजन बनाना वर्जित है. 1 दिन पूर्व जो भोजन बनाएंगे, दूसरे दिन प्रातः मां शीतला देवी की पूजा कर उस बासी भोजन को ही शीतला देवी को अर्पित करने के बाद ,खाने की परंपरा है .
बासा भोजन खाने की परम्परा अष्टमी को क्यों पड़ी ?
यह परंपरा इसलिए पड़ी क्योकि तिथि अष्टमी की अधिष्ठात्री देवी हैं .दुर्गा जी का स्वरूप मां शीतला देवी हैं . अष्टमी तिथि का निर्माण सूर्य चंद्रमा दोनों ग्रह की एक विशेष स्थिति में होने पर होता है .
अष्टमी तिथि को सूर्य चंद्रमा का जनसामान्य पर किस प्रकार प्रभाव पड़ता है? इस रहस्य से ऋषि मुनि परिचित थे . इसलिए उन्होंने इस दिन ताजा भोजन वर्जित किया ..
ग्रीष्म ऋतु में संक्रमणक रोग सरलता से होते है .संक्रामक रोग आदि अथवा फोड़े फुंसी त्वचा रोग यथा चेचक ,खसरा ग्रीष्म ऋतु में सरलता से होते है .
जो ठंडा भोजन या बासी भोजन करेगा उसको इस प्रकार के रोग ग्रीष्म ऋतु में नहीं होंगे अर्थात ग्रीष्म ऋतु में त्वचा रोग या चेचक संक्रामक रोग से सुरक्षा के लिए इसको प्रचलित किया गया .
अष्टमी तिथि को पर्व मानाने का कारण प्रमुख ?
तत्कालीन समय या प्राचीन समय में सबसे पहले संक्रामक यह त्वचा रोग ग्रीष्म काल में सर्वाधिक कोमल त्वचा वाले बच्चों पर होते थे . इसलिए महिलाएं अपने बच्चों की आरोग्यता के लिए (रंगपंचमी से अष्टमी तक मां शीतला की पूजा कर बसुरा बनाकर पूजा जाता है)
इसमें चावल कढ़ी ,चने की दाल ,रबड़ी ,बिना नमक की पूरी या मीठी पूरी एक दिन पूर्व बनाकर रख लिए जाते हैं ,और दूसरे दिन मां शीतला देवी को अर्पित कर पूरे परिवार को ग्रहण करने के लिए प्रदान किए जाते हैं.
स्कन्द पुराण के अनुसार देवी का स्वरूप एवं वाहन -
शीतला देवी का वाहन गदर्भ होता है . शीतला देवी हाथ में कलश झाड़ू और नीम के पत्ते रखती हैं एवं एक हाथ अभय मुद्रा में होता है . यह इन बातों को स्पष्ट करता है कि,खसरा चेचक या त्वचा रोग की अधिष्ठात्री
अभय मुद्रा -से सुरक्षा प्रदान करने वाली अधिष्ठात्री शीतला देवी हैं . .
उनके हाथ में झाड़ू और कलश यह स्वच्छता पर्यावरण के प्रति जागरूकता का संदेश है .
कलश में पौराणिक आधार पर 33 कोटि देवी देवताओं का निवास होता है.
अभय मुद्रा में होने के कारण यह माना जाता है कि जो इनका ध्यान इनकी पूजा या इनको भोजन समर्पित करता है वह त्वचा रोग से सुरक्षित रहता है .
इनके साथ ज्वर जोर का दैत्य , देवी घंटाकर्ण ,चौसठ योगिनी ,त्वचा रोग के देवता सत्यवती देवी विराजमान मानी जाती हैं .
इनके कलश में दाल के दानों के रूप में प्रतीकात्मक रुप से विषाणु नाशक स्वास्थ्यवर्धक शुद्ध जल होता है .
इनके लिए स्कंद पुराण में शीतला अष्टक नाम का स्रोत स्त्रोत भी है . जिसे भगवान शिव जी ने जन कल्याण हेतु स्वयं निर्मित किया था.
शीतला देवी की पूजा वटवृक्ष के समीप के जाने का विधान है .
यदि मंदिर या शीतला देवी की मूर्ति उपलब्ध नहीं हो तो बट वृक्ष के समीप भी इनकी पूजा की जा सकती है .
इससे देवी धन-धान्य पूर्ण कर सूर्य चंद्र ग्रह जन्य आपत्ति विपत्ति की रोगदायी स्थिति को दूर रखते हैं .
शीतला माता स्वच्छता के अधिष्ठात्री हैं . इसलिए संक्रामक रोग जो ग्रीष्म में ही पनपते हैं उनको दूर करने का विधान बताया गया है.
राजस्थान में महिलाओं का अधिकांश सोमवार या गुरुवार के दिन ही मां शीतला की पूजा करती है. वहां पर मां को गुड़ और रोटी अर्पित करने का विधान भी है .
इनकी पूजा करने से पीत ज्वर,फ़ोड़े-फुंसी,नेत्र रोग ,चेचक ,खसरा ,पीलिया एवं ग्रीष्मकालीन ज्वर दाह व अन्य रोग नहीं होते हैं . इस प्रकार ऋतु के परिवर्तन का भी प्रभाव नहीं होता है .
1 पौराणिक आधार पर शीतला अष्टक स्त्रोत पढ़ने का विधान है परंतु यदि हम शीतला अष्टक स्त्रोत नहीं भी पढ़ पाते हैं या उतना समय का अभाव है तो एक अत्यंत प्रभावशाली मंत्र शीतला देवी का है- उत्तर दिशा की और मुँह कर देवी की पूजा की जाना चाहिए अथवा पूर्व भी शुभद है .
है शीतली तू जगत माता,शीतली तू जगत पिता, शीतली तू जगत दात्री,शीतला देवी आपको बार बार नमो नमः.
एक सामान्य विधान प्रचलित है-
-मिट्टी के सकोरे में जल 1 दिन पहले जल भरने का प्रयोग है .
-ठंडे जल से स्नान करना चाहिए .
-मिट्टी के किसी बर्तन में दही ,चावल, रबड़ी, शकरपारे, खीर ,बाजरा आदि रखे जाते हैं .
- मेहंदी, काजल ,हल्दी ,मौली ,पीले वस्त्र एवं शीतल जल का कलश रखना चाहिए .
-नमक का प्रयोग भोजन में नहीं होना चाहिए .
-मिट्टी का एक दीपक, दीपक में मौली की बत्ती बनाकर, दीपक में लगाना चाहिए.
महिलाओं को चाहिए कि वे रोली और हल्दी मिश्रित कर अपने माथे पर टीका लगाएं.
देवी मंदिर या पूजा वटवृक्ष के समीप या घर में भी पूजा की जा सकती है .
दे-वी की मूर्ति को भी जल से स्नान करा सकते हैं .
-महिला उपयोगी वस्तु अर्पित की जाती है .
-कलश में बचा हुआ जल अपने ऊपर छिड़कने से शुद्धि प्राप्त होती है.
-इस वर्ष की तीन शीतला अष्टमी पूजा और शेष है . वैशाख ,ज्येष्ठ, आषाढ़ शेष बचा हुआ है .
आषाढ़ कृष्ण पक्ष की अष्टमी स्नान के उपरांत मन में यह विचार कर निवेदन कर सकते हैं-
हे मां शीतला आप ग्रीष्म से उत्पन्न समस्त रोगों को नष्ट करें और इस घर को सुख समृद्धि ऐश्वर्य प्रदान करें.
शीतला रोग जनित उपद्रव शांत कर आयु ,आरोग्य ,ऐश्वर्य की अभिवृद्धि करे .
इस संबंध में परंपरागत पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक कहानी प्रचलित है.
किसी गांव में प्राचीन काल में ,ग्रामवासी शीतला माता की पूजा अर्चना कर रहे थे .
ग्राम वासियों ने उन्हें गरिष्ठ तप्त ,गर्म भोजन प्रसाद स्वरूप अर्पित किया.
उस भोजन से मां शीतला का मुँह तप्त हो गया ,जल गया और देवी मां कुपित ,क्रोधित हो गई.
अपनी कुपित दृष्टि से ,क्रोधवशात ,क्रोधाग्नि से उन्होंने उस गांव में अग्नि का प्रवाह कर दिया .
पुरे ग्राम के घर धु धु कर जल गए . केवल उस गांव में एक वृद्धा का घर सुरक्षित रहा .
जब ग्राम वासियों ने जाकर वृद्धा से उसके घर के न जलने का रहस्य ,पूछा तो उस वृद्धा ने बताया कि मां शीतला को गरिष्ठ , तप्त , भोजन गर्म भोजन खिलाने के कारण आप लोगों कीयह स्थिति बनी .
जबकि मैंने तो रात को ही भोग के लिए भोजन बनाकर रखा था वही ठंडा बासी भोजन मां शीतला को अर्पित किया . इसलिए उन्होंने मेरा घर प्रसन्न होकर जलने से सुरक्षित कर दिया.
अंततः ग्रामवासियों ने मां शीतला से क्षमा याचना की और रंग पंचमी के बाद आने वाली सप्तमी के दिन से अर्थात सूर्य -चंद्रमा के सयोंग से निर्मित अष्टमी तिथि को बसोडा एवं शीतला मां की पूजन का संकल्प सदैव के लिए ले लिया .
शीतला देवी स्वरूप-
दिगम्बरा ,गदर्भ पर बैठी,सूप,झाड़ू,एवं नीम के पत्तों से सुसज्जित ,हाथ में शीतल जल कलश है .
-शीतला रोग में शरीर में फोड़े ,फुंसी,मवाद.
-देवी स्वरूप विश्लेषण –रोगी के समीप देवी की वस्तुओं का औचित्य-
संक्रामक रोग की दाह /ज्वलनशीलता एवं खुजली आदि से रोगी नग्न वत हो जाता है.
- गधे की लीद की गंध धुप से रोग की तीव्रता कम होती है.
- -सूप अर्थात रक्त में विष जन्य विकार की सफाई.
- झाड़ू लगाने से रोग वृद्धि (दूषितधूल) होती है ,इसलिए झाड़ू लगाना वर्जित.
- नयी झाड़ू एवं सूप रोगी के पास रखते है.
- -नीम के पत्ते पास रखने या प्रयोग से फोड़े फुंसी सड़ते नहीं है सुख जाते है.
- -शीतल जल रोगी के समीप रखते हैं .
- शीतला देवी माँ -
- - ठंढ़े पानी से स्नान करना चाहिए।
- शीतला के दिन स्नान ध्यान करके शीतला देवी माँ की पूजा ।
- -- घर के दरबाजे, खिड़कियों एवं चुल्हे की पूजा एवं इनको दही, चावल और बेसन के व्यंजन अर्पण करते है।
- - भगवान को भी बासी खाना प्रसाद रूप में अर्पण ।
- -- रात में बना बासी खाना, ठंढ़ा भोजन करना चाहिए।
- - देश के कई भागो में मिट्टी पानी का खेल होली पर्व जेसे खेला जाता है।
-
"मम गेहे शीतला रोग जनित उपद्रव प्रशमन पूर्वक आयु आरोग्य एश्वर्य अभि वृद्धये शीतला अष्टमी वरतम अहम करिष्ये ',
देवी को भोग-शीतला देवी माँ भोग के लिए चावलों को गुड़ या गन्ने के रस में बनाया जाता है। मिठाई,मेवा,पूरी,पुआ,कच्चे एवं पके सभी शीतल (एक दिन पूर्व निर्मित या अधिक ) पदार्थ अर्पित किये जाते हैं. शीतला स्त्रोत पढ़ा जाता है .
शीतला मंत्र:
1-'ॐ ह्रीं श्रीं शीतलायै नमः'
2-“वन्दे अहं शीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बराम्।।
मार्जनी कलशोपेतां सूर्प अलंकृत मस्तकाम्
मैं गर्दभ पर विराजित , दिगम्बरा, हाथ में झाडू तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तक वाली भगवती शीतला देवी की वंदना करता हूं.
3-गायत्री मन्त्र-'शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत्पिता। शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः।।
4-”शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत्पिता। शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः।।
कथा-
शीतला अष्टमी –
एक बार भगवती देवी शीतला माँ ने विचार किया कि –
- आज देखूं कि पृथ्वी पर मेरी पूजा कौन करता है, कौन श्रद्धा,विश्वास रखता है। भगवती देवी शीतला माँ पृथ्वी लोक के राजस्थान के डुंगरी गाँव में पधारी और उनको गाँव में उनका मंदिर ही नहीं मिला एवं पूजा भी किसी को करते नही देखा ।
भगवती देवी शीतला माँ,गाँव
की एक गली में घूम रही थी, उस
समय ही , एक मकान से किसी ने चावल का उबला मांड नीचे फेंका। वह भगवती देवी शीतला माँ पर गिरा
जिससे भगवती देवी शीतला माँ के शरीर में फफोले पड गये। भगवती देवी शीतला माँ के
पूरे शरीर में जलन होने लगी।
भगवती देवी शीतला माँ गाँव में इधर-उधर
भाग-भाग के चिल्लाने लगी “अरे में जल गई, मेरा शरीर तप रहा है। मेरी सहायता करो। लेकिन
उस गाँव में कोई भगवती देवी शीतला माँ की सहायता के लिए नहीं आया
।
भगवती देवी शीतला माँ
गाँव में इधर-उधर जल्दी जल्दी चल रही थी तभी वे एक कुम्हारन महिला के द्वार पहुंची , उस
कुम्हारन ने उनको देखा - बूढी माँ तो बहुत जल गई है। पूरे शरीर में फफोले
पड़ गये है।
- कुम्हारन ने ,उनको बैठा कर , उन पर शीतल जल डाला . भगवती देवी शीतला को आराम मिला .
- कुम्हारन ने माँ! को
दही-राबड़ी खिलाया । कुम्हारन की दी हुई ,
बूढी माई स्वरूप भगवती देवी शीतला माँ ने -
ठंडी ज्वार के आटे की राबड़ी और दही खाया तो उसके शरीर को ठंडक मिली।
कुम्हारन ने - भगवती देवी शीतला माँ सिर
के बाल बिखरे बालों की चोटी बनाना शुरू किया,
तभी एकाएक ,कुम्हारन की दृष्टि उस वृद्धा
के सिर के पीछे पड़ी, तो
देखा कि एक
आँख बालों के अंदर छुपी है।
कुम्हारन डर गयी,भयभीत हो, भागने लगी
तभी उस वृद्धा ने कहा –
“रुक बेटी तू डर मत। मैं मैं शीतला देवी हूँ ,इस गाँव में देखने आई थी कि कौन मेरी पूजा करता है।“
-भगवती देवी शीतला
माँ चारभुजा वाली हीरे जवाहरात के आभूषण पहने सिर पर स्वर्ण मुकुट धारण किये अपने प्रगट हो
गई।
हतप्रभव ,किंकर्तव्य विमूढा, कुम्हारन ने कहा - हे माँ! दरिद्र आपको कहाँ बिठाऊ। मेरे घर में तो कोई शुद्ध स्थान या
आसन भी नहीं है।
-भगवती देवी शीतला
माँ ने प्रसन्न होकर उस कुम्हारन के घर पर खड़े हुए गधे पर बैठ कर एक हाथ में झाड़ू दूसरे हाथ में
डलिया लेकर उस कुम्हारन के घर की दरिद्रता को झाड़कर डलिया में भरकर फैंक
दिया।
और उस कुम्हारन से कहा - हे बेटी! मैं तेरे
मानवीयता ,दयालुता ,परोपकारिता ,संकट में सहायता के कर्म से प्रसन्न हूँ, मुझसे वरदान मांग ले ।
कुम्हारन ने हाथ जोड़ कर भगवती देवी
शीतला माँ से कहा –
“हे माता आप इसी डुंगरी गाँव मे निवास करें .जिस प्रकार
आपने मेरे घर की
दरिद्रता को साफ कर दिया। ऐसे ही जो भी भक्त होली के पश्चात् की सप्तमी को आपकी पूजा कर, अष्टमी के दिन आपको ठंडा जल, दही व बासी ठंडा भोजन अर्पण करे , उसके घर की निर्धनता
को दूर करना .आपकी पूजा करने वाली महिला को अखंड सुहाग, उसको संतान सुख देना । जो परिवार शीतला अष्टमी को बाल
ना कटवाये .धोबी धुलने को कपड़े ना दें और न स्वयम धोये , शीतल जल, नरियल फूल चढ़ाकर सहित ठंडा बासी भोजन करे उस परिवार में
धन संतान आभाव नहीं होने देना .”
-भगवती देवी शीतला
माँ ने प्रसन्न होकर तथास्तु! कहते हुए कहा-“हे बेटी! जो तूने वरदान मांगे हैं मैं
सब देती
हूँ। मेरी पूजा का मुख्य अधिकार इस पृथ्वी पर कुम्हार जाति का ही होगा।
गाव का नाम हो गया शील की डुंगरी।इस मंदिर के पास मेला लगता है .
चैत्र मास कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि
भाद्र माह कृष्ण सप्तमी –शीतला बसोडा पर्व कथा
-एक गांव में धर्म निष्ठां सत्यवती महिला रहती थी। वह शीतला देवी की भक्त थी तथा शीतला देवी माँ का व्रत करती थी। उसक गांव में नास्तिक,अछर-विचार हीन लोग निवास करते थे इसलिए कोई भी शीतला देवी माँ की पूजा नहीं करता था।
एक दिन देव योग से गांव को विकराल आग ने घेर लिया । गांव की सभी झोपडिय़ां जल गई, लेकिन धर्म निष्ठां सत्यवती महिला की झोपड़ी सुरक्षित ही शेष रही।
गाँव के लोगों ने इस अद्भुत चमत्कार को देख कर , धर्म निष्ठां सत्यवती महिला से इसका कारण पूछा तो धर्म निष्ठां सत्यवती महिला ने बताया कि मैं देवी माँ शीतला की पूजा करती हूं। इसलिए मेरा घर आग से सुरक्षित है। अपनी आँखों से शीतला देवी का चमत्कार देख उस गांव के अन्य लोग भी शीतला देवी माँ की पूजा करने लगे।
- माघ मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी
षष्ठी –शीतला देवी माँ
एक साहूकार के सात पुत्र थे। साहूकार के सातों पुत्रों की शादी हो चुकी थी परंतु कई वर्षों के बाद भी किसी पुत्र की संतान नहीं हुई। साहूकार की पत्नी उदास ,निराश,चिंतित,परेशांन घर की देहरी पर बैठी थी . देव वशात एक वृद्धा द्वार आई ,जिसे साहुकार की पत्नी ने प्रणाम किया एवं पूछा मा आपको क्या चाहिए?
-वृद्धा ने , साहुकार की पत्नी से दुखी होने कारण पूछा.साहुकार की पत्नी वृद्ध स्त्री को दुःख बताया.
-वृद्धा “अपने सातों पुत्र वधूओं के साथ शीतला देवी माँ का व्रत करो , देवी माँ शीतला प्रसन्न हो कर आपकी मनोकम्ना पूर्ण करेंगी सभी बहुओं को पुत्र होंगे .”
- साहूकार व्यापर के लिए दुसरे प्रदेश में गया हुआ था. साहूकार की पत्नी धर्मनिष्ठ थी . परम्परा के अनुसार ,एक वृद्धा के कहने से साहूकार की पत्नी ने अपनी सातों बहूओं के साथ अनुसार देवी माँ शीतला का षष्ठी व्रत प्रारंभ किया।
देवी माँ शीतला की
कृपा से सातों बहूएं गर्भवती हुई और समय आने पर सभी के सुन्दर पुत्र हुए। माघ शुक्ल
षष्ठी तिथि आई लेकिन किसी बहु ने देवी माँ
शीतला के व्रत नहीं किया । सभी वर्जित एवं निषेध कार्य किये , सास और बहूओं ने
गर्म पानी से स्नान और गरम भोजन किया।
देवी माँ शीतला कुपित होकर ,साहूकार की
पत्नी के स्वप्न में बोलीं “कि तुमने मेरे व्रत नहीं किया है इसलिए
तुम्हारे पति का निधन हो
गया है।
स्वप्न से पति के लिए चिंतित ,परेशान , विक्षिप्त सी साहूकार की पत्नी भटकते भटकते घने वन में पहुन्व्ह गईं।वन में साहूकार की पत्नी ने देखा कि जिस वृद्धा ने उसे शीतला देवी माँ का व्रत वर्णन किया था , वह अग्नि में जल रही है।
साहूकार की पत्नी तुरंत समझ गयी यह शीतला देवी माँ है। साहूकार की पत्नी देवी माँ से क्षमा याचना करने लगी, देवी माँ ने कहा कि “तुम मेरे शरीर पर दही का लेप करो ,इससे देवीय प्रकोप समाप्त हो जायेगा । साहूकार की पत्नी ने तब शीतला देवी माँ के शरीर पर दही का लेपन किया इससे उसका पागलपन ठीक हो गया व साहूकार भी जीवित घर आगया . साहूकार की पत्नी ,बहुओं के साथ प्रतिवर्ष नियम से व्रत पालन करने लगी आये।
शीतला चालीसा –
चैत्र कृष्ण पक्ष की अष्टमी, वैशाख, जेष्ठ और आषाढ़ महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को शीतला अष्टमी पूजन करने का प्रावधान है।
दोहा :-
जय जय माता शीतला तुमही धरे जो ध्यान। होय बिमल शीतल
हृदय विकसे बुद्धी बल ज्ञान।।
घट घट वासी शीतला शीतल प्रभा तुम्हार। शीतल छैंय्या शीतल
मैंय्या पल ना दार।।
चौपाई :-
जय जय श्री शीतला भवानी। जय जग जननि सकल गुणधानी।।
गृह गृह शक्ति तुम्हारी राजती। पूरन शरन चंद्रसा साजती।।
विस्फोटक सी जलत शरीरा। शीतल करत हरत सब पीड़ा।।
मात शीतला तव शुभनामा। सबके काहे आवही कामा।।
शोक हरी शंकरी भवानी। बाल प्राण रक्षी सुखदानी।।
सूचि बार्जनी कलश कर राजै। मस्तक तेज सूर्य सम साजै।।
चौसट योगिन संग दे दावै। पीड़ा ताल मृदंग बजावै।।
नंदिनाथ भय रो चिकरावै। सहस शेष शिर पार ना पावै।।
धन्य धन्य भात्री महारानी। सुर नर मुनी सब सुयश बधानी।।
ज्वाला रूप महाबल कारी। दैत्य एक विश्फोटक भारी।।
हर हर प्रविशत कोई दान क्षत। रोग रूप धरी बालक भक्षक।।
हाहाकार मचो जग भारी। सत्यो ना जब कोई संकट कारी।।
तब मैंय्या धरि अद्भुत रूपा। कर गई रिपुसही आंधीनी सूपा।।
विस्फोटक हि पकड़ी करी लीन्हो। मुसल प्रमाण बहु बिधि कीन्हो।।
बहु प्रकार बल बीनती कीन्हा। मैय्या नहीं फल कछु मैं कीन्हा।।
अब नही मातु काहू गृह जै हो। जह अपवित्र वही घर रहि हो।।
पूजन पाठ मातु जब करी है। भय आनंद सकल दुःख हरी है।।
अब भगतन शीतल भय जै हे। विस्फोटक भय घोर न सै हे।।
श्री शीतल ही बचे कल्याना। बचन सत्य भाषे भगवाना।।
कलश शीतलाका करवावै। वृजसे विधीवत पाठ करावै।।
विस्फोटक भय गृह गृह भाई। भजे तेरी सह यही उपाई।।
तुमही शीतला जगकी माता। तुमही पिता जग के सुखदाता।।
तुमही जगका अतिसुख सेवी। नमो नमामी शीतले देवी।।
नमो सूर्य करवी दुख हरणी। नमो नमो जग तारिणी धरणी।।
नमो नमो ग्रहोंके बंदिनी। दुख दारिद्रा निस निखंदिनी।।
श्री शीतला शेखला बहला। गुणकी गुणकी मातृ मंगला।।
मात शीतला तुम धनुधारी। शोभित पंचनाम असवारी।।
राघव खर बैसाख सुनंदन। कर भग दुरवा कंत निकंदन।।
सुनी रत संग शीतला माई। चाही सकल सुख दूर धुराई।।
कलका गन गंगा किछु होई। जाकर मंत्र ना औषधी कोई।।
हेत मातजी का आराधन। और नही है कोई साधन।।
निश्चय मातु शरण जो आवै। निर्भय ईप्सित सो फल पावै।।
कोढी निर्मल काया धारे। अंधा कृत नित दृष्टी विहारे।।
बंधा नारी पुत्रको पावे। जन्म दरिद्र धनी हो जावे।।
सुंदरदास नाम गुण गावत। लक्ष्य मूलको छंद बनावत।।
या दे कोई करे यदी शंका। जग दे मैंय्या काही डंका।।
कहत राम सुंदर प्रभुदासा। तट प्रयागसे पूरब पासा।।
ग्राम तिवारी पूर मम बासा। प्रगरा ग्राम निकट दुर वासा।।
अब विलंब भय मोही पुकारत। मातृ कृपाकी बाट निहारत।।
बड़ा द्वार सब आस लगाई। अब सुधि लेत शीतला माई।।
यह चालीसा शीतला पाठ करे जो कोय। सपनें दुख व्यापे नही नित सब मंगल होय।।
बुझे सहस्र विक्रमी शुक्ल भाल भल किंतू। जग जननी का ये चरित रचित भक्ति रस बिंतू।।
॥ इतिश्री शीतला माता चालीसा समाप्त॥
श्रीशीतलाकवचम्
पार्वत्युवाच -
भगवन् सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
शीतलाकवचं ब्रूहि सर्वभूतोपकारकम् ॥ १॥
वद शीघ्रं महादेव ! कृपां कुरु ममोपरि ।
इति देव्याः वचो श्रुत्वा क्षणं ध्यात्वा महेश्वरः ॥ २॥
उवाच वचनं प्रीत्या तत्शृणुष्व मम प्रिये ।
शीतलाकवचं दिव्यं शृणु मत्प्राणवल्लभे ॥ ३॥
ईश्वर उवाच -
शीतलासारसर्वस्वं कवचं मन्त्रगर्भितम् ।
कवचं विना जपेत् यो वै नैव सिद्धयन्ति कलौ ॥ ४॥
धारणादस्य मन्त्रस्य सर्वरक्षाकरनृणाम् ।
विनियोगः -
कवचस्यास्य देवेशि ! ऋषिर्पोक्तो महेश्वरः ।
छन्दोऽनुष्टुप् कथितं च देवता शीतला स्मृता ।
लक्ष्मीबीजं रमा शक्तिः तारं कीलकमीरितम् ॥ ५॥
लूताविस्फोटकादीनि शान्त्यर्थे परिकीर्तितः ।
विनियोगः प्रकुर्वीत पठेदेकाग्रमानसः ॥ ६॥
विनियोगः -
ॐ अस्य शीतलाकवचस्य श्रीमहेश्वर ऋषिः अनुष्टुप्छन्दः,
श्रीशीतला भगवती देवता, श्रीं बीजं, ह्रीं शक्तिः,
ॐ कीलकं लूताविस्फोटकादिशान्त्यर्थे पाठे विनियोगः ॥
ऋष्यादिन्यासः -
श्रीमहेश्वरऋषये नमः शिरसि
अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे,
श्रीशीतला भगवती देवतायै नमः हृदि
श्री बीजाय नमः गुह्ये
ह्रीं शक्तये नमः नाभौ,
ॐ कीलकाय नमः पादयो लूताविस्फोटकादिशान्त्यर्थे
पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ॥
ध्यानं -
उद्यत्सूर्यनिभां नवेन्दुमुकुटां सूर्याग्निनेत्रोज्ज्वलां
नानागन्धविलेपनां मृदुतनुं दिव्याम्बरालङ्कृताम् ।
दोर्भ्यां सन्दधतीं वराभययुगं वाहे स्थितां रासभे
भक्ताभीष्टफलप्रदां भगवतीं श्रीशीतलां त्वां भजे ॥
अथ कवचमूलपाठः -
ॐ शीतला पातु मे प्राणे रुनुकी पातु चापाने ।
समाने झुनुकी पातु उदाने पातु मन्दला ॥ १॥
व्याने च सेढला पातु मनुर्मे शाङ्करी तथा ।
पातु मामिन्द्रियान् सर्वान् श्रीदुर्गा विन्ध्यवासिनी ॥ २॥
ॐ मम पातु शिरो दुर्गा कमला पातु मस्तकम् ।
ह्रीं मे पातु भ्रुवोर्मध्ये भवानी भुवनेश्वरी ॥
पातु मे मधुमती देवी ॐकारं भृकुटीद्वयम् ॥ ३॥
नासिकां शारदा पातु तमसा वर्त्मसंयुतम् ।
नेत्रौ ज्वालामुखी पातु भीषणा पातु श्रुतिर्मे ॥ ४॥
कपोलौ कालिका पातु सुमुखी पातु चोष्ठयोः ।
सन्ध्ययोः त्रिपुरा पातु दन्ते च रक्तदन्तिका ॥ ५॥
जिह्वां सरस्वती पातु तालुके व वाग्वादिनी ।
कण्ठे पातु तु मातङ्गी ग्रीवायां भद्रकालिका ॥ ६॥
स्कन्धौ च पातु मे छिन्ना ककुमे स्कन्दमातरः ।
बाहुयुग्मौ च मे पातु श्रीदेवी बगलामुखी ॥ ७॥
करौ मे भैरवी पातु पृष्ठे पातु धनुर्धरी ।
वक्षःस्थले च मे पातु दुर्गा महिषमर्दिनी ॥ ८॥
हृदये ललिता पातु कुक्षौ पातु मघेश्वरी । (मघा ईश्वरी) (महेश्वरी)
पार्ष्वौ च गिरिजा पातु चान्नपूर्णा तु चोदरम् ॥ ९॥
नाभिं नारायणी पातु कटिं मे सर्वमङ्गला ।
जङ्घयोर्मे सदा पातु देवी कात्यायनी पुरा ॥ १०॥ (one mAtrA shift on both pAda)
ब्रह्माणी शिश्नं पातु वृषणं पातु कपालिनी ।
गुह्यं गुह्येश्वरी पातु जानुनोर्जगदीश्वरी ॥ ११॥
पातु गुल्फौ तु कौमारी पादपृष्ठं तु वैष्णवी ।
वाराही पातु पादाग्रे ऐन्द्राणी सर्वमर्मसु ॥ १२॥
मार्गे रक्षतु चामुण्डा वने तु वनवासिनी ।
जले च विजया रक्षेत् वह्नौ मे चापराजिता ॥ १३॥
रणे क्षेमकरी रक्षेत् सर्वत्र सर्वमङ्गला ।
भवानी पातु बन्धून् मे भार्या रक्षतु चाम्बिका ॥ १४॥
पुत्रान् रक्षतु माहेन्द्री कन्यकां पातु शाम्भवी ।
गृहेषु सर्वकल्याणी पातु नित्यं महेश्वरी ॥ १५॥
पूर्वे कादम्बरी पातु वह्नौ शुक्लेश्वरी तथा ।
दक्षिणे करालिनी पातु प्रेतारुढा तु नैरृते ॥ १६॥
पाशहस्ता पश्चिमे पातु वायव्ये मृगवाहिनी ।
पातु मे चोत्तरे देवी यक्षिणी सिंहवाहिनी ।
ईशाने शूलिनी पातु ऊर्ध्वे च खगगामिनी ॥ १७॥
अधस्तात्वैष्णवी पातु सर्वत्र नारसिंहिका ।
प्रभाते सुन्दरी पातु मध्याह्ने जगदम्बिका ॥ १८॥
सायाह्ने चण्डिका पातु निशीथेऽत्र निशाचरी ।
निशान्ते खेचरी पातु सर्वदा दिव्ययोगिनी ॥ १९॥
वायौ मां पातु वेताली वाहने वज्रधारिणी ।
सिंहा सिंहासने पातु शय्यां च भगमालिनी ॥ २०॥
सर्वरोगेषु मां पातु कालरात्रिस्वरुपिणी ।
यक्षेभ्यो यक्षिणी पातु राक्षसे डाकिनी तथा ॥ २१॥
भूतप्रेतपिशाचेभ्यो हाकिनी पातु मां सदा ।
मन्त्रं मन्त्राभिचारेषु शाकिनी पातु मां सदा ॥ २२॥
सर्वत्र सर्वदा पातु श्रीदेवी गिरिजात्मजा ।
इत्येतत्कथितं गुह्यं शीतलाकवचमुत्तमम् ॥ २३॥
फलश्रुतिः -
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा दानवादयः ।
विस्फोटकभयं नास्ति पठनाद्धारणाद्यदि ॥ १॥
अष्टसिद्धिप्रदं नित्यं धारणात्कवचस्य तु ।
सहस्त्रपठनात्सिद्धिः सर्वकार्यार्थसिद्धिदम् ॥ २॥
तदर्धं वा तदर्धं वा पठेदेकाग्रमानसः ।
अश्वमेधसहस्रस्य फलमाप्नोति मानवः ॥ ३॥
शीतलाग्रे पठेद्यो वै देवीभक्तैकमानसः ।
शीतला रक्षयेन्नित्यं भयं क्वापि न जायते ॥ ४॥
घटे वा स्थापयेद्देवी दीपं प्रज्वाल्य यत्नतः ।
पूजयेत्जगतां धात्री नाना गन्धोपहारकैः ॥ ५॥
अदीक्षिताय नो दद्यात कुचैलाय दुरात्मने ।
अन्यशिष्याय दुष्टाय निन्दकाय दुरार्थिने ॥ ६॥
न दद्यादिदं वर्म तु प्रमत्तालापशालिने ।
दीक्षिताय कुलीनाय गुरुभक्तिरताय च ॥ ७॥
शान्ताय कुलशाक्ताय शान्ताय कुलकौलिने ।
दातव्यं तस्य देवेशि ! कुलवागीश्वरो भवेत् ॥ ८॥
इदं रहस्यं परमं शीतलाकवचमुत्तमम् ।
गोप्यं गुह्यतमं दिव्यं गोपनीयं स्वयोनिवत् ॥ ९॥
मूलमन्त्रः - ॐ श्रीं ह्रीं ॐ ।
॥ श्रीईश्वरपार्वतीसम्वादे शक्तियामले शीतलाकवचं सम्पूर्णम् ॥
शीतला अष्टमी :देवी अष्टक –(स्कन्द पुराण )
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
विनियोग:
ऊँ अस्य श्रीशीतला स्तोत्रस्य महादेव
ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,
शीतली देवता, लक्ष्मी बीजम्, भवानी शक्तिः, सर्वविस्फोटक
निवृत्तये जपे विनियोगः ॥
ऋष्यादि-न्यासः
श्रीमहादेव ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीशीतला देवतायै
नमः हृदि, लक्ष्मी (श्री) बीजाय नमः गुह्ये,
भवानी शक्तये नमः पादयो, सर्व-विस्फोटक-निवृत्यर्थे जपे
विनियोगाय नमः सर्वांगे ॥
ध्यानः
ध्यायामि शीतलां देवीं, रासभस्थां दिगम्बराम् ।
मार्जनी-कलशोपेतां
शूर्पालङ्कृत-मस्तकाम् ॥
मानस-पूजनः
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्री शीतला-देवी-प्रीतये
समर्पयामि नमः। ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्री शीतला-देवी-प्रीतये
समर्पयामि नमः। ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि
नमः। ॐ रं अग्नि-तत्त्वात्मकं
दीपं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्री
शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्री
शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः।
मन्त्रः
ॐ ह्रीं श्रीं शीतलायै नमः ॥ [११ बार]
॥ ईश्वर उवाच॥
वन्दे अहं शीतलां देवीं रासभस्थां
दिगम्बराम् ।
मार्जनी कलशोपेतां शूर्पालं कृत
मस्तकाम् ॥1॥
वन्देअहं शीतलां देवीं सर्व रोग
भयापहाम् ।
यामासाद्य निवर्तेत विस्फोटक भयं महत् ॥2॥
शीतले शीतले चेति यो ब्रूयाद्दारपीड़ितः
।
विस्फोटकभयं घोरं क्षिप्रं तस्य
प्रणश्यति ॥3॥
यस्त्वामुदक मध्ये तु धृत्वा पूजयते नरः
।
विस्फोटकभयं घोरं गृहे तस्य न जायते ॥4॥
शीतले ज्वर दग्धस्य पूतिगन्धयुतस्य च ।
प्रनष्टचक्षुषः
पुसस्त्वामाहुर्जीवनौषधम् ॥5॥
शीतले तनुजां रोगानृणां हरसि
दुस्त्यजान् ।
विस्फोटक विदीर्णानां त्वमेका अमृत
वर्षिणी ॥6॥
गलगंडग्रहा रोगा ये चान्ये दारुणा
नृणाम् ।
त्वदनु ध्यान मात्रेण शीतले यान्ति
संक्षयम् ॥7॥
न मन्त्रा नौषधं तस्य पापरोगस्य विद्यते
।
त्वामेकां शीतले धात्रीं नान्यां
पश्यामि देवताम् ॥8॥
शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं
जगत्पिता।
शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः
॥
रासभो गर्दभश्चैव खरो वैशाख नन्दनः ।
शीतला वाहनश्चैव दूर्वाकन्दनिकृन्तनः ॥
एतानि खर नामानि शीतलाग्रे तु यः पठेत्
।
तस्य गेहे शिशूनां च शीतला रूङ् न जायते
॥
शीतला अष्टकमेवेदं न देयं यस्य कस्यचित्
।
दातव्यं च सदा तस्मै श्रद्धा भक्ति
युताय वै ॥
॥ श्रीस्कन्दपुराणे
शीतलाअष्टक स्तोत्रं ॥
अष्टक-
आरती-
जय शीतला देवी माँ, मैया जय शीतला देवी माँ,
आदि ज्योति महारानी सब फल की दाता ॥ जय
रतन सिंहासन शोभित, श्वेत छत्र भाता,
ऋद्धि सिद्धि मिल चँवर डोलावें, जगमग
छवि छाता ॥ जय
विष्णु सेवत ठाढ़े, सेवें शिव धाता,
वेद पुराण वरणत, पार नहीं पाता॥ जय
इन्द्र मृदंग बजावत चन्द्र वीणा हाथा,
सूरज ताल बजावै नारद मुनि गाता॥ जय
घंटा शंख शहनाई बाजै मन भाता,
करै भक्त जन आरती लखि लखि हर्षाता ॥ जय
ब्रह्म रूप वरदानी तुही तीन काल ज्ञाता,
भक्तन को सुख देती मातु पिता भ्राता ॥ जय॥
जो जन ध्यान लगावे प्रेम शक्ति पाता,
सकल मनोरथ पावे भवनिधि तर जाता ।॥ जय
रोगों से जो पीड़ित कोई शरण तेरी आता,
कोढ़ी पावे निर्मल काया अन्ध नेत्र पाता॥ जय
बांझ पुत्र को पावे दारिद्र कट जाता,
ताको भजै जो नाहीं सिर धुनि पछताता ॥ जय
शीतल करती जन की तू ही है जग त्राता,
उत्पत्ति बाला बिनाशन तू सब की देवी माँ॥ जय
दास नारायण कर जोरी देवी माँ,
भक्ति आपनी दीजैं और न कुछ देवी माँ॥ जय
-वास्तु,कुंडली,हस्तरेखा ,अंकविद्या.
(1972 से)–
- शिक्षा के विषय क्या हो ?केरियर ? job,
उपाय ।
-सफलता के आजीवन टिप्स –Do’s &
Dont’s
-कुंडली निर्माण एवं मिलान – विशेषज्ञ
ध्यातव्य एवं ज्ञातव्य –जन्म नक्षत्र
से,विवाह हेतु मिलान करते हें और कहते हें लोग कुंडली मिलान किया है |
अपूर्ण विधि- अष्टकूट विधि - 36
गुण से मिलान, जन्म नक्षत्र से मिलान केवल ,उसके चरण से भी नहीं ।
श्रेष्ठ विधि-32 कूट ,05 नाडी.06 वर्ण,09ग्रह, से
कुंडली मिलान । मंगल दोष,भकूट दोष के निराकरण / parihar /अपवाद के
शास्त्रोक्त एवं ग्रंथों के नियम सहित विवरण ।9424446706
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